उत्तराखंड

उत्तराखंड में ब्ल्यू ह्वेल गेम बन गये पलायन और गैरसैंण

गुणानंद जखमोला

फर्क सिर्फ इतना है ब्ल्यू ह्वेल गेम में खिलाड़ी आत्महत्या करता है और पलायन-गैरसैंण में खिलाड़ी हठ्हास करता है और जनता रोती है

सोशल मीडिया। हर साल जब नवम्बर आता है तो दो गेम्स की एक और स्टेज राज्य भर में छा जाती है। गैरसैंण राजधानी और पलायन। दोनों पर खूब जोर-जोर से बाते होती हैं, तर्क दिये जाते हैं। एक-दूसरे को खलनायक बनाने की कसर नहीं छोड़ी जाती। अपने उत्तराखंड आंदोलन में किये गये त्याग को बताने से कोई भी गुरेज नहीं करता। कई तो तर्क ऐसे होते हैं कि राज्य आंदोलन में भाग लेना था, धरने पर बैठा था, घंटों पेट की मरोड़ रोके रहा। कोई 17 साल बाद भी व्याकुल है कि उसे राज्य आंदोलनकारी का दर्जा नहीं मिला।

पक्ष-विपक्ष के लोग खूब जोर जोर से माइक से चिल्लाते हैं, शहीदों का सपनों का राज्य नहीं है। मुजफ्फरनगर के दोषियों को सजा नहीं मिली। पलायन नहीं रुका। मोदी जी को पलायन का अर्थ भी नहीं पता लेकिन श्रीनगर से कह दिया कि पलायन नहीं होगा तो वोट उनकी झोली में जा गिरे। त्रिवेंद्र की सरकार बनी तो कांग्रेसी जोर-जोर से चिल्लाए, पलायन नहीं रुका, पलायन नहीं रुका। त्रिवेंद्र सरकार ने कहा, अच्छा लो अभी रुकता है पलायन। गठित कर दिया पलायन आयोग। हिमाचल कैडर के नेगीजी को कहा कि तीन-चार साल उत्तराखंड घूम फिर लो, दे देना अपनी रिपोर्ट।कहना, ऐसे रुकेगा पलायन। कांग्रेसियों की बोलती बंद।

इस बीच पौड़ी के चमाली गांव से चैतु, सतपाली गांव से बैशाखू और बडे़थ गांव से नत्थू का परिवार बस पकड़ने के लिए पार्टीसैंण में इक्टठा हुआ। तीनों परिवार दिल्ली बसना चाहते थे, भाजपाइयों को लगा कि पलायन हो रहा है। कांग्रेसियों को लगा कि पलायन हो रहा है। भाजपाई तीनों को कहने लगे, अबे वापस घर जाओ, कांग्रेसियों को क्यों मौका दे रहे हो। कांग्रेस कहने लगे, जाओ-जाओ, पहाड़ को भाजपा थोड़ी बसाएगी। झगड़ा चल रहा था कि बस आई और पलायन हो गया। कांग्रेसी हंसने लगे, लो हो गया विकास, पलायन कहां रुका। गली-गली में शोर है, भाजपा सरकार फेल है। भाजपाई मुंह बनाकर बोले, ये खेल तो 17 साल से च ल रहा है। आज मेरी बारी तो कल तेरी बारी। अब सुना है नेगीजी चैतु, बैशाखू और नत्थू को मनाने दिल्ली जाएंगे। पलायन-पलायन के इस खेल में एक नया मोड़ आ गया। गैरसैंण सत्र का। हर साल जैसे किसी की बरसी मनाई जाती है वैसे ही गैरसैंण को हर साल एक या दो बार दुल्हन के लिबास में सजाया जाता है।

शामियाना लगता है, श्रंृगार होता है कि गैरसैंण का स्वयंवर होगा। दरबार सजता है, वरमाला लिए गैरसैंण खड़ी हो जाती है और साथ में तमाशा देख रही पब्लिक। हर साल गैरसैंण की दिल की धड़कनें बढ़ जाती हैं, आंखों में हसीन सपने तैरने लगते हैं, लगता है कि इस बार ब्याह भी होगा और हनीमून भी। पर, वैरी स्वयंवरकारी गैरसैंण का वरण नहीं होता। गैरसैंण के लिए कोई रामावतार नहीं होता। रावण ही खलल डाल देते हैं और सजी-धजी गैरसैंण की डोली नहीं उठ पाती। मरहम लगाया जाता है कि तू (गैरसैंण) अभी बालिग नहीं हुई। 17 साल की ही तो है, सुप्रीम कोर्ट ने बाल विवाह पर रोक लगाई है। 18 की हो जा तो अगली बार वरण हो जाएगा। गैरसैंण सुप्रीम कोर्ट के बाल विवाह के आदेश के चलते आज तक कुंवारी ही है। 17 साल से उत्तराखंड में यही गेम चल रहा है। ब्ल्यू ह्वेल गेम की तर्ज पर। फर्क ये है कि ब्ल्यू ह्वेल गेम पर कानूनन रोक लग सकती है लेकिन नेताओं के वादों पर कौन रोक लगाए? ब्ल्यू ह्वेल गेम में 50 स्टेज होती हैं और उसके बाद खिलाड़ी आत्महत्या कर लेता है लेकिन उत्तराखंड के इन गेम्स में हर स्टेज पर खिलाड़ी जीत कर हठ्हास करता है और जनता खून के आंसू रोती है।

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