एक पतिव्रता नारी के त्याग व समर्पण की लोककथा-(रामी बौराणी)
उत्तराखंड: रामी बौराणी की कथा उत्तराखण्ड के गढ़वाल मंडल की एक बहुप्रचलित लोककथा में से एक हैं। रामी का पति बीरू जो कि सेना में हैं। एक बार उसके पति को युद्ध में दूर बॉर्डर पर लड़ने जाना पड़ता हैं। रामी के भाग्य में भी पहाड़ की अधिकांश सध्वाओं की तरह पति का इंतजार बदा हैं। रामी पहाड़ की अन्य सभी महिलाओ की तरह पानी भरती हैं, घास काटती हैं, जानवरों की देखभाल करती हैं। इस तरह वह हाड़-तोड़ मेहनत कर अपने पति के आने का इंतज़ार करती हुई समय गुजारती रहती हैं। विरह का दुःख उसे सालता रहता हैं। उसके ससुर की मृत्यु हो चुकी है और वह अपनी बूढ़ी सास के साथ गुजारा कर रही हैं।
रामी का इन्तजार ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेता हैं। 12 वर्ष यूं ही गुजर जाते हैं। न पति आता है न उसकी कोई खबर आती हैं। लेकिन रामी को अपने पतिव्रत्य पर पूरा भरोसा है, उसे विश्वास है कि मेरे पति एक दिन अवश्य वापस आएंगे। घर और खेतों में मेहनत कर हर दिन के इंतजार में गुजारा गया यह मुश्किल वक़्त भी आखिर ख़त्म हो जाता है और आखिर 12 वर्ष के बाद पति किसी तरह दुश्मनों के चंगुल से छूट कर गांव लौट आता हैं। गांव लौटते हुए रामी का पति सोचता है कि 12 साल का वक़्त बहुत लंबा होता है, इस बीच न जाने क्या-क्या गुजर चुका होगा, पत्नी मिलेगी भी या नहीं। कहीं पत्नी ने किसी और के साथ घर तो नहीं बसा लिया हो। इसी विचार में वह गाँव पहुँचने के बाद पत्नी की परीक्षा लेने के बारे में सोचता हैं।
वह गाँव पहुँचने से पहले ही रामी की परीक्षा लेने की इच्छा से सन्यासी का वेश धारण कर लेता हैं। जब वह गाँव पहुँचता है तो दोपहर की धूप अपने चरम पर हैं और चटख धूप के कारण चौपालों में बैठे रहने वाले बुजुर्ग और खेतों में काम करने वाली महिलाएं घर पर ही आराम कर रही हैं। लेकिन जब वह अपने घर के पास पहुँचता है तो उसे यह देखकर बड़ी हैरानी होती है की उसके खेत में एक स्त्री कुछ काम कर रही होती हैं। पास पहुंचकर उसे खेत में गुड़ाई करते हुए पाता है, उसके चेहरे पर उदासी पसरी हुई हैं, और पास पहुँचने पर देखता है कि हाय! यह तो उसकी पत्नी रामी हैं। कड़ी मेहनत और जीवन के अकेलेपन और विरह वेदना ने रामी के चेहरे का नूर ख़त्म सा कर दिया हैं।
उसके पास पहुंचकर वह उसका परिचय पूछता हैं। हे दोपहर की चटख धूप में गुड़ाई करने वाली रुपसा तुम कौन हो, तुम्हारा नाम क्या है? तुम किसकी बेटी, बहू हो? तुम कहा पर रहती हो? दिन चढ़ आया है, सब अपने घरों को जा चुके हैं पर तुम अकेली गुड़ाई कर रही हो धार्मिक श्रद्धा के वशीभूत रामी साधू को प्रणाम करती हैं। साधू के पूछने पर रामी उसे बताती है कि उसका पति लम्बे समय से परदेस में युद्ध में है और वह उसका इंतजार कर रही हैं। वह साधू से कहती है कि तू तो जोगी है, यह बता कि मेरा पति घर कब लौटेगा।
साधू खुद को सिद्ध बताते हुए कहता है कि मैं तुम्हारे सभी प्रश्नों का उत्तर दूंगा। लेकिन तुम पहले अपना पता बताओ, पुनः अपने काम में लगे ही वह साधू से बात करते हुए उसे बताती है कि मेरा नाम रामी है, मैं रावतों की बेटी हूँ और पाली के सेठों की बहू, साधू आगे पूछता है कि तेरे सास-ससुर और जेठ कहाँ हैं। रामी उसे बताती है कि मेरे ससुर परलोक सिधार चुके हैं और सास घर पर हैं। मेरे पति को गए लंबा समय हुआ है और आज तक उनकी कुशल-क्षेम तक नहीं मिल पा रही हैं।
