उत्तराखंड

परियोजना की भेंट चढ़ी छोटी काशी..

परियोजना की भेंट चढ़ी छोटी काशी..

परियोजना के नाम भेंट चढ़ी हाट गाँव व उसकी संस्कृति..

 

 

 

उत्तराखंड: हमारी विरासत हमें अपनी जड़ों से जोड़ती है और बताती है कि हम वास्तव में कहाँ हैं, क्योंकि विरासत हमारे अतीत का प्रतिबिम्ब है। कहने को तो हमें अपनी संस्कृति और परम्परा पर बेहद गर्व है और हम दुनिया के सम्मुख दावा भी करते हैं कि विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है, जहाँ हजारो सालों से बहती चली आ रही जीवंत संस्कृति की धारा आज भी उसके निवासियों के जीवन को अनुप्राणित करती है, लेकिन सच तो यह है कि हमें अपनी सांस्कृतिक-ऐतिहासिक धरोहरों की कोई खास फिक्र ही नहीं है। इस चीज में अंग्रेज हमसे कई गुना बेहतर रहे हैं, क्योंकि उन्होंने अपने 200 वर्षों के इतिहास में अर्थात 1757 ई0 से लेकर 1947 ई0 तक जितना सांस्कृतिक-ऐतिहासिक धरोहरों को संजोकर रखा था उतना हम 70-75 वर्षों में ਮੀ नहीं रख पाए।

 

अतः इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि ब्रिटिशों की बदौलत ही हम आज अपनी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहरों को देख पाते हैं, इसी परिप्रेक्ष्य में वर्ष 1059 ई0 में बसे प्राचीन हाट गाँव की संस्कृति, वर्ष 2000 के बाद से धीरे-धीरे अपने अस्तित्व को खोती जा रही है, जिसकी संस्कृति के अस्तित्व को समाप्त करने का श्रेय टी0 एच0 डी0 सी0 द्वारा निमणिाधीन परियोजना को जाता है।

 

हाट गाँव की संस्कृति को परियोजना ने समाप्त ही नहीं किया बल्कि इस गाँव के ब्राह्मणों की उपजाति हटवाल को भी छिन्न-भिन्न किया है, क्योंकि ब्राह्मणों की उपजाति का नाम प्रायः उनके मूल गाँव अथवा थात के आधार पर रखा जाता है। जैसे- हटवाल- हाट गाँव, डिमरी-डिम्मर गाँव, रतूड़ी- रतूड़ा गाँव, नौटियाल- नौटी गाँव, किमोठी- किमौठा गाँव, मैठाणी-मैठाणा गाँव, नैथाणी-नैथाणा गाँव आदि। अब हाट गाँव का अस्तित्व ही नहीं रहा तो हटवाल उपजाति किस गाँव की? अतः आने वाली पीढ़ी यह उक्ति ‘हाट के हटवाल’ कहने से भी वंचित रह जायेगी। हाट गाँव को लक्ष्मीनारायण विग्रह, बिल्लेश्वर महादेव व हाटेश्वर महादेव के मध्य में बसाने का श्रेय आदिगुरु शंकराचार्य को जाता है।

 

 

 

 

तत्पश्चात लक्ष्मीनारायण भगवान की पूजा-अर्चना व बद्रीनाथ धाम में भोग तैयार करने के लिए वर्ष 1059 ई0 में वीरभूमि (गौड़) बंगाल से सुदर्शन व विश्वेश्वर नाम के दो व्यक्तियों को लाया गया था, जिन्हें हाट गाँव में बसने की अनुमति प्रदान की गई थी। जिसके बाद से इन्हें गौड़ शाखा के ब्राह्मण हटवाल कहलाया। समझ में तब नहीं आता है जब हाट जैसे ऐतिहासिक गाँव को आज तक लेखकों की कलम व पाठकों की चाह ने अछूता रखा है, जिस गाँव को आधुनिक युग में एक सांस्कृतिक धरोहर के रूप में संजोकर रखा जाना चाहिए था, वह गाँव आज अपना अस्तित्व ही खो चुका है।

