उत्तराखंड

छोटे से गांव की वो महिला, जिसकी ज़िद से शुरू हुआ दुनिया का सबसे अनोखा आंदोलन..

छोटे से गांव की वो महिला, जिसकी ज़िद से शुरू हुआ दुनिया का सबसे अनोखा आंदोलन..

उत्तराखंड: आज हम उत्तराखंड के एक ऐसे आंदोलन की बात करेंगे जिसने एक साधारण सी महिला को इतने बड़े आंदोलन की नेत्री बना दिया। 24 मार्च सन 1976 को चिपको आंदोलन की मुख्य घटना हुई थी. इस दिन रैणी के जंगलों को काटने का आदेश दिया गया।
हालांकि इन जंगलों को बचाने के लिए पिछले तीन सालों से आंदोलन चल रहा था। यहां के पुरुषों ने पूरी मुस्तैदी से मोर्चा संभाला था लेकिन सरकार की कूटनीति कहिए या फिर संयोग कि इसी दिन लोगों को उनके उन खेतों का मुआवजा दिए जाने का आदेश हुआ जो 1962 के बाद सड़क बनने के कारण उनसे छिन गए थे। किसी भी आंदोलन पर गरीबी भारी पड़ने लगती है, यही कारण रहा कि यहां के मलारी, लाता तथा रैणी के सभी पुरुष मुआवजा लेने चमोली चले गए।

 

वन विभाग ने चालाकी अपनाई और 26 मार्च को रैणी व कुछ अन्य गांव के लोगों को यह संदेश भेजकर चमोली बुला लिया कि 1962 में सेना ने जिनकी जमीन अधिग्रहित कर ली थी, उन्हें जमीन का मुआवजा दिया जाएगा रैणी के अलावा लाता गांव के लोग भी चमोली पहुंच गए थे। गांव में केवल महिलाएं और छोटे बच्चे ही थे। दूसरी तरफ चंडी प्रसाद भट्ट जी को वन विभाग के कंजरवेटर ने वार्ता के लिए गोपेश्वर बुला दिया।

 

26 मार्च की सुबह गांव के लोग चमोली आए और ठेकेदार के मजदूर वन कर्मचारियों के साथ जंगल कटान के लिए रैणी गांव पहुंच गए। गांव की महिलाओं को खबर लगी। महिला मंगल दल की अध्यक्ष गौरा देवी को सूचना दी गई। गौरा देवी के कहने पर पूरे गांव की महिलाओं ने घर के जो काम जहां थे, छोड़ दिये और जंगल में मजदूरों के डेरे पर पहुंच गई।

 

गौरा देवी के साथ लगभग दो दर्जन महिलाएं और कुछ छोटे बच्चे थे। वन विभाग के कर्मचारी, ठेकेदार के कर्मचारियों और मजदूरों ने महिलाओं को डराना धमकाना शुरू किया। एक वन कर्मी ने बंदूक उठा ली। तब गौरा देवी ने सामने आकर कहा, गोली मारलो और काट ले जाओ जंगल। यह जंगल हमारा मायका है, लकड़ी घास यहां से ले जाते हैं। जंगल कटेगा तो हम बर्बाद हो जाएंगे।

 

धमकाने का असर न हुआ। तब ठेकेदार के आदमी, वन विभाग के कर्मचारी ठिठक गए। महिलाओं ने कहा, नीचे सड़क पर उतर जाओ। जब गांव के पुरुष चमोली, गोपेश्वर से लौट आएंगे तब आगे बात होगी। वापस लौटते समय सबसे पीछे चल रही कुछ महिलाओं ने ऋषि गंगा पर बना एक अस्थाई पुल तोड़ दिया। गौरा देवी तब कुल 50 साल की थी।

 

27 मार्च की सुबह जोशीमठ के प्रमुख गोविंद सिंह रावत और चंडी प्रसाद भट्ट रैणी गांव पहुंच गए। आंदोलन के अनेक कार्यकर्ता गांव में पहुंच गए। अगले कुछ दिनों तक जंगल में समूह बनाकर जंगल रक्षा करते रहे। ठेकेदार के आदमी और मजदूर कुछ समय तक नीचे सड़क पर ही रुके रहे कि शायद जंगल कटान शुरू हो जाएगा। आखिर संघर्ष समिति के नेताओं ने 25 अप्रैल तक ठेकेदार को रैणी गांव से चले जाने की हिदायत दी।

 

इस बीच लखनऊ तक भारी दबाव बना। आखिर ठेकेदार के आदमी और मजदूरों को लौटना पड़ा। और इस तरह रैणी का जंगल बच गया। एक भी पेड़ नहीं कटा। 31 मार्च को रैली में बड़ा जुलूस निकाला गया था। जिसमें रैणी के साथ ही अन्य गांवों के लोग भी शामिल हुए। गौरा देवी के साथ कुछ और महिलाओं के नाम भी लिए जाते हैं, जिनमें भादी देवी, रूपसा देवी, हरकी देवी, फागुनी देवी, मुसी देवी, आदि। रैणी का यह दिन इसलिए भी ऐतिहासिक है कि महिलाओं ने सही समय पर सही निर्णय लिया और बिना डरे वन विभाग और जंगल के ठेकेदारों को चुनौती दी।

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