योगेश भट्ट
काश, कि भगवान भी इंसान होता। इंसानों की तरह प्रतिकार कर पाता, कम से कम कहीं तो अपनी व्यथा-कथा कह पाता। देश के प्रधानमंत्री और प्रदेश के मुख्यमंत्री को कह पाता कि बहुत हुआ, अब बस भी करो। बंद करो यह प्रपंच, किसका पुनर्निर्माण कर रहे हो यह ? क्यों लगा रहे हो यह पत्थर, क्या है इन पत्थरों का औचित्य ? क्यों कर रहे हो ‘एक पत्थर’ के नाम पर पत्थरों की यह सियासत ?
आपदा जैसे संवेदनशील मुददे को क्यों सियासी बनाने पर तुले हो ? कुछ करना है तो पहले इंसान के लिये करो। पत्थर भी तभी तो भगवान है जब इंसान है, जब इंसान ही नहीं होगी उसमें आस्था ही नहीं होगी तो फिर भगवान कहां होगा? इसलिये सुध लेनी है तो 2013 में जलप्रलय से आयी आपदा के उन हजारों लाखों प्रभावितों की लो, जिन्हें सरकारों ने भगवान के भरोसे छोड़ा हुआ है। भगवान अगर इंसान होता तो बताता कि महाराज आपदा से सिर्फ केदारनाथ धाम तबाह नहीं हुआ, पूरी केदार घाटी और पिंडर घाटी में हजारों जिंदगियां बर्बाद हुईं। किसी को आपदा लील गयी तो कोई आज तक उसके दुष्प्रभाव का शिकार है। लोगों की जीवन भर की पूंजी समाप्त हो गयी है, रोजगार के साधन खत्म हो गये हैं। किसी परिवार का एक तो किसी का प्रत्येक कमाऊ सदस्य काल के गाल में समा चुका है। खेत, मकान, दुकान सब तबाह हो चुके हैं, चार साल बाद भी तमाम परिवार ऐसे हैं जिन्हें सुरक्षित छत नसीब नहीं है। प्रभावित परिवारों की जिंदगी अभी तक पटरी पर नहीं लौटी है । बड़ी संख्या में लोग आज तक इस घाटी में आपादा के सदमे से नहीं उबर पाये हैं । सडक, शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन और संचार सुविधाएं अभी तक दुरुस्त नहीं हो पायी हैं। यह सच है कि आपदा के निशां आज भी पूरी घाटी में जगह जगह मौजूद हैं, लेकिन राजनेताओं को सिस्टम को और सरकार को ये निशां नजर नहीं आते । उन्हें अपादा प्रभावितों का दर्द भी महसूस नहीं होता, न उनकी पुकार सुनायी देती है।
सरकार तो मानो मुआवजा बांटकर अपने राजधर्म की इतिश्री कर चुकी है। आपदा प्रभावितों के नाम पर उसे अगर कुछ दिखायी देता है तो सिर्फ और सिर्फ केदारनाथ। सरकार कोई भी हो केदार पर हर किसी का रवैया एक ही रहा है। खैर छोडिये, ये इंसानी बातें । सवाल यह है कि सरकारें क्यों इतनी संवेदनहीन होती जा रही हैं, क्यों केदारनाथ के पुनर्निर्माण के नाम पर भारी सियासत होती है। आखिर क्या हासिल होता है राजनेताओं को इन प्रपंचों से ? सच यह है कि राजनेताओं के प्रपंच केदार को भी रास नहीं आते, राजनेता हैं कि उन्हें यह बात समझ ही नहीं आती । न जाने क्यों उत्तराखंड के राजनेताओं को यह ‘मतिभ्रम’ है कि केदारनाथ धाम एक बड़ा सियासी मुद्दा है । शायद यही कारण भी है कि चार साल से उत्तराखंड की सियासत केदार के इर्द गिर्द घूम रही है, जबकि बार बार यह साबित हो रहा है कि केदार पर हर सियासत बौनी है।
पुनर्निर्माण के नाम पर केदार की माला जपने वाले दो मुख्यमंत्रियों का राजनैतिक भविष्य चौपट हो चुका है, तो एक बड़ा नौकरशाह गुमनामी में है। केदार धाम में पुनर्निर्माण के नाम पर तमाम पत्थर लगाने वाली यह शख्सियतें आज खुद अतीत का ‘पत्थर’ हो चुकी हैं, इनमें से किसी की मनोकामना पूरी नहीं हुई। जी हां, बात विजय बहुगुणा, हरीश रावत और राकेश शर्मा की हो रही है। इसमें कोई दोराय नहीं कि केदार आपदा के बाद केदारनाथ में पुनर्निर्माण के अभी तक के सर्वाधिक पत्थर इन्हीं के खाते में हैं। इनमें से विजय बहुगुणा की कुर्सी तो सीधे तौर पर केदार आपदा की ही भेंट चढ़ी , कहा भी गया कि उन्हें बाबा केदार का शाप लगा उन्हें। हरीश रावत ने क्या क्या किया और उनके साथ क्या हुआ यह भी सामने है, केदार खुश होते तो क्या उनका यह हस्र होता ?
