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कारगिल की जंग में गंवाया एक पैर, शरीर में 73 छर्रे फिर भी दौड़े 26 हाफ मैराथन .. 

कारगिल की जंग में गंवाया एक पैर, शरीर में 73 छर्रे फिर भी दौड़े 26 हाफ मैराथन .. 

कारगिल की जंग में गंवाया एक पैर, शरीर में 73 छर्रे फिर भी दौड़े 26 हाफ मैराथन .. 

 

देश – विदेश :  48 वर्षीय डीपी सिंह दिसंबर 1997 में सेना में भर्ती हुए। करीब डेढ़ साल बाद ही कारगिल जंग शुरू हो गई। 13 जुलाई 1999 को उन्होंने जम्मू-कश्मीर के अखनूर सेक्टर में बनी एक पोस्ट को संभाला। आज पूरा देश कारगिल विजय दिवस मना रहा है। कारगिल के योद्धाओं में मेजर (सेवानिवृत्त) देवेंद्र पाल सिंह उर्फ डीपी सिंह के योगदान को भूला नहीं जा सकता। 15 जुलाई को 25 साल की उम्र में जंग के दौरान उनके पास मोर्टार फट गया।

पैर और शरीर बुरी तरह से जख्मी था। डॉक्टरों ने मृत घोषित कर दिया लेकिन ये चमत्कार ही था कि वे जी उठे और ऐसे जिए, जिसकी मिसाल पूरे देश में दी जाती है। ये कहानी है देश के पहले ब्लेड रनर, सोलो स्काई डाइविंग करने वाले एशिया के पहले दिव्यांग और कई नेशनल अवॉर्ड जीत चुके मेजर डीपी सिंह की।

48 वर्षीय डीपी सिंह दिसंबर 1997 में सेना में भर्ती हुए। करीब डेढ़ साल बाद ही कारगिल जंग शुरू हो गई। 13 जुलाई 1999 को उन्होंने जम्मू-कश्मीर के अखनूर सेक्टर में बनी एक पोस्ट को संभाला। उनके साथ कई अन्य जवान भी थे। पहले दो दिन सब शांत रहा। 15 जुलाई को अचानक फायरिंग शुरू हो गई। दुश्मनों ने अचानक दो मोर्टार दागे। एक मोर्टार उनके पास तक आ गया और फट गया। बहुत तेज धमाका हुआ और वह बुरी तरह से घायल हो गए। शहर के कई हिस्सों से खून बह रहा था।

किसी तरह उन्हें वहां से निकाल कर सेना के कमांड अस्पताल पहुंचाया गया। वहां डॉक्टरों ने हालत देखकर मृत घोषित कर दिया। कुछ देर बाद एक सीनियर डॉक्टर ने देखा कि उनकी तो सांसें चल रही हैं। ऐसे, उनका पुनर्जन्म हुआ। हालांकि उनका पैर काटना पड़ा। सिंह ने बताया कि उन्हें हौसला देने वाला कोई नहीं था इसलिए जो-जो चीजें उन्होंने झेलीं, वह किसी और को न झेलनी पड़े इसके लिए वर्ष 2011 में द चैलेंजिंग वन्स नामक एनजीओ शुरू किया। इसमें देश भर से 2700 सदस्य हैं। वे सभी का कॉन्फिडेंस बनाते हैं। खेलने को कहते हैं ताकि आत्मविश्वास आए।

कृत्रिम पैर लगवाने पहुंचे तो वजन था महज 28 किलो..

डीपी सिंह ने बताया कि करीब एक महीने तक न जाने कितनी सर्जरियां हुईं। शहर का कोई हिस्सा नहीं बचा, जहां चोट न लगी हो। फिर भी 38 से 40 दिनों बाद वह सहारे से खड़े होने लगे। इस बीच कृत्रिम पैर के लिए पुणे में प्रोसेस शुरू कर दिया गया था। वह वहां ट्रेन से पहुंचे। डॉक्टर भी हैरान थे कि 28 किलो के वजन के साथ वह ट्रेन में इतना लंबा सफर करके कैसे पहुंचे। फिर पैर लगा। काफी समय उन्हें इसकी आदत बनाने में लगा। फिर सेना में 2007 तक काम किया। कहा कि उन्हें दूसरी लहर में कोविड भी हुआ, जिसने काफी नुकसान पहुंचाया है। नर्वस सिस्टम पर भी असर पड़ा है।

100 फीसदी दिव्यांग, फिर भी अंगदान करने की ली है शपथ..

