गांव में बैठकर गांव की चिंता करना तो आसान है, लेकिन यह चिंता अगर ‘राजमहलों’ में बैठकर भी की गयी होती तो आज उत्तराखंड यूं बदहाली का रोना न रो रहा होता। जनता के हाथों सियासी सजा भोग रहे पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत आज अपने गांव में मकान की छत पर बैठकर गांव में पसरे ‘सन्नाटे’ को लेकर चिंतित हैं। हाल ही में उन्होंने अपनी यह चिंता शब्दों में ढालकर साझा की है, जिसे उनके समर्थक इन दिनों सोशल मीडिया पर जमकर प्रचारित कर रहे हैं। बकौल हरदा उन्हें गांवों का सन्नाटा खल रहा है, वह अब सोच रहे हैं कि कैसे वह अपने परिवार व गांव के भाई बन्धुओं को गांव से जोड़ें । आज उन्हें अपने गांव के लालदा दर्जी की याद आ रही है, वह लालदा जिसने उन्हें कभी गांव की मिट्टी के ‘सत्व’ को पहचानने सबक दिया। जो गांव से बाहर निकलकर संपन्न होने के बावजूद हर फसल के मौके पर अनाज लेने गांव पहुंचता , जिसने हरदा को कभी सबक दिया कि “पधानज्यू मैं और मेरा परिवार इसी अन्न के सत्व से यहां तक पहुंचे हैं, जिस दिन मैं और मेरा परिवार इसे छोड देंगे तो मिट्टी में मिल जाएंगे” ।
देखिये, कितना गहरा सबक था लालदा की इस बात में लेकिन दुर्भाग्य यह है कि हरदा को यह सबक आज अपने गांव की छत पर बैठकर तब याद आ रहा है जब वह कुछ करने की स्थिति में नहीं हैं। काश, उन्हें यह सबक कभी मुख्यमंत्री रहते हुए देहरादून के बीजापुर स्थित अपने आवास और केंद्रीय मंत्री रहते हुए दिल्ली के लुटियन जोन स्थित सरकारी आवास में बैठकर भी याद आया होता। आज भले ही वह सोच रहे हैं कि इतनी ऊंचाई पर पर पहुंचकर वह गांवों के लिये क्या कर पाए ? सच यह है कि हरदा लालादा की तरह गांव के ‘सत्व’ को याद नहीं रख पाए। सत्ता में रहते हुए गांव के सत्व को याद रख पाए होते तो वह हरिद्वार और रुद्रपुर में अपने लिये सियासी जमीन न तलाश रहे होते । दुर्भाग्य यह है कि सत्ता में रहते हुए जब उन्हें लालदा का सबक याद रखना था तब आपको जिंदल, हवेलिया, जैन, चौधरी, कुरैशी, अंसारी, त्यागी आदि से ही फुर्सत नहीं थी। हरदा गांव की जो व्यथा कथा आपने बयां की है वह अक्षरश: सत्य है। यह सिर्फ आपके गांव की नहीं बल्कि आज उत्तराखंड के हर गांव की कहानी है। लेकिन इसकी चिंता का आपको अब कोई हक नहीं । यदि आप तटस्थ भाव से सोचेंगे, आंकलन करेंगे तो कहीं न कहीं खुद को इन गांवों और गांव के सत्व का अपराधी पाएंगे।
हां आप ‘अपराधी’ ही तो हैं, जिस सत्व ने आपको ऊंचाईयों की बुलंदी तक पहुंचाया। आपने न सिर्फ उसे नकारा ही बल्कि उसके साथ छल किया है, उस पर अविश्वास किया। याद करिये मुख्यमंत्री बनने के बाद जब उपचुनाव की बारी आयी तो डोईवाला का विकल्प होने के बावजूद आप अपनी ही पार्टी के विधायक से इस्तीफा दिलाकर चुनाव लडने धारचूला पहुंचे । लेकिन ढाई साल सत्ता में रहने के बाद आप खुद अपना घर गांव भूल गए। सत्ता से बाहर हुए तो आज फिर आप म्यार गौं को लेकर संजीदा हो गए हैं, आपसे ही सवाल है कि गांव सिर्फ मुसीबत के वक्त या फिर जीवन में हारकर ही क्यों याद आता है ? यूं तो हर बडे राजनेता का हाल यही है, लेकिन आप जैसे जमीनी नेता से किसी को यह उम्मीद नहीं थी। सियासत में गिरने, उठने और संभलने का जितना तजुर्बा आपके पास है शायद ही किसी के पास रहा हो।
