उत्तराखंड

उत्तराखंड में वन्दे मातरम कहना होगा, ठीक है पर महाविद्यालयों में पठन-पाठन भी होना होगा, उसका क्या?

इन्द्रेश मैखुरी 
चमोली जिले के घाट में स्थित राजकीय महाविद्यालय में प्राध्यापकों की मांग को लेकर एक छात्र ने आत्मदाह का प्रयास किया. किसी शिक्षण संस्थान में यदि शिक्षक ही नहीं तो वह शिक्षण संस्थान काहे बात का है? यदि छात्रों को शिक्षकों की मांग के लिए आत्मदाह जैसा आत्मघाती कदम उठाना पड़ रहा है तो यह बेहद दुखद स्थिति है. उत्तराखंड के तमाम सरकारी महाविद्यालय, उच्च शिक्षा राज्य मंत्री के तमाम बडबोलेपन के बावजूद इसी तरह शिक्षक हीनता और अन्य सुविधाओं से महरूम हैं.

उच्च शिक्षा : थोथी घोषणाएं, खोखले बयान

“विश्वविद्यालय वह जगह होती है जहाँ नए विचार अंकुरित होते हैं, जड़ पकड़ते हैं और बढ़ते हैं. यह एक विशिष्ट स्थान है जो पूरे ब्रह्माण्ड के ज्ञान को समेटे रहता है…..” 2009 में गठित यशपाल कमेटी की रिपोर्ट में विश्वविद्यालय की यह बेहद काव्यात्मक परिभाषा दी गयी है. इस परिभाषा के आईने में देखें तो विश्वविद्यालय को नये विचारों के जनक और सम्पूर्ण विश्व के ज्ञान को समेटने वाला होना चाहिए. इस परिभाषा के हिसाब से तो विश्वविद्यालय एक बेहद विशिष्ट स्थल है. जाहिरा तौर पर विचारों का जनक और सम्पूर्ण ज्ञान को अपने भीतर समाहित करने लायक होने के लायक उच्च शिक्षा संस्थानों को बनाने के लिए ठोस नीतियों की आवश्यकता होगी. इस परिभाषा के आलोक में उत्तराखंड के उच्च शिक्षा संस्थानों की स्थिति का मूल्यांकन किया जाए कि क्या हमारे उच्च शिक्षा संस्थान, नए विचारों को अंकुरित करने और पूरे ब्रहमांड के ज्ञान को अपने में समेट सकने वाले हैं?

उत्तराखंड में 9 राज्य विश्वविद्यालय हैं और लगभग इतने ही निजी विश्वविद्यालय हैं. तीन डीम्ड विश्वविद्यालय हैं और एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है. राज्य में राजकीय महाविद्यालय (जिनमे परास्नातक तक की पढाई होती है) की संख्या लगभग 100 के करीब है. उत्तराखंड राज्य की स्थापना के वक्त इन महाविद्यालयों की संख्या 34 थी. उच्च शिक्षा के संस्थानों की यह संख्या बेहद प्रभावशाली है. यदि कोई सुसंगत नीति हो तो उच्च शिक्षण संस्थानों की इतनी बड़ी संख्या, उत्तराखंड को देश के उच्च शिक्षा के नक़्शे में एक विशिष्ट स्थान दिलवाने के लिए पर्याप्त है. लेकिन किसी सुसंगत नीति के अभाव में उच्च शिक्षण संस्थाएं, अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष करती ही प्रतीत होती हैं.

किसी भी महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में छात्र-छात्राओं के सर्वांगीण विकास के लिए यह आवश्यक है कि इन शिक्षण संस्थानों में पर्याप्त शिक्षक हों, पुस्तकालय, प्रयोगशालाएं हों. ये आधारभूत सुविधाएँ उच्च शिक्षण संस्थाओं को बेहतर बनाने की प्राथमिक शर्त हैं. लेकिन उत्तराखंड में सरकारों के तमाम बडबोले दावों के बीच इन आधारभूत सुविधाओं के मामले में उच्च शिक्षण संसथान पूरी तरह उपेक्षित नजर आते हैं. जिन राजकीय महाविद्यालयों की संख्या उत्तराखंड राज्य के गठन के समय 34 थी, उनकी संख्या बढ़कर भले 100 हो गयी हो, लेकिन बाकी मामलों में ये उपेक्षित ही नजर आते हैं. इन 100 महाविद्यालयों में से लगभग आधों के पास अपना स्थायी भवन तक नहीं है. राज्य बनने के बाद जितनी गति से महाविद्यालयों के संख्या बढ़ी, उस गति से उनके लिए भवनों का इंतजाम न हो सका.वबिना भवनों के कामचलाऊ व्यवस्थाओं में कैसी उच्च शिक्षा चल रही होगी, यह समझा जा सकता है.

राज्य के उच्च शिक्षा निदेशालय के आंकड़े, राज्य की उच्च शिक्षा के हाल की खुद गवाही देते हैं. राज्य में स्नातकोत्तर महाविद्यालयों के 28 प्राचार्य के पदों में से 13 पद रिक्त हैं. इसी तरह स्नातक महाविद्यालयों के 71 पदों में से 30 पद रिक्त हैं. प्रवक्ताओं के 2071 पदों में से 981 पद रिक्त हैं. पुस्तकालयाध्यक्ष के तो स्वीकृत 25 में से 25 पद रिक्त हैं. सहायक पुस्तकालयाध्यक्ष के 70 में से 68 पद रिक्त हैं. प्रयोगशाला सहायकों के 395 में से 252 पदों पर कोई स्थायी नियुक्ति नहीं है. इस तरह देखें तो उत्तराखंड के सरकारी महाविद्यालयों में न तो प्रशासनिक व्यवस्था चलाने वाले स्थायी प्राचार्यों, पढ़ाने वाले शिक्षकों, पुस्तकालय अध्यक्षों से लेकर प्रयोगशाला सहायकों तक सभी का भारी टोटा है.