 

ऐतिहासिक हाट गाँव का वर्णन स्कन्दपुराण के केदारखण्ड के अध्याय 58 के अन्तर्गत लिखे श्लोक संख्या 08 से 23 तक में इस क्षेत्र के संपूर्ण इतिहास व भूगोल के बारे में बताया गया है, जिनमें से श्लोक संख्या 22 व 23 में हाट गाँव में स्थित बिल्वेश्वर महादेव व यहाँ उत्पन्न बिल्ववृक्ष का वर्णन किया गया है

 

अलकनंदा के उत्तर तट पर स्थित वृक्षों, लताओं एवं सघन झाड़ियों का आवृत्त है। यहाँ बिल्लेश्वर महादेव निवास करते है। उस स्थान
पर एक विशिष्ट चिह्न है। जहाँ पर बिल्वपत्र के घने वृक्ष है तथा उन पर जो फल लगते है वे बेट के सहा होते है, जो बिल्वेश्वर महादेव को चढ़ाये जाते है। इन फलों को बिल्वेश्वर महादेव में चढ़ाने से धर्म, अर्थ, कर्म व मोक्ष की प्राप्ति होती है। केदारखण्ड के श्लोक संख्या 22 व 23 का वर्णन श्रीमान् शिवानंद नौटियाल द्वारा अनुवादित पुस्तक ‘केदारखण्ड में भी मिलता है।

 

 

 

 

यशवन्त सिंह कठोच ने अपनी पुस्तक “उत्तराखण्ड का नवीन इतिहास” में जिस कश्मीरी हाट नामक स्थल का वर्णन किया है, सम्भवतः वह यही हाट गाँव है। डॉ0 यशवंत सिंह कठोच के अनुसार- गोपेश्वर के उपखण्ड में कमीटी हाट नामक स्थल ऐतिहासिक महत्व का प्रतीक है तथा यह कश्मीरी हाट नागवंशीय राजा गणिपतिनाथ से सम्बन्धित है। उन्होंने लिखा है कि 6वीं शताब्दी के आस-पास नागवंशीय राजा गणपतिनाग हाट कश्मीटी तक आये थे।

 

पौराणिक हाट गाँव ज्योतिषी की शिक्षा के केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध था इसलिए दूरस्थ क्षेत्रों मे ब्राहमण यहाँ ज्योतिषी की शिक्षा प्राप्त करने आते थे। उसी दौरान कुमाऊँ से जोशी जाति के ब्राह्मण यहाँ ज्योतिष का प्रचार-प्रसार करने आये और यहीं बस गये। तत्कालीन समय में ज्योतिष की प्राथमिक शिक्षा हाट गाँव में ही दी जाती थी और इसके बाद उच्च ज्योतिषी की शिक्षा ग्रहण करने के लिए काशी (वाराणसी) जाना होता था। इस प्रकार गढ़वाल में ज्योतिष शिक्षा का एकमात्र केन्द्र हाट गाँव था।

 

तत्कालीन समय में हाट गाँव के ज्योतिषशास्त्र के प्रकाण्ड विद्वानों द्वारा भोजपत्र में पंचाग लिखे जाते थे, जिन पंचागों को संशोधन के लिए काशी (वाराणसी) भेजा जाता था। तत्पश्चात उन पंचागों का पूरे देश भर में वितरण किया जाता था। ज्योतिष शास्त्र के विद्वान होने के कारण ही हाट गाँव से वर्ष 1902 ई0 का एक ब्रिटिश पत्र प्राप्त हुआ, जो हाट गाँव के पंडित भीमदत्त हटवाल के नाम पर भेजा गया था। यह पत्र वर्तमान में अधिवक्ता श्री चन्द्रबल्लभ हटवाल के पास सुरक्षित है।

