उत्तराखंड

नमो नाद से आगे बढ़ने की जरूरत

रमेश पहाड़ी
उत्तराखंड के पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज ने हरिद्वार में 1500 बाज़गीरों को बुलाकर एक बड़ा ढोल कार्यक्रम करवाया। इसे गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में दर्ज करा कर इन बाज़गीरों को विश्व स्तर पर पहचान दिलाना बताया गया है लेकिन इससे इन परंपरागत कलाकारों का वास्तव में कुछ भला हो पायेगा, इसमें संदेह है। नमो नाद का नाम देकर सतपाल महाराज ने इससे कई हित साधने की कोशिश की है, इस आरोप को यदि महत्व न भी दिया जाए, तब भी यह सवाल तो जवाब माँगेगा ही कि इससे इन बाज़गीरों को क्या लाभ होने वाला है। क्योंकि महाराज ने इनको सम्मानजनक रोजगार देकर या इस कला को रोजगारपरक बनाने के लिए कुछ करने का कोई भरोसा नहीं दिया है और न इसके लिए किसी कार्ययोजना की घोषणा की है।

हम अपनी प्राचीन सामाजिक व्यवस्था पर नजर डालें तो समाज के लिए उपयोगी कार्य करने वाले समाज के अभिन्न अंग होते थे और उनकी आजीविका का पूरा ध्यान रखा जाता था। गाँवों की उपज में उनका एक निश्चित हिस्सा होता था। इससे उनकी आजीविका सम्मानजनक ढंग से हो जाती थी। गाँवों से पलायन व आर्थिक असमानता बढ़ने के साथ उनका हिस्सा उस अनुपात में नहीं बढ़ पाया जिससे वे पिछड़ते चले गए। आर्थिक विपन्नता के साथ जातीय भेदभाव के कारण इनकी स्थिति दयनीय बनती गई। जिन लोगों ने परंपरागत जीविका को बदलने की कोशिश की, वे कुछ आगे बढ़ते गए और जो उसी में उलझे रह गए, वे विपन्नता व अशिक्षा के दलदल में फँसते चले गए हैं।
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गाँवों की व्यवस्था में बाज़गीर, लोहार, धुनार, सल्ली-मिस्त्री आदि की अनिवार्यता व महत्व को उद्योग व तकनीक के विकास ने भी काम किया है और इन वर्गों की गरीबी व पिछड़ेपन ने भी उन्हें जहाँ के तहाँ पड़े रहने को भी विवश किया है। जबकि ग्रामीण जीवन इनके बिना नहीं चल सकता था। बीच के दौर में इनकी कला की उपयोगिता को तो अनुभव किया जाता रहा। लेकिन उस काल को विस्तार देने व सर्वसुलभ कराने की बजाय उन्हीं लोगों तक सीमित रखने व जातीयता से बाहर न करने के कारण उसे सबकी कला बनाने की दिशा में कार्य नहीं किया गया। लोगों की मंशा तो रही कि यह कला जीवित रहे व प्रगति भी करे लेकिन करें वही लोग्, जो परंपरा से इसे करते आ रहे हैं ताकि जातीयता का जो ठप्पा इन पर लगा हुआ है, वह बना रहे। लगभग 3 दशक पूर्व जब परंपरागत बाज़गीरी को बढ़ाने की बात शुरू हो रही थी तो मैंने कहा था कि इसकी वकालत करने वाले अपने बच्चों को ढोली व दमाइयाँ के पेशे के रूप में अपनाने की हिम्मत दिखायें। इस पर् कुछ साथी नाराज़ भी हो गए थे। इससे लगता है कि कला का आनंद लेना, उससे अपने स्वार्थ सिद्ध करना एक बात है और उसके संवर्द्धन व विकास की ईमानदार कोशिश करना एकदम दूसरी बात।

सतपाल महाराज की इस पहल के बाद ज्यादा नहीं तो क्या ऐसा नहीं हो सकता कि सरकार कुशल बाज़गीरों, लुहारों व अन्य परंपरागत कार्यों में लगे लोगों को सम्मानजक नियमित मानदेय के साथ उन्हीं कार्यों में गाँवों में ही रोजगार का प्रबंध करे। बंजर पड़ती जमीनें उनके नाम करे और उन्हें दयनीय हालत से उबारने के उपक्रम करे।

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