उत्तराखंड

इन गावों में 352 सालों से नही मनाई गई होली! जानिए क्या है कारण

रहस्य- रूद्रप्रयाग के इन गावों में 352 सालों से नही मनाई गई होली! जानिए क्या है कारण

रूद्रप्रयाग। देशभर में रंगों का त्यौहार होली धूमधाम से मनाया जा रहा है वही रूद्रप्रयाग जिले में 3 ऐसे गांव हैं जहाॅ गांव के 371 साल के इतिहास में कभी भी होली नही मनाई गई, वैसे तो हर त्यौहार का अपना एक रंग होता है जिसे आनंद या उल्लास कहते हैं लेकिन हरे, पीले, लाल, गुलाबी आदि असल रंगों का भी एक त्यौहार पूरी दुनिया में हिंदू धर्म के मानने वाले मनाते हैं। यह है होली का त्यौहार इसमें एक और रंगों के माध्यम से संस्कृति के रंग में रंगकर सारी भिन्नताएं मिट जाती हैं और सब बस एक रंग के हो जाते हैं वहीं दूसरी और धार्मिक रूप से भी होली बहुत महत्वपूर्ण हैं।

मान्यता है कि इस दिन स्वयं को ही भगवान मान बैठे हरिण्यकशिपु ने भगवान की भक्ति में लीन अपने ही पुत्र प्रह्लाद को अपनी बहन होलिका के जरिये जिंदा जला देना चाहा था लेकिन भगवान ने भक्त पर अपनी कृपा की और प्रह्लाद के लिये बनाई चिता में स्वयं होलिका जल मरी। इसलिये इस दिन होलिका दहन की परंपरा भी है। होलिका दहन से अगले दिन रंगों से खेला जाता है इसलिये इसे रंगवाली होली और दुलहंडी भी कहा जाता है। रूद्रप्रयाग के अगस्त्यमुनि ब्लाक की तल्ला नागपुर पट्टी के क्वीली, कुरझण और जौंदला गांव इस उत्साह और हलचल से कोसों दूर हैं।

यहां न कोई होल्यार आता है और न ग्रामीण एक-दूसरे को रंग लगाते हैं, 371 साल पहले जब इन गांव का बसाव हुआ था तब से आज तक इन तीनों गांव में आज तक होली नही मनाई गयी, ऐसा नही है कि इन गाॅव के लोगों को होली मनाना पसन्द नही है, बल्कि होली तो वो मनाना चाहते हैं गांव के बच्चों को ही देख लिजिए, होली न मना पाने का उन्हे हमेशा मलाल रहता है।

रूद्रप्रयाग जिला मुख्यालय से करीब 20 किमी दूर बसे क्वीली, कुरझण और जौंदला गांव की बसागत करीब 371 साल पूर्व की मानी जाती है, यहाॅ के ग्रामीण मानते हैं कि जम्मू-कश्मीर से कुछ पुरोहित परिवार अपने यजमान और काश्तकारों के साथ करीब 371 वर्ष पूर्व यहां आकर बस गए थे, ये लोग, तब अपनी ईष्टदेवी मां त्रिपुरा सुंदरी की मूर्ति और पूजन सामग्री को भी साथ लेकर आए थे, जिसे गांव में स्थापित किया गया, मां त्रिपुरा सुंदरी को वैष्णो देवी की बहन माना जाता है।

देवीय प्रकोप का डर

ग्रामीणों का कहना है कि उनकी कुलदेवी को होली का हुड़दंग और रंग पसंद नहीं है, इसलिए वे सदियों से होली का त्योहार नहीं मनाते हैं, बताते हैं कि डेढ़ सौ वर्ष पूर्व इन गांवों में होली खेली गई तो, तब यहां हैजा फैल गया था और बीमारी से कई लोगों की मौत हो गई थी, तब से आज तक गांव में होली नहीं खेली गई है। अब इसे अन्धविश्वास कहें या ग्रामीणों की अपनी ईष्टदेवी मां त्रिपुरा सुंदरी पर आस्था लेकिन ये एक ऐसा सच है जो इन तीन गांवों के 15 पीढ़ीयाॅ निभाते आ रहे है, और अब नई पीढ़ी भी उसी का अनुसरण कर रही है।

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