अब साधू उसकी असली परीक्षा लेने के लिए उससे कहता है अरे! रामी 12 वर्ष से तू क्यों उसके इन्तजार में अपनी जवानी बर्बाद कर रही हैं। वह अब नहीं लौटने वाला हैं। तो अपने यौवन का नाश न कर। चल दो घड़ी बुरांश की छाया में साथ बैठकर बात करते हैं और जीवन का आनंद उठाते हैं। ये सुनते ही रामी को गुस्सा आ जाता है
वह साधू को खरी-खोटी सुनाते हुए कहती है कि तू साधू नहीं कपटी है, तेरे मन में खोट हैं। साधू पुन: उसे फुसलाने की कोशिश करता हैं। रामी कहती है कि धूर्त! तुझे बैठना ही है तो अपनी बहनों के साथ छाया में बैठ। मैं एक पतिव्रता नारी हूँ अगर तूने आगे कुछ कहा तो तुझे मेरे मुंह से गालियाँ सुनने को मिलेंगी। वह उसे कुटलि दिखाकर उससे मारने की धमकी भी देती हैं।
कई कोशिशें करने की बाद भी नाकाम रहने पर थक-हारकर साधू गाँव की ओर घर में अपनी माँ के पास पहुंचता हैं। वैधव्य और बुढ़ापे से असक्त हो चुकी माँ उसे नहीं पहचान पाती। साधू का वेश धरे बीरू को यह देखकर बहुत कष्ट होता हैं। साधू बुढ़िया का हाथ देखकर कहता है कि माई तेरा बेटा 12 साल से घर नहीं लौटा। बुढ़िया उसके ज्योतिष ज्ञान से प्रभावित होकर भिक्षा के लिए अनाज देकर उससे कहती है कि मेरे बेटे की कुछ खबर भी बताओ। मेरा बेटा कब तक लौट आयेगा।
साधू कहता है कि मैं इस अनाज का क्या करूँगा, मैं बहुत भूखा-प्यासा हूं हो सके तो मुझे भोजन करा दो। भोजन करने के बाद ही मैं तुम्हारे बेटे के बारे में कुछ बताऊंगा और उपाय भी करूँगा। तभी रामी भी घर पहुँचती हैं। वहां बैठे साधू को देखकर वह उससे कहती है कि तू यहां भी पहुँच गया। वह अपनी सास से कहती है कि ये साधू धूर्त और कपटी हैं। सास रामी को डाँटती है कि साधू का अपमान नहीं करते। वह साधू से क्षमा मांगते हुए कहती है कि पति के वियोग में इसका दिमाग खराब हो गया है, आप इसकी बात का बुरा न मानें।
सास रामी को भीतर जाकर साधू के लिए भोजन बनाने को कहती हैं। अनमने मन से रामी भोजन बनाकर साधू के लिये मालू के पत्ते में भात ले आती हैं। यह देखकर साधू खाना खाने से मन कर देता है और बीरू की थाली में ही खाने की जिद पकड़ लेता हैं। यह सुनकर रामी और भी ज्यादा बौखलाकर कहती है कि खाना है तो ऐसे ही खाओ, मैं अपने पति की थाली में किसी गैर को खाना नहीं परोस सकती। मेरे पति की थाली को कोई नहीं छू सकता। वह उससे कहती है कि खाना है तो ऐसे ही खा नहीं तो अपने रास्ते जा। यह कहकर वह गुस्से से घर के भीतर चली जाती हैं। सास साधू के ज्योतिष ज्ञान से प्रभावित होकर उसे बेटे की थाली में खाना परोसने को तैयार हो जाती हैं। उसे लगता है कि साधू उसके बेटे के लिए कुछ उपाय भी करेगा।
इसी बीच रामी के पतिव्रता धर्म के प्रभाव से साधू का वेश धरे बीरू का शरीर कांपने लगता है और उसका पसीना छूटने लगता हैं। वह अपनी माँ के चरणों में गिर पड़ता है और अपना चोला उतार फेंकता है और बताता है -माँ! मैं तुम्हारा बेटा बीरू हूँ, माँ देखो मैं वापस आ गया। माँ फ़ौरन अपने बेटे को गले लगा लेती हैं।
इसी बीच सास की पुकार सुनकर रामी भी बाहर आ जाती हैं और इस तरह उसे अपनी तपस्या का फल मिल जाता हैं। एक पतिव्रता भारतीय नारी का प्रतीक रामी के तप, त्याग और समर्पण पर इस कहानी को उत्तराखण्ड में खूब कहा-सुना जाता हैं। जिसके काव्य नाटिका और गीत भी खूब प्रचलित हैं। रामी बौराणी की काव्य नाटिका का मंचन भी बहुत लोकप्रिय हैं।