आर्टिकल

पहाड़ की भांग से भांग का पहाड़ !

इन्द्रेश मैखुरी
पलायन को भांग का दफ्तर नहीं मिला………भांग को दफ्तर में पलायन नहीं मिला……..भांग की नीति के दफ्तर में पलायन नहीं मिला…..च्च.च्च.च्च. माफ़ कीजिये, पिछले दो दिन में आई खबरें आपस में गड्डमड्ड हो गयी ! दरअसल परसों बागेश्वर में मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत साहब ने अपने श्रीमुख से एक बड़ी घोषणा की कि भांग की खेती के लिए नीति बनायी जायेगी.आज अखबार में खबर छपी कि पौड़ी में पलायन आयोग को दफ्तर खोजे नहीं मिल रहा है.भांग और पलायन का आपसी सम्बन्ध देखते हुए,पहली पंक्ति लहर मार गयी और नतीजा आपके सामने है.

पहले आशंका हुई कि दफ्तर नहीं मिला तो ऐसा न हो कि पलायन आयोग ही पलायन करके-सब्बी धाणी देरादूण-का जाप करने लगे.पर फिर ख्याल आया कि सरकार ने पुनः भांग पर कंसन्ट्रेट कर दिया है तो पलायन की समस्या का भी वाष्पन हो जायेगा ! ये भांग का फायर तो ऐसे रामबाण औषधि है कि पहाड़ की समस्याओं को फायर कर देगी.फायर तो दरअसल इसे हरीश रावत जी करना चाहते थे,लेकिन तब तक चुनाव में जनता ने उन्हें ही हायर एंड फायर कर दिया.सो भांग का फायर,अपने इंजन की गति खुद ही बीस किलोमीटर प्रति घंटा बताने वाले,डबल इंजन स्वामी त्रिवेंद्र रावत बुलेट ट्रेन गति से करने जा रहे हैं.

रोजगार की नीति नहीं,शिक्षा की नीति नहीं है,स्वास्थ्य की नीति नहीं है,प्राईमरी से लेकर डिग्री तक मास्टर नहीं हैं,प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से लेकर मेडिकल कॉलेज तक डाक्टर नहीं हैं-कोई बात नहीं.ये सब बर्दाश्त किया जा सकता है.लेकिन जैसे हर साल शराब की नीति अति आवश्यक है,उसके बिना शराबी,माफिया और सत्ता,जल बिन मछली की तरह तड़पने लगते हैं ! उसी तरह भांग की नीति भी अत्यंत आवश्यक है.
भांग उगेगी तो क्या दृश्य होगा,ज़रा सोचिये. आदमी खेत में भांग उगने का इन्तजार करेगा.चहुँ ओर भांग ही भांग.खेत लहलहा उठेंगे हरियाली से.बेशक वह हरियाली भांग की होगी पर हरियाली तो होगी.अभी एक-आध दिन पहले तो मुख्यमंत्री जी ने कहा कि विकास और पर्यावरण में दोस्ती होना जरुरी है.भांग,पर्यावरण भी है और विकास भी.क्या तेज गति से दौड़ाया मुख्यमंत्री जी अपना डबल इंजन.इतनी तेज गति से अपनी बात को साकार करने वाला मुख्यमंत्री देखा कोई दूसरा?भांग की नीति की बात पहले कही और उसके तुरंत बाद पर्यावरण और विकास की दोस्ती का जुमला छोड़ दिया.वाह,क्या कमाल है !

बंजर खेतों में लंगूर,बंदर,सूअर उधम काट रहे हैं.कहते हैं,ये जंगली जानवर भांग नहीं खाते.तो खेती की हरियाली कायम रहेगी.और खा भी लेंगे तो क्या?कौन सा हमारी मेहनत की फसल है कि उनके खाने से हम दुखी होंगे?सोचिये जरा,क्या नजारा होगा,हर खेत में भांग उगी है. लंगूर,बंदर,सूअर,बाघ,भालू भांग खा कर लड़खड़ाते हुए,खेत में लोट रहे हैं ! बगल में खेत का मालिक भी भांग में मदमस्त पड़ा है.कभी-कभार भांग की पिनक में बाघ-भालू,खेत मालिक का मूंह चाट रहे हैं,कभी भांग खाया खेत मालिक बाघ-भालू की गलबहियां कर रहा है.

जंगली जानवर भी बचे,खेत भी हरियाले हुए और आदमी भी मदमस्त.एक तीर से कितने शिकार हुए,वाह क्या बात है.
पलायन का संकट भी इससे चुटकियों में छू-मंतर हो जाएगा.पलायन रोकने का इससे मारक कोई इलाज हो ही नहीं सकता.भांग के बाड़े में पड़ा हुआ अलमस्त आदमी,अपने बिस्तर तक ही बमुश्किल जा पायेगा तो पहाड़ छोड़ कर कैसे जाएगा ! चारों ओर भांग ही भांग उगी हो तो आदमी खुद को उस भंग्ल्या सल्तनत का राजा महसूस करेगा ही. कौन कमबख्त अपनी सल्तनत छोड़ कर जाना चाहेगा,चाहे सल्तनत भांग की ही क्यूँ न हो ! पहाड़ की भांग से भांग का पहाड़ खड़ा करने की सरकार की इस कोशिश की बलिहारी है ! मेरा तो सुझाव है कि भांग की नीति बनाने से लेकर खरीद-बिक्री-विपणन का सारा कारोबार पलायन आयोग को सौंप देना चाहिए.इससे पलायन रोकने में आयोग की प्रभावशीलता भी स्थापित हो जायेगी और भांग के कारोबार के लिए बैठे-बिठाए नोडल एजेंसी भी मिल जाएगी.

दारु के बाद भांग भी वो शै है,जिसके लिए पहाड़ी गंगलोड़े की उपाधि से स्वविभूषित “हाथ” वाले ‘फस्क्या’ दाजू और गनेल(घोंघा) रफ़्तार से इंजन चला रहे डबल इंजन के ड्राईवर भैजी में, अद्भुत मतैक्य है !पहाड़ में घर-घर शराब भी पहुंचानी ठैरी और खेत-खेत भंगला भी लहलहाना है बल !
पहाड़ में जब किसी को गाली देनी होती थी,आदमी कहता था कि जा तेरे खेत में भांग जम जाए.भांग जमना गाली थी,हमारे यहाँ.पिछले सत्रह साल में उत्तराखंड की राजनीति के खेती में हमने भाजपा-कांग्रेस को ही बोया,इन्हें ही उगाया.अब ये हमारे खेतों में भांग बोने पर उतर आये हैं.यह वरदान है या गाली,यही विचारणीय है.

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