आपको तो संघर्षों के प्रतिफल में यह सौभाग्य हासिल हुआ कि आप उत्तराखंड के लिये कुछ कर पाते । हरदा या तो आपको अपनी ताकत का अंदाजा नहीं था या फिर आप गलतफहमी का शिकार थे, अफसोस आप खुद को साबित करने में नाकाम रहे । ऐसा नहीं है कि आप कर नहीं सकते थे या आपने कोशिश नहीं की । आप करना चाहते भी थे और कर भी सकते थे लेकिन आपने गांव के ‘सत्व’ पर भरोसा ही नहीं किया । सत्ता के मोह और लालच ने आपको पथभ्रष्ट बनाये रखा, आप धृतराष्ट्र बने रहे। आप अगर यह दावा कर रहे हैं कि आपने सैकड़ों पहल की लेकिन आपको समय नहीं मिला, तो बताइये आपकी कौन सी ऐसी सदपहल है जो आज दमतोड़ रही हो । सदमंशा से जो भी योजना शुरू की इस सरकार में भी वह चल ही रही है। चाहे वह हरेला की परंपरा हो, गैरसैण में विधानसभा सत्र हो या फिर इंदिरा अम्मा भोजनालय, आपकी सरकार नहीं है इसके बावजूद फिलहाल इन पर कोई आंच नहीं है। सच यह है कि आप बहुत कुछ कर सकते थे, आपसे उम्मीदें भी थी और आपके ऊपर ऐसा कोई दबाव भी नहीं था जो आपके ‘म्यार गौं” के एजेंडे के आड़े आता । लेकिन आप उस अहम वक्त में भी सिर्फ सियासत का खेल खेलते रहे।
आप तो राजनीति का वह पाठ भी भूल गए जिसमें कहा जाता है कि एक कुशल राजनेता को सत्ता में आने के बाद दुश्मनों की संख्या कम करनी चाहिए और दोस्तों की संख्या बढ़ानी चाहिये। दुर्भाग्य यह है कि जब आपको यह सब सोचना चाहिए था, तब आपके पास वक्त नहीं था। तब
आपके बगलगीर गांवों के सुकुन का सौदा दिल्ली, नोयडा, मुंबई, मुरादाबाद, बरेली में कर रहे थे। इसमें कोई दोराय नहीं कि हरदा के पास राज्य को लेकर व्यापक समझ और सोच है। लेकिन क्या फायदा उस समझ का जो सिर्फ हाथी दांत की तरह दिखाने के अलग और खाने के अलग हों । हरदा आपके राज में कितनी अंधेर रही भ्रष्टाचारियों और दुराचारियों को खुला संरक्षण रहा यह आपसे क्या किसी से छिपा नहीं है। तमाम गलत परंपराओं के बीज भी आपके राज में पडे, और आप आश्चर्यजनक रूप से खामोश रहे।
इसे सत्ता का अभिशाप कहें या फिर उत्तराखंड की नियति जो भी सत्ता में आया वह ‘मतिभ्रम’ का शिकार हुआ। हरदा आप चाहते तो मजबूती के साथ फैसले ले सकते थे, मसलन राज्य में कृषि को बचाने के लिये कडा भू कानून लाते । राज्य की स्थायी राजधानी गैरसैण बनाते । भ्रष्टाचार पर नकेल को मजबूत लोकायुक्त और सरकारी कर्मचारियों के लिये पारदर्शी सेवा नियमावली तैयार करते। कौन इसका विरोध करता, कोई नहीं.. लेकिन इन फैसलों को हरदा आप सियासी नफा नुकसान पर तोलते रहे। जो फैसले लिये वो जनिहत या राज्य हित को लेकर नहीं बल्कि वोट बैंक के समीकरण और गणित के फेर में लिए । राज्य हित में तो जब जब फैसला लेने की बारी आयी हमेशा आपके कदम ठिठक गए। सच यह है कि राजनेताओं में सबसे अधिक निराश भी हरदा आप ही ने किया, और तो और पहाड़ के लिये तो आप आखिरी में ‘दगाबाज’ भी साबित हुए। अब आप कुछ भी कहें उसके कोई मायने नहीं.. कोई मायने नहीं.. । जो सियासी सजा आपको मिली है वो यूं ही नहीं मिली.. काश कि और राजनेता आपसे सबक ले पाएं ।