डीपी सिंह ने बताया कि वह 2007 में सेना से बाहर आए और 2009 में दौड़ना शुरू किया। 2011 में वे देश के पहले ‘ब्लेड रनर’ बने। अब तक वे 26 से ज्यादा हाफ मैराथन में भाग ले चुके हैं। 42वें जन्मदिन को यादगार बनाने के लिए उन्होंने 42 किलोमीटर की फुल मैराथन में भाग लिया था। वे सांगला, लेह और कारगिल में हुई मैराथन में भी दौड़ चुके हैं। इसके अलावा चार बार लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स, 2018 में भारत सरकार ने उन्हें राष्ट्रीय प्रेरक व्यक्तित्व का सम्मान दिया है। सौ फीसदी दिव्यांग घोषित किए जाने के बावजूद उन्होंने अंगदान और बोन मैरो दान का संकल्प ले रखा है। मेजर सिंह ने नासिक में पहली बार सफल स्काई डाइविंग की। ऐसा करने वाले वे एशिया के पहले दिव्यांग हैं।

डेथ एनिवर्सरी और पुनर्जन्म का केक काटते हैं मेजर..

डीपी सिंह 15 जुलाई को अपनी डेथ एनिवर्सरी और पुनर्जन्म, दोनों का केक काटते हैं। उन्होंने बताया कि पहली बार केक बनाने वाले को जब ये लिखने को कहा तो वह डर गया। जो गेस्ट आए थे, वह भी सोच में पड़ गए थे लेकिन यही सच्चाई है। डॉक्टरों ने उन्हें 15 जुलाई के दिन मृत घोषित कर दिया था और इसी दिन उनका पुनर्जन्म भी हुआ। कहा कि वह ये दिन सेलिब्रेट करना कभी नहीं भूलते। मेजर सिंह के जीवन पर एक किताब भी लिखी गई है, जिसका नाम ‘ग्रीट द मेजर स्टोरी’ है।

आसान नहीं है, डीपी सिंह की जिंदगी..

एक पैर गंवाने के बाद उन्हें चलने, दौड़ने और साइकिल चलाने के लिए अलग कृत्रिम पैर हैं। इन्हें पहनने में ही 30 मिनट तक का समय लगता है। चोट और शरीर के अंदर 73 छर्रे होने की वजह से पेट साफ करने में एक घंटे तक का समय लगता हैं। करीब 25 छर्रे तो टांग में ही हैं। इसकी वजह से कोविड से पहले भी उन्हें हर 10-15 दिन का ब्रेक लेना पड़ता था। हर समय शरीर में दर्द रहता है। कोविड ने हालात बिगाड़ दिए हैं।

सेना में होना चाहिए साइकोलॉजिकल काउंसलर..

डीपी सिंह ने कहा कि जो जवान युद्ध में घायल हो जाते हैं, उन्हें मानसिक सहारे की बहुत जरूरत होती है। उनके अनुसार सेना में इसकी अभी कमी है। उन्होंने बताया कि 2018 में भारतीय सेना ने ईयर ऑफ डिसेबल्ड सोल्जर के तौर पर मनाया। वह इसके ब्रांड एंबेसडर थे। इस दौरान उन्हें पता चला था कि सेना में साइकोलॉजिकल काउंसलर के 10 पद हैं, लेकिन वह पिछले कई वर्षों से खाली पड़े हैं। घायल सैनिकों की काउंसिल की जानी चाहिए ताकि वह हतोत्साहित न हों।

 

 

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