डॉ वीरेंद्र बर्त्वाल
सुना है कि भरतू की ब्वारी की देखादीखी में सरतू की ब्वारी भी देहरादून भाग गई है। इस प्रकार उस गांव की एक और मवासी कम हो गई। गांव वालों के लिए ब्यो-कारजों में दिया जाना वाला एक पैणा कम हो गया। गांव वाले भरतू की ब्वारी के जाने से उतने मायूस नहीं थे, जितने सरतू की ब्वारी के जाने से,क्योंकि सरतू की ब्वारी गांव में सबकी मदद करती थी। घट्वाड़ी के किट से लेकर लकड़ी के भारे और दैं कूटने से लेकर पगार लगाने के लिए कई असहाय लोग उसे बुलाते थे। उसके लगाए ज्यूड़े चार साल तक भी नहीं टूटते थे और नसूड़ों की फिनिशिंग में तो उसका जवाब नहीं था।
हस्तशिल्प की यह कला वह कुछ मायके से सीखकर आई थी और बाकी अपने ससुर जितार सिंह के सानिध्य में सीखकर उसने खुद को निखारा। वह पढ़ी-लिखी कम थी, लेकिन पिछले अठारह साल से महिला मंगल की प्रधान होने के नाते उसने उन पियक्कड़ों की नाक में दम कर रखा था, जो सुबह चाय के टैम से रात दूध के टैम तक कच्ची-पक्की गटकते रहते थे। गांव के ऐसे दो-चार झांझी अब भले ही मौज मना रहे थे, पर बिरमा, सुरमा और नौरती चाची बरमंड पकड़कर बैठी थी कि फिर से गांव में दारूवालों का वह पुराना दौर शुरू हो जाएगा।
दरअसल, सुरतू की ब्वारी गांव से हींस में देहरादून नहीं गई, बल्कि वह अपने बूते वहां पर कुछ करना चाहती है। गांव में वह सुबह पांच से रात के आठ बजे तक खटती रहती है, पर उसकी मेहनत का वाजिब परिणाम नहीं मिल पाता है। गांव की उखड़ खेती में उसकी सब्जियां आसमान की बारिश पर निर्भर रहती हैं। टमाटर, मौसमी आदि की चैकीदारी न करे तो बंदर, सूअर और सौले मौज मनाते हैं। इसलिए वह इस रिस्की खेती को छोड़ना चाहती थी। फिर नगदी सब्जियां और फल कभी हो भी गए तो मार्केटिंग का साधन नहीं। देहरादून के एक दूर के ’’वाला’’ में उसके भाई का बड़ा सा प्लाॅट है, जिस पर वह भिंडी, टमाटर, फ्रासबीन और मशरूम उगाना चाहती है। वह गांव की द्यूराणी-जिठाणियों को चैलेंज करके गई है कि अब गांव आऊंगी तो तीन तोले की चेन, दो तोले के झुमके और गरगरे सोने के कड़े पहनकर आऊंगी। गांव वालों को भी उसकी मेहनत और लगन पर पूरा भरोसा है। कल उसने देहरादून पहुंचते ही बंजर प्लाॅट में खुदाई के लिए ट्रैक्टर वाले से बात कर ली थी।