उत्तराखंड

जानिए आखिर क्यों उत्तराखंड में यहां की जाती है भूत की पूजा..

जानिए आखिर क्यों उत्तराखंड में यहां की जाती है भूत की पूजा..

 

 

उत्तराखंड: हर साल पिथौरागढ़ में एक खास त्यौहार हिलजात्रा मनाया जाता है। जिसमें एक भूत की पूजा की जाती है। बता दे कि उत्तराखंड के पिथौरागढ़ की शांत वादियों में एक ऐसा भूत रहता है जो अगर गलती से भी नाराज हो जाए तो तबाही मचा दे। हर साल पिथौरागढ़ के लोग इसे खुश करने के लिए एक खास उत्सव मनाते हैं और उस उत्सव में ढोल-दमाऊं की थाप के बीच इस भूत को बुलाया जाता है और उसकी पूजा की जाती है। पर आखिर कौन सा है वो उत्सव जहां ये भूत हर साल आता है। पिथौरागढ़ के लोगों क्यों इसे पूजते हैं ?

क्या है हिलजात्रा महोत्सव ?

हिलजात्रा का मतलब है एक ऐसा खेल जो कीचड़ में खेला जाता है। लेकिन ये बस एक नाटक उत्सव नहीं है बल्कि ये उत्तराखंड के ग्रामीण समाज की जीवनधारा का प्रतीक भी है। जहां कृषि और चरवाहों के जीवन को नाटकीय रूप में दिखाया जाता है। जैसे-जैसे उत्सव आगे बढ़ता है भैंसों की जोड़ी, हलवाहा और क्षेत्रीय देवी-देवताओं के जीवंत चित्रण से ये उत्सव और भी ज्यादा मनमोहक हो जाता है। कहते हैं कि नेपाल के एक राजा ने पिथौरागढ़ के चार महर भाइयों से खुश होकर इस हिलजात्रा को उन्हें भेंट में दिया था। इसके साथ ही उन्हें लकड़ी के मुखौटे और हल भी भेंट किए थे। जिन्हें चारों भाई अपने गांव कुमौड़ लेकर आ गए। यहीं से उत्तराखंड में हिलजात्रा की ये खास परंपरा शुरू हुई। जो आज भी पूरी श्रद्धा और उल्लास के साथ यहां मनाई जाती है। बता दें कि नेपाल में इसे इंद्र जात के नाम से जाना जाता है।

हिलजात्रा के दिन पिथौरागढ़ का समां होता है देखने लायक..

हिलजात्रा के दिन पिथौरागढ़ का समां देखने लायक होता है। सूरज की पहली किरण के साथ स्वांग करने वाले अपने लकड़ी के मुखौटों को सजाने में लग जाते हैं। दोपहर के बाद, गांव के मुखिया, ढोल-नगाड़ों के साथ लाल ध्वजा-पताका लेकर पुराने महर थोकदारों के घर की परिक्रमा करते हैं और फिर कुमौड़ के मैदान में ग्रामीण जीवन का जीवित चित्रण हिलजात्रा उत्सव शुरु होता हैं। सबसे पहले मैदान में आते हैं झाड़ू लगाते स्त्री-पुरुष, फिर हुक्का-चिलम पीते मछुआरे, और फिर आती है शानदार बैलों की जोड़ी, जिनके पीछे हलवाहा अपने खेतों की तरफ बढ़ रहा है। इसके बाद अड़ियल बैल और धान की रोपाई करती महिलाएं, शिकारी, साधु, घास काटती घस्यारी, और रंग-बिरंगे परिधानों में सजे नृत्य करते हुए पुरुष और महिलाएं आती हैं।

जानें कौन है लखिया भूत और क्यों होती है इसकी पूजा ?

अचानक कुमौड़ के मैदान में ढोल-दमाऊं की तेज आवाज गूंजती है और ऐसा लगता है मानो धरती कांप रही हो। लोग जब नजरें इधर उधर दौड़ाते हैं तो उन्हें धूल भरे मैदान में नाचती कूदती लोहे की मोटी जंजीरों से बंधी एक डरावनी आकृति दिखती है और यही लखिया भूत होता है। लेकिन आपको जानकर हैरानी होती है कि इस भूत से कोई डरता नहीं है।बल्कि लखिया भूत के आते ही उसके जयकारे लगने शुरु हो जाते हैं। लोग अक्षत और फूल चढ़ा कर उसकी पूजा करते हैं और अच्छी फसल के साथ ही सुख-समृद्धि की कामना भी करते हैं। बता दे कि लखिया भूत को यहां शिव के गण वीरभद्र के रुप में पूजा जाता है। ये वही वीरभद्र है जिसने कभी दक्ष प्रजापति की गर्दन काटी थी।स्थानीय लोगों का मानना है की लखिया भूत उनकी फसलों की रक्षा करता है और उनके क्षेत्र को सुख समृद्धि से भर देता है। इसलिए लोग हर साल लखिया भूत की पूजा करते हैं और लखिया भूत भी हर साल आकर लोगों को खुशहाली का आशीर्वाद देकर अगले साल फिर से लौटने का वादा करता है।

 

 

 

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