राकेश शर्मा के मंसूबों पर भी यूं पानी न फिरता। खैर बात केदारनाथ में पत्थरों की सियासत की हो रही है, तो हस्र सामने होने के बाद भी केदार में पत्थरों की सियासत का सिलसिला जारी है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद कई शिलान्यास करके गये हैं। प्रधानमंत्री के नाम वाले शिलापटों में काम भले ही कोई उल्लेखनीय न हों पर ‘नाम’ की सियासत पूरी है। कई कामों का शिलान्यास तो पिछली सरकारों में भी हो चुका है। आश्चर्य यह है कि केदार में पत्थरों की सियासत इस बार सरकार के अंदर से भी हुई। सियासत का चरम देखिये, सरकार के राज्य मंत्री धन सिंह रावत ने सारे दिग्गज मंत्रियों को गच्चा दे दिया। शिलापटों पर प्रधानमंत्री, राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बाद एकमात्र उनके एक नाम ने केदारनाथ से लेकर देहरादून और दिल्ली तक तूफान मचाया हुआ है। प्रधानमंत्री के कार्यक्रम में क्षेत्रीय सांसद और विधायक की अनदेखी होना तो अपने आप में इसका प्रमाण है कि कार्यक्रम राजनीति से ऊपर उठकर नहीं है। लेकिन जिस तरह शिलान्यास कार्यक्रम में संबंधित विभाग के मंत्रियों की अनदेखी हुई उस ने साफ तौर पर यह बयां कर दिया है कि प्रदेश में क्या चल रहा है ।
बहुत संभव है कि प्रधानमंत्री ने भी इसे महसूस किया हो, इसलिये वह किसी बडी घोषणा से बचे हों । प्रधानमंत्री को वाक़ई इस सियासत का अहसास हुआ और उनकी शह न हुई तो ,तय मानिये यह सियासत बड़ा गुल खिलायेगी । आने वाले दिनों में सियासत के यह पत्थर केदारपुरी में कईयों को बहुत भारी पड़ेगे । कोई माने या ना माने संकेत भी साफ नजर आने लगे हैं, केदारनाथ में शिलान्यास कार्यक्रम के बाद केंद्र से अचानक वरिष्ठ अधिकारी उत्पल कुमार सिंह को उत्तराखंड भेजा जाना इसी से जोड़कर देखा जाना चाहिए। उत्तराखंड के इतिहास में अभी तक ऐसा नहीं हुआ कि एक बार जूनियर बैच का आईएएस मुख्यसचिव बनने के बाद सीनियर बैच का आईएएस मुख्यसचिव बन जाए, लेकिन उत्तराखंड में यह नयी इबारत लिखी गयी है। किसी को न इसकी भनक लगी न ही कोई अंदेशा । ऐसा लगता है कि अभी तो मानो यह शुरुआत है । देखते जाइये आगे-आगे यह पत्थर किस-किस को लेकर डूबते हैँ ।