 

 

 

 

राहुल सांकृत्यायन व यशवंत सिंह कठोच के अनुसार- जब हरिद्वार से बद्रीनाथ धाम की पैदल यात्रा की जाती थी तब हरिद्वार से हाट चट्टी की दूटी 143 मील थी, जबकि लक्ष्मण झूला से इस चट्टी की दूटी लगभग 122 मील के आस-पास थी। तत्कालीन समय में बद्रीनाथ धाम की पैदल यात्रा में हाट चट्टी यात्राकाल का 14वाँ पड़ाव होता था। पैदल तीर्थयात्रा के दौरान बद्रीनाथ धाम के पुजारी (टावल) एक रात्रि विश्राम हाट चट्टी में ही करते थे और दूसरे दिन प्रातःकाल ही यहाँ स्थित श्री लक्ष्मीनारायण भगवान की पूजा कर बद्रीनाथ धाम के कपाट खोलने के लिए प्रस्थान करते थे।

इस प्रकार तत्कालीन समय में सभी पैदल तीर्थयात्री हाट चट्टी में रात्रि विश्राम कर यहाँ स्थित प्राचीन ऐतिहासिक धरोहों का दर्शन कर बद्रीनाथ धाम के लिए गमन करते थे। हाट गाँव का ऐतिहासिक महत्व जितना प्राचीन है उतना ही हाट गाँव का सांस्कृतिक महत्व भी, क्योंकि यह स्थान प्राचीनकाल से शैव, वैष्णव व शाक्य संप्रदायों की त्रिवेणी के रूप में प्रसिद्ध रहा है।

 

जहाँ शैव संप्रदाय के लिए बिल्लेश्वर महादेव प्रसिद्ध हैं तो वहीं वैष्णव संप्रदाय के लिए रामचरण पर्वत व लक्ष्मीनारायण मंदिर जबकि शाक्य संप्रदाय के लिए चण्डिका सौम्य रूप में प्रसिद्ध है। यह गाँव आज भी अपनी विरासत को संजोये हुए लक्ष्मीनारायण मन्दिर, बिल्लेश्वर महादेव व हाटेश्वर महादेव के मध्य में अवस्थित है। हाट गाँव के उत्तर तट पर बिल्ववाटिका तथा दक्षिण तट पर मांगल्यवाटिका स्थित है।

 

 

 

 

कहा जाता है कि इस मांगल्यवाटिका के समीप प्राचीन समय में नौगाँव बण्ड क्षेत्र का दशवाणा गाँव स्थित था, लेकिन आज इतिहास के पन्नों में कहीं भी दशवाणा गाँव का वर्णन नहीं है। ठीक इसी प्रकार यदि आज हाट गाँव को इतिहास के पन्नों में संजोकर नहीं रखा गया तो आने वाली पीढ़ी को भी ये कभी ज्ञात नहीं हो पायेगा कि जहाँ आज टी0 एच0 डी0 सी0 परियोजना है वहाँ कभी हाट गाँव भी रहा होगा। इस प्रकार प्राचीन हाट गाँव व उसकी संस्कृति आज अपना अस्तित्व खो चुकी है।

 

संस्कृति किसी भी समाज की आत्मा है, जिसे मनुष्य के सामाजिक जीवन का प्राण माना जाता हैं। संस्कृति से उन संस्कारों का बोध होता है, जिनके सहारे मनुष्य अपने वैयक्तिक या सामाजिक जीवन के आदर्शों का निर्माण करता है। संस्कृति मनुष्य को संस्कार देती है व जीवन की पूर्णता का बोध कराती है। इसलिए संस्कृति को साध्य व संस्कार को साधन माना जाता है। संस्कृति ही मानव की धारणाओं एवं रहन-सहन का निर्धारण करती है और उसे प्राणिजगत में विशिष्ट बनाती है।

 

 

 

 

 

 

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