उपासना सेमवाल
सोशल। सुनो टक्क लगा के, मैं तुम्हारी रोज के कुकड्याट से तंग आ गई हूं। घर में जो चावल थे, खत्म हो गये। आटा नही है, बच्चे बडे हो गये है। स्कूल मे हेडमास्टर ने बुला रखा है। कई महीनो से फीस जमा नही की है। कई बरस बीत गये मैत नही गई। मैं कैसे जाऊँ। एक फूटी कोडी नही है। दिन भर लबोल्या भुर्त्या करके अपना कपाल तचा तचा कर पुगंड्यू में अपना नसीब फोड़ रही हूं । लोन लेकर भैंस लाई थी। दिन भर की गर्त-बर्त करके बोण भेर घत्या सरी करके भैंस पाल रही हूं। कहावत है कि (भैंसो म्वोल बल भैंसा के दौर) मतलब जो भैंस के दूध से पैंसा मिलता है वो लून चुकाने के लिये ही काफी नही होता।
राशन पाणी का उधार कर करके अब तो बीरू लला के रेबार आने लगे हैं। पुगंडी पट्ली पर कुछ नही हो रहा। सारी पर सुगूंर लग गया। दिन धाणी पर और रात सार्यू के बीच कन्टर लबजा बजा कर अब मैं थक गई हूं । पता नही किस घडी पर लगन हुआ था। इतना बडबडा कर भरतू की ब्वारी की आंखो में एक साथ कई आँसू छलक आए। वो रुआंसी आवाज में फिर बोली। आज भी पूरे दिन वही चकडैत लमडालो के साथ ताश खेलने जा रहे होंगे और रात को छारू अपने कपाल में खण्याकर धुत्त बनकर आओगे।
निर्भागी कुछ काम काज कर ले। कुछ तो दो चार पैसा आएगा। घर में अपनी न सही तो बच्चो के भविष्य की तो चिन्ता कर। क्या खिलाना है मैंने इन बच्चो को। कैसे करके घर का पालन-पोषण करना है। घर के हालात ऐसे है कि इस बसग्याल चू चू कर धुर्पली टिकेगी या नही कुछ भरोसा नही। इतना कहकर वह घास के लिये जूडी थमली निकालकर जंगल की ओर चले गई। भरतू भी उसको गाली-गलोज करके ताश खेलने में व्यस्त हो गया।