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बड़े नसीब वालों को मिलती है दो जून की रोटी, जानिए 2 जून की रोटी का पूरा इतिहास..

बड़े नसीब वालों को मिलती है दो जून की रोटी, जानिए 2 जून की रोटी का पूरा इतिहास..

 

 

 

 

 

दो जून उत्तर भारत में खासकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में काफी मशहूर है। क्योंकि इस भाषा का इस्तेमाल इसी भाषा में होता है। यह कहावत तब प्रचलन में आई जब मुंशी प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद जैसे बड़े साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में इसका भरपूर इस्तेमाल किया था।

 

उत्तराखंड: दो जून उत्तर भारत में खासकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में काफी मशहूर है। क्योंकि इस भाषा का इस्तेमाल इसी भाषा में होता है। यह कहावत तब प्रचलन में आई जब मुंशी प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद जैसे बड़े साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में इसका भरपूर इस्तेमाल किया था। आज दो जून हैं ‘दो जून की रोटी’ पर अक्सर लोग जोक बनाते हैं।

 

जैसे आज दो जून है आज रोटी जरूर खाना क्योंकि ‘दो जून की रोटी बहुत मुश्किल से मिलती है’। इसके अलावा ‘वह लोग बहुत खुशनसीब लोग होते हैं जिनको दो जून की रोटी मिलती है. आपने अक्सर 2 जून की रोटी के बारे में सुना होगा या फिर इससे जुड़े चुटकुले या कहावत ज़रूर पड़े होंगे। दो जून की रोटी बड़े नसीब वालों को मिलती है। यह बात हम बचपन से अपने बड़े-बुजुर्गों से सुनते और किताबों में पढ़ते आ रहे हैं।

आखिर क्या है दो जून की रोटी का मतलब..

दो जून का सीधा सा मतलब है कि एक दिन में दो समय का खाना मिलना। जिनको दिन में दो वक्त का खाना मिलता है वह खुशनसीब कहे जाते हैं क्योंकि उन्हें ‘दो जून की रोटी’ मिल रही है। जिनको मेहनत के बावजूद दोनों टाइम का खाना नहीं मिल पाता उनके लिए मुश्किल है।

साथ ही अवधी भाषा में ‘जून’ का मतलब ‘वक्त’ होता है। ‘दो जून की रोटी’ का मतलब है कि आपको दिन में दो वक्त का खाना मिल रहा है. इसका मतलब आप संपन्न हैं. अगर किसी को ‘दो जून’ यानी ‘दो वक्त’ का खाना नहीं मिल पा रहा है तो उसके बारे में कहा जाता है कि बहुत मेहनत करने के बाद भी ‘दो जून की रोटी’ नसीब नहीं, मतलब ‘दो वक्त का खाना’ नहीं मिल पाता. हालांकि, विशेषज्ञों के अनुसार, यह कहावत कोई साल दो साल या फिर 10-20 साल से नहीं कही जा रही। यह बात हमारे पूर्वज बीते करीब छह सौ साल से प्रयोग कर रहे हैं. वैसे इस बारे में अब तक यह भी नहीं पता चला है कि इस मुहावरे की शुरुआत कहां से हुई है लेकिन इसका शाब्दिक अर्थ जरुर सामने है।

प्रेमचंद की कहानी ‘नमक का दरोगा’ में इस कहावत का जिक्र किया गया है। इतिहासकारों और जानकारों का कहना है कि जून गर्मी का महीना है. और इस महीने में अक्सर सूखा पड़ता है। जिसकी वजह से चारे-पानी की कमी हो जाती है। जून में ऐसे इलाकों में रह रहे परिवारों को दो वक्त की रोटी के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। इन्हीं हालातों में ‘दो जून की रोटी’ प्रचलन में आई होगी।

युनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ़ ह्यूमन राइट्स (UDHR) अर्टिकल 25 के अनुसार जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को व्यक्ति का अधिकार बनाया गया हैं जिसमें भोजन भी शामिल हैं. भारत में भोजन का अधिकार सबसे मूलभूत अधिकारों में शामिल हैं. देखा जाये तो आज के समय में भी भारत में अब भी ऐसे लोग बसते हैं जिनको ‘दो जून की रोटी’ नहीं मिल पाती।

साल 2017 में नेशनल फैमिली हेल्थ के सर्वे के अनुसार भारत में 19 करोड़ लोग ऐसे हैं जिन्हें ‘दो जून की रोटी’ नहीं मिल पाती। लोगों को ‘दो जून की रोटी’ मिल सके इसलिए सरकार ने कोरोना काल में लोगों को मुफ्त राशन बांटा और यहाँ भी बताया जाता है कि इस योजना से तकरीबन 80 करोड़ लोगों को फायदा मिला।

सरकारें देश में गरीबी दूर करने के लिए कई योजनाएं लेकर आती रही है। करोड़ों-अरबों रुपये इन योजनाओं के जरिए गरीबी दूर करने के लिए होता रहा है। इसके बाद आज भी करोड़ों लोग है जिनको पर्याप्त भोजन नहीं मिल पाता है। कोरोना काल में केंद्र सरकार ने सभी लोगों को दो जून की रोटी नसीब कराने के लिए मुफ्त में राशन मुहैया कराया था, जिसका फायदा करोड़ो लोगो को मिला था।

 

 

 

 

 

 

 

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