जानवर से भी वहशी होंगे मेरे शहर के लोग
जुनैद मरे या विकास, मरता आम हिंदुस्तानी है
गुणानंद जखमोला
सोशल मीडिया। उत्तराखंड के गांवों में अब लोग कम रह गये हैं। पलायन लगातार हो रहा है तो गांव के निकट जंगल बस गये हैं। जंगल में वन्य जीव हैं तो उनकी धमक गांवों में बढ़ रही है। अक्सर पहाड़ के किसी गांव से भालू, गुलदार, बाघ द्वारा किसी ग्रामीण को अपना निवाला बनाने की खबर आती है। हम उसे जानवर को आदमखोर घोषित कर देते हैं और उसका शिकार कर देते हैं। रामनगर के नरभक्षी बाघिन की लाइव रिपोर्ट और उस पर खर्च हुए करोड़ रुपये की याद तो होगी। हां, वो वन्य जीव हैं और शिकार करना उनकी मजबूरी है इसलिए वो जानवर कहलाते हैं। लेकिन हम शहरों में रहने वाले लोग सभ्य होने का ढोंग करते हैं। तू की बजाए आप कहते हैं, लेकिन जब बात मानसिकता की हो तो हम जंगली जानवरों से भी बदतर सलूक करते हैं।
मुझे आश्चर्य होता है कि 100 प्रतिशत पढ़े-लिख भी जानवर बन जाते हैं। मामला चाहे बल्लभगढ़ के 16 साल के जुनैद का हो, या कश्मीर पुलिस के 54 वर्षीय अयूब पंडित का। या फिर जमशेदपुर के विकास और गौतम दो भाइयों का मामला। पीट-पीट कर मार डाला भीड़ ने उन्हें। सवाल धर्म, समुदाय और जाति का उठ जाता है मानवता से उपर। जुनैद प्रकरण में सामाजिक कार्यकर्ता शबनम हाशमी ने अपना पुरस्कार विरोधस्वरूप लौटा दिया, लेकिन क्या यह बेहतर नहीं होता कि शबनम यह पुरस्कार अयूब पंडित की हत्या के विरोध में लौटाती। क्या यह सही नहीं होता कि राष्ट्रपति चुनाव में दलित बनाम दलित का मामला नहीं होता। सब पढ़े लिखे तो हैं लेकिन मानसिकता से तो संकीण और जानवर जैसे ही हैं। कभी धर्म, जाति और समुदाय से उपर उठे ही नहीं।
देश के नामी स्कूलों से पढ़े नेता और गांव के सरकारी स्कूल से पढ़े सब एक बराबर। क्यों स्कूल सर्टिफिकेट और विश्वविद्यालय डिग्रियां और उपाधियां बांटते हैं, जब हम मानव ही नहीं बन सकते। एक अच्छा और संस्कारवान नागरिक कौन सा स्कूल और विवि बना रहा है? नेता, अफसर और माफिया और ठेकेदार के सिवाए इस देश में कौन खुश नजर आता है? हमें जाति, धर्म और क्षेत्र में बांटकर हिंसक जानवर बना दिया गया है। कपड़े कैसे भी पहन लें, कार कोई सी भी खरीद लें, पखाने में इटालियन टायलेट सीट पर बैठ अंग्रेजी नावेल पढ़ लें लेकिन मानसिकता तो वही है जानवरों जैसी। हम अपने नौनिहालों को क्या परोस रहे हैं, इसका अंदाजा मेरी दस साल की बेटी के मासूम से सवाल से है जो अखबार में देख पूछ बैठी, कि पापा दलित क्या होता है? मैं उसे क्या जवाब देता। हमारे देश के कर्णधार नौनिहालों के आगे क्या आदर्श परोस रहे हैं। बताओ, देश में मौजूदा दौर में पूर्व राष्ट्रपति कलाम के सिवाए कोई आदर्श नेता है क्या? जिसे हम गर्व से बता सकें कि वह संकीर्ण विचारधारा का नही है। मेरे और आपके बच्चों के सामने आदर्श क्या है।
भले ही हम अपने वैज्ञानिकों के दम पर चांद पर घर बसाने की सोच रहे हैं, लेकिन क्या वहां भी जमीन इस आधार पर बेचोगे कि कौन जाति के हो, किस धर्म के हो या किस क्षेत्र के हो। इससे तो अपना गांव भला। थोड़ा सा ही तो भेदभाव होता है, लेकिन इस तरह हिंसा नहीं होती कि भीड़ किसी की पीट-पीट कर जान ले ले। ऐसा सभ्य नहीं कहलाना है मुझे
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)