नीरज नेगी
ऊखीमठ – धार्मिक सामाजिक एवं सास्कृर्तिक परम्पराओं को अपने आंचल में समेटे केदार घाटी के मध्य हिमालयी भू-भाग में बसा ऊखीमठ अनादिकाल से साधना एवं आस्था का केन्द्र रहा है, यह स्थान जहां धार्मिक गाथाओं से ओत-प्रोत है वही प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण होने के कारण मनोहरी भी है वाणासुर की कन्या उषा की तपस्थली होने के कारण पूर्व में इसे उषामठ के नाम से जाना जाता था। स्कन्द पुराण के केदारखण्ड के 19 वें अध्याय के कुशलाशव के वंश वर्णित के श्लोक संख्या एक से छ: तक वर्णित है कि सतयुग के महाप्रतापी राजा कुशलाशव के तीन पुत्र थे, जो बल एवं पराक्रम में प्रसिद्ध थे, उनमें श्रेष्ठ पुत्र महायशस्वी था, उसका हर्यश्रव नामक पुत्र हुआ, हर्यश्रव का पुत्र निकुम्भ हुआ जो धर्म को जानने वाले में श्रेष्ठ था, निकुम्भ का पुत्र संध्ताश्व और उसका पुत्र कृशाश्व और दूसरा अकृशाश्व हुआ, कृशाश्व की पत्नी दृषद्वती परम सुन्दर थी,
कृशाश्व के एक पुत्र तथा एक कन्या हुई उस कन्या का नाम हेमवन्ती था तथा पुत्र का नाम प्रसेनजित था, समय रहते प्रसेनजित की शादी गौरी नामक स्त्री से हुई तथा उनका पुत्र युवनाश्व हुआ, युवनाश्व की सौ पत्नियां थी मगर लम्बा समय बीतने पर भी उनकी कोई सन्तान नही हुई कई वर्ष बीतने पर युवनाश्व के कुलगुरू ने उन्हे बताया कि पुत्र प्राप्ति के लिए तुम्हे पुत्रेष्ठी यज्ञ करना पडेगा। यज्ञ करने के फलस्वरूप तुम्हे एक अभिमंत्रित जल कलश प्राप्त होगा। उस अभिमंत्रित जल कलश में से तुम्हे एक एक अजंलि जल सभी रानियों को पिलाना होगा तभी तुमको पुत्र की प्राप्ति होगी। कुलगुरू की आज्ञा अनुसार राजा युवनाश्व द्वारा पुनेष्ठी यज्ञ सम्पन्न कराया गया, यज्ञ सम्पन्न होने पर राजा को अभिमंत्रित जल कलश की प्राप्ति हुई जल कलश प्राप्त होने पर पूरी प्रजा में खुशी छा गयी, राजा युवनाश्व द्वारा अभिमंत्रित जल कलश को अपने शयन कक्ष में रखा गया। राजा युवनाश्य को रात्रि के समय एक अनोखा सपना हुआ और सपने की बैचेनी में राजा युवनाश्व ने उस अभिमंत्रित जल को स्वयं ग्रहण कर दिया। उसके बाद राजा युवनाश्व की छाती फटी और उनका एक पुत्र उत्पन्न हुआ।
मां की कोख से पैदा न होने के कारण उस पुत्र का मान्धाता रखा गया। समय रहते राजा मान्धाता चक्रवर्ती सम्राट बना। राजा मान्धाता तीनों लोकों पर विजय पाने वाला राजा हुआ। उसकी कीर्ति पुराने गीतो मे आज भी गयी जाती है, तीनों लोकों में अमित तेजस्वी देवता या मनुष्य कोई भी पराक्रम तथा धर्म में उस राजा मान्धाता के समान नही था।
राजा मान्धाता ने अपने शासन काल में सभी को समान का दर्जा दिया। उनकी प्रजा किसी भी प्रकार दु:खी नही रहती थी, राजा मान्धाता ने चौथी अवस्था में अपने पुत्र पुरूकुत्स तथा ज्येष्ठ पुत्र मुचकन्द को राजपाट सौपकर हिमालय की गोद में आकर ऊखीमठ में भगवान शंकर की तपस्या में लीन हो गये। राजा मान्धाता की तपस्या से खुश होकर भगवान शंकर ने उन्हे ओकारेश्वर रूप में दिव्य दर्शन दिये और वरदान मांगने को कहा, जिस पर राजा मान्धाता ने भगवान शंकर से कहा प्रभु आपको विश्व कल्याण व भक्तों के उद्वार के लिए यही निवास करना होगा। तब से लेकर वर्तमान समय तक भगवान शंकर इस तप स्थली पर ओकारेश्वर रूप में विराजमान होकर विश्व कल्याण व अपने भक्तों की मनोकामनायें पूर्ण कर रहे है। भगवान ओकारेश्वर का मन्दिर कैत्यूरी शैली से बना हुआ है।
द्वापर युग में बाणासुर की पुत्री उषा व उसकी सहेली चित्रलेखा के यहां निवास करते समय मन्दिर के चारों ओर कोठे का निर्माण किया गया था, तथा आदि जगतगुरू शंकराचार्य के हिमालय आगमन पर उनके द्वारा कोठे का जीणोद्वार किया गया था। इस तीर्थ में भगवान केदारनाथ व द्वितीय केदार भगवान मद्महेश्वर की शीतकालीन गद्दीस्थल होने के कारण यहां पूजा-अर्चना करने से सौ गुणा फल की प्राप्ति होती है इसी पावन स्थल पर भगवान केदारनाथ मद्महेश्वर तुंगनाथ रूद्रनाथ, कल्पेश्वर, बारही देवी, भैरवनाथ, व मां चण्डिका के साथ ही उषा-अनिरूद्ध का विवाह मण्डप विराजमान हैं,
इसलिए जो व्यक्ति पंचकेदारों की यात्रा नही कर पाते उनके द्वारा इस तीर्थ में पूजा-अर्चना यज्ञ व तर्पण करने से उनके मनोरथ सिद्व हो जाते है। इस पावन पंच केदार गद्दी स्थल पर प्रतिदिन वेदपाठियों, ब्राह्मणों व प्रधान पुजारियों द्वारा यहां विराजमान देवी-देवताओं की वैदिक मंत्रोच्चारणों से पूजा किये जाने से यहां का वातावरण प्रतिदिन भक्तिमय बना रहता है। भगवान ओकारेश्वर के मन्दिर में हर दिन रूद्रीपाठ नामक व चमक पुरूषोक्त मंत्रों से महाभिषेक पूजन: भगवान का श्रृंगार नित्य भोग व महाभोग लगाकर आरती उतारी जाती है।