यह रिक्तता उत्तराखंड के अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आने से लेकर अभी तक कायम है. उत्तराखंड राज्य बनने के बाद राज्य सरकार ने गोपेश्वर में एक राजकीय विधि महाविद्यालय स्थापित किया. इस महाविद्यालय के में भी स्थायी प्राचार्य नहीं है और संविदा शिक्षकों से ही सारी कानूनी पढाई होती है. और तो और विधि महाविद्यालय चलाने के लिए बार काउंसिल ऑफ इंडिया की जो मान्यता आवश्यक होती है, वह भी राज्य के एकमात्र राजकीय विधि महाविद्यालय के पास नहीं है. कैसी विडम्बना है कि कानून पढ़ाने का महाविद्यालय बिना कानून सम्मत मान्यता के ही चल रहा है. यदि राज्य बनाने के 16 सालों के बाद भी उत्तराखंड के सरकारी महाविद्यालयों की यह दशा है तो उच्च शिक्षा के प्रति राज्य में बनाने वाली सरकारें कितनी गंभीर रही हैं,यह स्वतः ही समझा जा सकता है!

दरअसल उच्च शिक्षा की बेहतरी के लिए ठोस नीतिगत उपायों की आवश्यकता है. लेकिन सिर्फ थोथी घोषणाओं और बडबोले बयानों के अतिरिक्त कोई और कार्यवाही नजर नहीं आती. एक बानगी देखिये. राजकीय महाविद्यालयों में शिक्षकों की कमी पूरी करने के लिए उच्च शिक्षा चयन आयोग की बात वर्षों से हो रही है. पिछली सरकार से वर्तमान सरकार तक इस आयोग के गठन का दावा करते रहे हैं. लेकिन अभी दूर-दूर तक इस उच्च शिक्षा चयन आयोग का नामोनिशान नजर नहीं आ रहा है. जब सालों-साल अंशकालिक प्रवक्ताओं के कन्धों पर महाविद्यालयों के पठन-पाठन का जिम्मा रहेगा तो जाहिर सी बात है कि वे नियमितीकरण का दावा भी करेंगे ही. बरसों-बरस जब ये अंशकालिक प्रवक्ता, अस्थायी तौर पर पढ़ाते हैं तो अपने भविष्य को लेकर भी आशंकित रहते हैं. जो खुद अपने भविष्य को लेकर आशंकित हों, उनके कन्धों पर भावी पीढ़ी का भविष्य संवारने का जिम्मा, खुद में बड़ी विडम्बना है. जब सरकार अस्थायी शिक्षकों के स्थायीकरण का रास्ता अपनाती है तो एक तरह से वह ऐसे कई अधिक प्रतिभावान लोगों से उच्च शिक्षा में अध्यापन करने का मौका छीन रही होती है, जो अस्थायी व्यवस्था में शामिल नहीं होते हैं.

उत्तराखंड में मार्च 2017 में भाजपा सरकार के सत्ता में आते ही डा.धन सिंह रावत उच्च शिक्षा राज्य मंत्री बनाए गए. मंत्री पद पर आते ही जिस तरह से से मीडिया में सक्रियता उन्होंने दिखाई, उससे लगा कि उच्च शिक्षा की बेहतरी के लिए वे जरुर कुछ प्रभावी उपाय करेंगे. पर उच्च शिक्षा के संदर्भ में उन्होंने दो ही चर्चित बातें कही. एक बयान उन्होंने दिया कि उत्तराखंड में रहना होगा, वंदेमातरम् कहना होगा. इस नारे से साफ़ हो गया कि मंत्री जी, अभी मानसिक रूप से ए.बी.वी.पी.में ही हैं, छात्र संगठन से आगे नहीं बढे हैं. उत्तराखंड में वन्दे मातरम कहना होगा, ठीक है पर महाविद्यालयों में पठन-पाठन भी होना होगा, उसका क्या? दूसरी बात धन सिंह रावत ने कही कि महाविद्यालयों सबको यूनिफार्म पहन कर आना होगा. सवाल यह है कि छात्र-छात्राएं यूनिफार्म पहन कर आ जाएँ तो क्या शिक्षकों, भवनों, प्रयोगशलाओं, पुस्तकालयों की कमी दूर हो जायेगी? यह कमी दूर करने की इच्छा शक्ति हुक्मरानों के पास नहीं दिखती. इसलिए कोरी जुमलेबाजी से ही वे काम चलाना चाहते हैं.

उत्तराखंड में उच्च शिक्षा की यही नीति है कि उसकी कोई नीति नहीं है. सरकार में आने-जाने वालों की जुमलेबाजी ही नीति, निर्देश और दृष्टि है. इस नीतिगत अराजकता का लाभ यह होता है कि सब सही-गलत कामों को उस नीति हीनता की आड़ में ढका जा सकता है. सत्ताधीशों का काम तो इस नीतिहीनता से चल जाएगा. लेकिन भावी पीढ़ी को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी.

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