नवल ख़ाली
सोशल मीडिया- भरतु की ब्वारी (बीबी) आजकल अपने गांव के नजदीकी कस्बे में एक टू रूम सेट ढूंढ रही है। एक महिला ने पूछा भुल्ली (बहिन) तुम्हारा गाँव तो नजदीक ही है, फिर यहाँ पर कमरा ढूंढ रही हो ? भरतु की ब्वारी कहने लगी-दीदी बच्चों ल की एजुकेशन भी कितनी जरूरी है आपको तो पता ही है।महिला ने पूछा-कितने बच्चे हैं भुल्ली तुम्हारे ? भरतु की बीबी बोली -अभी तो नही हैं पर आजकल अभी से इंतज़ाम करना पड़ता है दीदी। भरतु जम्मू में आये दिन आंतकवादी सर्च ऑपरेशन में जूझ रहा था और ब्वारी आने वाले भविष्य के लिए नजदीकी कस्बे में कमरा सर्च कर रही थी। क्योंकि जिस दिन मायके से विदा हुई, उसी दिन माँ ने उसके कान में फुसफुसाते हुए ये गुरु मंत्र दे दिया था कि गांव में अब कुछ नही रखा है, यदि बच्चो का भविष्य चाहती है तो नजदीकी कस्बे में फिलहाल सेटल हो जाना और बाद में देहरादून। आखिरकार कमरा मिल गया।
सास ससुर के लिए भी आज ये गौरव का विषय था कि उनका भी नजदीकी शहर में टू रूम सेट है। क्योंकि अगल बगल के सभी लोगों की ब्वॉरिया भी नजदीकी शहर में सेटल हो चुकी थी। गांव में भरतु का पड़ोसी राजु जोकि दिल्ली में प्राइवेट नौकरी में दस बारह हजार कमाता था, अब उसकी बीबी ने भी घुसस्याट (जिद) गाड (निकाल) दी थी कि नजदीकी कस्बे में रूम लेना है। सबके बच्चे अंग्रेजी में च्वां च्वां हो रखे हैं और हमारे बच्चे अभी भी ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार में ही अटके हैं ।राजू बेचारे को भी मजबूरी में रूम सेटल करना पड़ा। अब दोनों की बीबियाँ एक साथ बैठकर स्टार टीवी के सीरियल देख रही हैं। कभी स्वेटर के फंदे घटा रही हैं, कभी बढा रही हैं। सुबह उठकर पराग दूध की थैली लाकर बच्चो को हेल्दी बना रही हैं। गाँव न जाने के लिए बच्चो का एक्स्ट्रा होमवर्क बताकर बहाना बना रही हैं। इधर भरतु और राजू अपनी ड्यूटी बजा रहे हैं और हर महीने कम खा कर पैसे बचाकर गाँव छोड़ चुके बच्चो के लिए देहरादून में आसान किस्तों में घर बनाने का सपना सजा रहे हैं। जबकि गाँव मे फोर फर्स्ट क्लास गुरुजी प्रदीप जी तोड़ मेहनत कर नेपाली ओर बिहारियों के ग्यारह बच्चो को पढा रहे हैं, पर गांव वाले सरकारी स्कूलों पर विश्वास नही जता रहे हैं ।इस प्रकार पलायन की दिशा में गांव से मूवमेंट नजदीकी कस्बो में बढ़ रहा है और धीरे धीरे एजुकेशन के बहाने ,गाँव से परिवारों के जत्थे देहरादून की जगमगाती रोशनी की तरफ बढ़ रहे हैं। अब देखना यह है कि देहरादून क्या इतना वृहद है जो पूरा पहाड़ उसमे समा जाय? या एक बड़ी जनसँख्या का एक ही जगह एकत्रित होना किसी खतरे का संकेत है ?
(लेखक व्यंग्यकार हैं।)