उत्तराखंड

जलवायु परिवर्तन से संकट में है भोजपत्र का अस्तित्व

उच्च हिमालयी क्षेत्रों में अति दुर्लभ पेड है भोजपत्र
मदमहेश्वर व गंगोत्री में ही पाया जाता है यह पेड
प्राचीनकाल में भोजपत्र पर ही लिखे जाते थे ग्रंथ, तंत्र साधना के भी आता है काम
रुद्रप्रयाग।
गंगोत्री के रास्ते में भोजवासा से आप सभी विज्ञ होंगे। आज हम आपको एक और ‘भोजवासा‘ से रूबरू कराते हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि मद्महेश्वर धाम से ढाई किमी ऊपर भोजपत्र का जंगल है। पहले भोजपत्र के वृक्ष का जंगल घना था। आज यह सिमटता ही जा रहा है। पर्यावरण विशेषज्ञ इसकी वजह जलवायु परिवर्तन और उच्च हिमालयी क्षेत्रों में मानवीय हस्तक्षेप को मान रहे हैं।

भोजपत्र हिमालय क्षेत्र में उगने वाला एक वृक्ष है, जो 4500 मीटर की ऊंचाई तक उगता है। यह बहुपयोगी वृक्ष है। इसकी छाल सफेद रंग की होती है, जो प्राचीन काल से ग्रंथों की रचना के लिए उपयोग में आती है। भोजपत्र पर प्राचीन पांडुलिपियां लिखी जाती थी। कागज की खोज से पूर्व हमारे देश में लिखने का काम भोजपत्र पर ही किया जाता था। हमारे देश के कई पुरातत्व संग्रहालयों में भोजपत्र पर लिखी गई सैकड़ों पांडुलिपियां सुरक्षित रखी है। जैसे हरिद्वार में गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय का संग्रहालय। कालीदास ने भी अपनी कृतियों में भोज-पत्र का उल्लेख कई स्थानों पर किया है। उनकी कृति कुमारसंभवम् में तो भोजपत्र को वस्त्र के रूप में उपयोग करने का जिक्र भी है। इसका उपयोग सजावटी वस्तुओं और चरण पादुकाओं-जिन्हें लाप्ती कहते थे, के निर्माण में भी किया जाता था। वर्तमान में भोजपत्रों पर कई यंत्र लिखे जाते है। भोजपत्र पर लिखा हुआ सैकड़ों वर्षो तक संरक्षित रहता है, परन्तु वर्तमान में भोजवृक्ष गिनती के ही बचे हुये हैं। तन्त्र साधना से लेकर हिन्दू धर्मग्रन्थों को लिखने में सहायक भोज पत्र के जंगल जलवायु परिवर्तन की भेंट चढ़ रहे हैं। उत्तराखंड के गोमुख और मद्महेश्वर के ऊपरी जंगलों में भोजवासा के वृक्ष लगातार घट रहे हैं। गंगोत्री के रास्ते में 14 किलोमीटर पहले भोजवासा आता है। भोजपत्र के पेड़ों की अधिकता के कारण ही इस स्थान का नाम भोजवासा पड़ा था, लेकिन वर्तमान में इस जगह भोज वृक्ष गिनती के ही बचे है। मद्महेश्वर मंदिर से ढाई किमी ऊपर भी भोजपत्र का जंगल है। यह पेड़ विलुप्ति की कगार पर है। इसे सबसे ज्यादा खतरा कांवडियों और पर्यटकों से है, पानी लेने आते है और भोज वृक्ष को नुकसान पहुंचाते है। दरअसल, यात्री और पर्यटक भोजपत्र को अपने साथ ले जाना शुभ मानते हैं। जलवायु परिवर्तन के साथ यह भी एक बड़ी वजह रही कि भोज वृक्ष सिमट गए हैं।

उच्च हिमालयी क्षेत्रों की वनस्पतियों पर अध्ययन कर चुके अगस्त्यमुनि महाविद्यालय के प्राचार्य वनस्पति विज्ञानी प्रोफेसर जीएस रजवार का कहना है कि यह पेड़ अति दुर्लभ है और सिर्फ उच्च हिमालयी क्षेत्रों में पैदा होता है धीरे धीरे इसके जंगल सिमटते जा रहे हैं जिसके पीछे बडा कारण जलवायु परिवर्तन का पाया जाता है। अगर हालात यही रहे तो आने वाले दिनों में यह पेड़ महज कल्पनाओं में ही रहेगा। पौराणिक काल में इसका महत्वपूर्ण उपयोग था। इसकी छाल से पाणुलिपियां तैयार की जाती थी और तन्त्र साधना के दौरान भी इसका महत्व था। विकास के नाम पर जिस तरह से प्रकृति का अवैज्ञानिक दोहन हो रहा है, वह हिमालय के लिए एक बड़ा खतरा है। ग्लेशियर पीछे खिसक रहे हैं और बुग्याल खत्म हो रहे हैं।

वहीं पर्यावरणविद जगत सिंह जंगली का मानना है कि विकास के साथ पर्यावरण को भी ध्यान में रखना जरूरी है। आज हिमालय का पारिस्थितिकीय सिस्टम तेजी से बदल रहा है। हिमालय में पाई जाने वाली वनस्पतियां खतरे में हैं। भोजपत्र के संरक्षण के लिए शोध की आवश्यकता है। बहरहाल, इस बहुउपयोगी वृक्ष के अति दोहन से उसके विलुप्त होने का खतरा पैदा हो गया है। भोजपत्र हमारी प्राचीन संस्कृति का परिचायक वृक्ष है। यह हिमालयीन वनस्पतियों का एक प्रतिनिधि पेड़ है। अति महत्वपूर्ण औषधि गुणों से भरपूर इस वृक्ष को बचाना जरूरी है।

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