भूत-प्रेतों संघ निकली भगवान शंकर की बारात , केदारनाथ में आयोजित महाशिवपुराण के चैथे दिन निकली शिव की बारात , श्रद्धालुओं ने जमकर किया नृत्य, भोले के भजनों से गूंजा धाम
रुद्रप्रयाग। बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति की ओर से आयोजित केदारनाथ धाम में आयोजित 11 दिवसीय महाशिव पुराण कथा के चैथे दिन ज्योतिर्पीठ से अलंकृत ब्यास दीपक नौटियाल ने शिव पार्वती विवाह कथा का सुन्दर वर्णन किया, जिसे सुनकर श्रद्धालुओं के आंखों में अश्रु धारा बहने लगी। जब उन्होंने मांगल गीतों को सुना तो सती के वियोग में शंकर की दयनीय दशा हो गई। शिव हर पल सती का ही ध्यान करते रहते और उन्हीं की चर्चा में व्यस्त रहते। उधर, सती ने भी शरीर का त्याग करते समय संकल्प किया कि मैं राजा हिमालय के यहां जन्म लेकर शंकर की अद्र्धाग्नि बनूंगी।
सती ने राजा हिमालय कि पत्नी मेनका के गर्भ में प्रविष्ट होकर उनकी कोख से जन्म लिया। पर्वतराज की पुत्री होने के कारण मां जगदम्बा इस जन्म में पार्वती कहलाई। जब पार्वती बड़ी होकर सयानी हुईं तो उनके माता-पिता को योग्य वर तलाश करने की चिंता सताने लगी। एक दिन अचानक देवर्षि नारद राजा हिमालय के महल में आ पहुंचे और पार्वती को देख कहने लगे कि इसका विवाह भगवान शंकर के साथ होना चाहिए और वे ही सभी दृष्टि से इसके योग्य हैं। पार्वती के माता-पिता को नारद ने जब यह बताया कि पार्वती साक्षात जगदम्बा के रुप में इस जन्म में आपके यहा प्रकट हुई हैं तो उनका आनंद ठिकाना न रहा। एक दिन अचानक भगवान शंकर सती के वियोग में घूमते-घूमते हिमालय में जा पहुंचे और पास ही की गंगावतरण में तपस्या करने लगे। जब हिमालय को इसकी जानकारी मिली तो वे पार्वती को लेकर शिव के पास गए। राजा ने शिव से विनम्रतापूर्वक अपनी पुत्री पार्वती को सेवा में ग्रहण करने की प्रार्थना की। शिव ने पहले तो आना-कानी की, लेकिन पार्वती की भक्ति देखकर वे उनका आग्रह नहीं टाल पाये।
शिव से अनुमति मिलने के बाद तो पार्वती प्रतिदिन अपनी सखियों को साथ लेकर शिव की सेवा करने लगी। पार्वती इस बात का सदा ध्यान रखती थी कि शिव को किसी भी प्रकार का कष्ट न हो। शिव हमेशा अपनी समाधि में ही निश्चल रहते। पार्वती ने भी शिव को पाने के लिए तप शुरू किया और पार्वती अपने तप को पूर्ण होते देख घर लौट आई और अपने माता-पिता से सारा वृत्तांत कह सुनाया। अपनी दुलारी पुत्री की कठोर तपस्या को फलीभूत होता देखकर माता-पिता के आनंद का ठिकाना नहीं रहा। उधर, भगवान शंकर ने सप्त ऋर्षियों को विवाह का प्रस्ताव लेकर हिमालय के पास भेजा और इस प्रकार विवाह की शुभ तिथि निश्चित हो गई। भगवान शिव की बारात में नंदी, क्षेत्रपाल, भैरव, गणराज कोटि-कोटि गणों के साथ निकल पड़े। ये सभी तीन नेत्रों वाले थे। सबके मस्तक पर चंद्रमा और गले में नीले चिन्ह थे। सभी ने रुद्राक्ष के आभूषण पहन रखे थे। सभी के शरीर पर उत्तम भस्म लगी हुई थी। इन गणों के साथ शंकर के भूतों, प्रेतों, पिशाचों की सेना भी आकर सम्मिलित हो गई। चंडी देवी बड़ी प्रसन्नता के साथ उत्सव मनाती हुई भगवान रुद्र देव की बहन बनकर वहां आ पहुंचीं।
धीरे-धीरे सारे देवता एकत्र हो गए। देवमंडली के बीच में भगवान विष्णु गरुड़ पर विराजमान थे। पितामह ब्रह्मा उनके पास में मूर्तिमान्वेदों, शास्त्रों, पुराणों, आगमों, सनकाद महासिद्धों, प्रजापतियों, पुत्रों तथा कई परिजनों के साथ उपस्थित हुए। शिव बारात में शामिल होने को लेकर हरकोई उत्सुक रहा। इस अवसर पर आचार्य आनन्द प्रकाश नौटियाल, अरविंद शुक्ला, राजकुमार नौटियाल, रोहित पंत, प्रदीप सेमवाल,वेद पाठी रविन्द्र भट्ट, गंगाधर लिंग, विनोद शुक्ला सहित सैकड़ों की संख्या में भक्त मौजूद थे।