उत्तराखंड

मुख्यमंत्री किस भाषा और बोली में संवाद बनाना चाहेंगे ?

दाताराम चमोली 

मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को सोचना चाहिए कि एक छोटे से क्षेत्र की भाषा में संपूर्ण उत्तराखण्ड की जनता से संवाद नहीं किया जा सकता। यदि वे वास्तव में लोक भाषाओं के संवर्धन और संरक्षण के प्रति गंभीर हैं तो उन्हें देखना होगा कि सरकारी आदेश बेशक ऊपर से नीचे को चलते हों, लेकिन लोक भाषा का विकास नीचे से ऊपर की दिशा में ही संभव है।

उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने सोशल मीडिया के जरिए अपील की है कि ‘उत्तराखण्ड का सबि भै बैणों थैं नमस्कार। दगड़यों अपणी बोलि का उत्थान का वास्ता आप दगड़ि गढ़वाली मां संवाद की कोशिश करला। अपणा सुझाव जरूर दियां।’ अच्छी बात है कि मुख्यमंत्री अपनी बोली के उत्थान की बात कर रहे हैं। लेकिन सवाल है कि कौन सी बोली के उत्थान की बात कर रहे हैं? किस भाषा में संवाद बनाना चाहते हैं? सोशल मीडिया के जरिए उन्होंने गढ़वाली भाषा की जिस बोली में अपील की है, उसे तो एक सीमित क्षेत्र के लोग ही समझ सकते हैं? जीए ग्रियर्सन ने गढ़वाली भाषा को आठ तो कुमाऊंनी भाषा को 13 बोलियों ने विभाजित किया है।

जानकारों के मुताबिक इनकी संख्या इससे भी कई अधिक है। इसके अलावा जौनसारी, थारू, बौक्साणी आदि भाषाएं भी प्रदेश में बोली जाती हैं। हर भाषा एवं बोली के शब्द और लहजे भिन्न हैं। गढ़वाल में ही कहीं खेत को पुंगड़ा कहा जाता है तो कहीं डोखरा। कहीं ‘छौ’ शब्द प्रचलित है तो कहीं ‘थौ’। ऐसे में समझ पाना मुश्किल है कि आखिर मुख्यमंत्री किस भाषा और बोली में संवाद बनाना चाहेंगे? जिस भाषा में सोशल मीडिया पर उन्होंने संदेश दिया है उस पर सीमांत पिथौरागढ़ के एक व्यक्ति ने मुझसे पूछा आखिर मुख्यमंत्री किस डर (भै) की बात कर रहे होंगे? जाहिर है कि इस संदेश को लेकर विचार-विमर्श भी हुआ होगा। यह भी हो सकता है कि मुख्यमंत्री को कहीं से उत्तराखण्ड की एक भाषा बनाने का सुझाव मिला हो, लेकिन यह जरा भी व्यावहारिक नहीं है। आखिर राज्य की किन बोलियों और भाषाओं को मानक मानकर उनका एकीकरण कर एक भाषा बनाई जाएगी?

मुख्यमंत्री यदि वास्तव में अपनी भाषा-बोलियों का उत्थान चाहते हैं तो इनके संरक्षण और संवर्धन के लिए उन्हें गंभीरता से सोचना होगा। उन्हें सोचना होगा कि सरकारी आदेश बेशक ऊपर से नीचे को चलते हैं, लेकिन भाषा की समन्वयता और एकीकरण नीचे से ऊपर की दिशा में ही व्यावहारिक है। सोशल मीडिया के जरिये मुख्यमंत्री जिस भाषा में संवाद कायम करना चाहते हैं उसे राज्य के महज कुछ लोग ही समझ पाएंगे। यहां तक कि सोशल मीडिया पर गढ़वाली और कुमाऊंनी की तमाम भाषाओं में लिखने वालों का सर्वे किया जाए तो इनकी संख्या मुश्किल से प्वाइंट वन प्रतिशत भी नहीं होगी। क्या राज्य सरकार के सोशल मीडिया हेड मुख्यमंत्री को गढ़वाल के एक छोटे से क्षेत्र का ही प्रतिनिधि बनाए रखना चाहते हैं?

बहरहाल, मुख्यमंत्री ने सुझाव मांगे हैं तो उत्तराखण्ड की भाषाओं-बोलियों के संरक्षण और संवर्धन के कुछ इन सुझावों पर भी सरकार अमल कर सकती है।
1- सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों से लेकर जिला मुख्यालयों तक स्कूलों में बच्चों के लिए गढ़वाली, कुमाऊंनी, जौनसारी, आदि भाषाओं में वाद-विवाद, निबंध लेखन एवं साहित्यक -सांस्कृतिक प्रतियोगिताएं कराई जाएं।

2- राज्य के हर विश्वविद्यालय में गढ़वाली और कुमाऊंनी भाषा की पीठ (चेयर) स्थापित की जाए।

3- क्षेत्रीय भाषाओं में तुलनात्मक अध्ययन के लिए हर वर्ष कम से कम पांच छात्रों को शोध के लिए फैलोशिप दी जाए। इससे नई-नई जानकारियां मिल सकेंगी। मसलन द्रविड भाषा के कूड़ा, पुंगड़ा आदि शब्द गढ़वाली में कौन सी जातियां लेकर आईं? बांग्ला का ‘बिरालू’ शब्द गढ़वाली और कुमाऊंनी में कौन सी जातियां लेकर आईं? ईजा शब्द कुमाऊंनी में पहले था या फिर रूस और पोलैंड में?

4- राज्य में एक क्षेत्रीय भाषा अकादमी का गठन हो जो जौनसारी, थारू, जोहार, रंग, भोटिया, जाड़ आदि भाषाओं के संरक्षण और संवर्धन का काम करे। इसके साथ ही गढ़वाली और कुमाऊंनी अकादमियों का भी गठन हो। तीनों अकादमियों को समान रूप से बजट मिले। जब दिल्ली सरकार 11 नई अकादमियां बना रही है तो उत्तराखण्ड सरकार को तीन अकादमियां बनाने में क्या मुश्किल है?

5- बोलियों का अस्तित्व उच्चारण से है। लिहाजा ग्रामीण क्षेत्रों में पीढ़ियों से संस्कृति का संरक्षण करते आ रहे ‘औजि’, ‘बेड़ा’ आदि समाजों के लोगों की सेवाएं इन तीनों अकादमियों में ली जाएं। स्थानीय भाषाओं के साहित्यकारों को इन अकादमियों से प्रोत्साहन मिले।

6- जिस तरह पंजाब में सरकारी नौकरी के लिए हाईस्कूल तक पंजाबी भाषा पढ़नी अनिवार्य होती है, यही फाॅर्मूला उत्तराखण्ड में भी अपनाया जाए।

7- राज्य के सांस्कृतिक मेलों या शरदोत्सवों में लोक कलाकारों और लोकभाषा के साहित्यकारों को महत्व दिया जाए।

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