उत्तराखंड

जनसुनवाई में “जनता की आवाज” पर सरकार का पहरा

योगेश भट्ट

जब-जब बड़े बांधों की बात होती है, तब-तब बहस मुबाहिसों का दौर भी शुरू हो जाता है। एक पक्ष पर्यावरण, आस्था, पारिस्थितिकी आदि को लेकर बांधों के विरोध में होता है तो दूसरा पक्ष बांधों को विकास का द्योतक बता कर बेहतर अर्थव्यवस्था के लिए, रोजगार के लिए और तरक्की के लिए जरूरी करार देता है। उत्तराखंड में बांधों को लेकर आंदोलन, त्रासदी और सियासत का नाता दशकों पुराना है। टिहरी बांध के विस्थापन को लेकर जो त्रासदी सामने आई, अभी उसकी सिसकियां ही नहीं थमी हैं कि एक नई त्रासदी की पटकथा लिखी जानी शुरू हो गई है।

भारत और नेपाल की सीमा पर बहने वाली महाकाली नदी पर प्रस्तावित पंचेश्वर बांध के निर्माण को लेकर इन दिनों माहौल गरमाया हुआ है। बताया जा रहा है कि यह दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बांध होगा। तकरीबन चालीस हजार करोड़ रुपये की लागत से बनने वाली पंचेश्वर जल विद्युत परियोजना से तकरीबन पांच हजार मेगावाट बिजली के उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। दोनों देशों की जमीन पर बनने वाली इस परियोजना का बड़ा हिस्सा उत्तराखंड में समाहित है। प्रदेश के तीन जिलों के डेढ़ सौ के करीब गांव इसकी जद में आएंगे जिसके परिणामस्वरूप लगभग डेढ लाख की आबादी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होगी। इन दिनों परियोजना को लेकर जन सुनवाई का दौर चल रहा है। लेकिन हकीकत यह है कि ये जन सुनवाई महज रस्म अदायगी है।जिस तरह जनसुनवाई के दौरान स्थानीय पक्ष खासकर कि पहाड़ का पक्ष रखने वाले लोगों के साथ बदसलूकी की जा रही है, अपमानित कर जन सुनवाई स्थल से बाहर किया जा रहा है, वह अपने आप में कई सवालों को जन्म देता है।

जहां तक बड़े बांधों का सवाल है तो विरोध और समर्थन से इतर असल सच्चाई यही है कि बांध निर्माण से सिर्फ वर्तमान ही प्रभावित नहीं होता बल्कि पीढ़ियां प्रभावित होती हैं। बांध केवल जल जंगल जमीन को ही नहीं लीलते बल्कि संस्कृति, विरासत और परंपराओं को भी लील जाते हैं। बांध अपने साथ न जाने कितनी सामाजिक बुराइयों और कुरीतियों को लेकर आता है। बांध उन नेताओं का चरित्र बदल देता है, जिन पर भरोसा कर जनता ने उन्हें अपना प्रतिनिधि चुनती है। दावा भले ही रोजगार मिलने और पलायन रुकने का किया जाता हो मगर हकीकत यह है कि बांध निर्माण से न रोजगार मिलता है और न पलायन रुकता है। बांध से एक भ्रष्ट तंत्र पैदा होता है। बांध से ठेकेदार, दलाल और सफेदपोश निकलते हैं। इसी लिए सरकारें, कारपोरेट, राजनेता और ठेकेदार बांधों के कट्टर समर्थक होते हैं। बांधों का विरोध पर्यावरण, नदियों की अविरलता और आस्था के आधार पर होता रहा है, लेकिन बात सिर्फ इतनी नहीं है।

असल मुद्दा पुनर्वास का है। असल मुद्दा प्रभावितों के रोजगार, उनके मुआवजे और हितों की रक्षा का है। उत्तराखंड में यानी ‘पहाड़’ में बड़े बांधों को इसलिए भी तार्किक नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि एक तो पुनर्वास की नीति नहीं है और दूसरा मध्य हिमालय स्थित इस क्षेत्र के पहाड़ अभी बेहद नाजुक हैं। अभी तो उन्हें संरक्षण की आवश्यकता है। क्या पहाड़ का संरक्षण बांधों से संभव है? जाहिर है पहाड़ तो पहाड़ में रहने वाले लोगों से ही बचेगा। आज जहां देखो वहां हिमालय बचाने की बात की जाती है, मगर बांधों से तो हिमालय के विनाश का खतरा है। हिमालय को बचाने के लिए सबसे जरूरी है कि हिमालय में रहने वाले लोग बचे रहें। और लोग तभी बचेंगे जब उनकी जमीन बचेगी, जब उनका गांव और खेत बचेगा। बांधों का मुद्दा कोई सामान्य मुद्दा नहीं है। यह प्रदेश की आत्मा से जुड़ा मुद्दा है।

नीति नियंताओं को यह गलतफहमी है कि उत्तराखंड देहरादून, हल्द्वानी, हरिद्वार या रुद्रपुर में बसता है। वे शायद यह भूल रहे हैं कि इस प्रदेश की आत्मा तो उन जगहों में बसती हैं जिन्हें बांध बना कर या तो डुबोया जा चुका है, या डुबोने की तैयारी है। चाहे टिहरी हो, मनेरी हो या फिर पंचेश्वर ये सब वे जगहें हैं जिनसे उत्तराखंड की असल पहचान है। बहरहाल यह बेहद व्यापक मुद्दा है। इसके तमाम पहलू हो सकते हैं। बहुत से बुद्धिजीवी इन पहलुओं को अपने-अपने स्तर से उठाते भी आ रहे हैं, लेकिन जन सुनवाई के दौरान जो हो रहा है वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। ऐसा लग रहा है मानो सत्ताधारी दल सत्ता की हनक के बल पर हर औपचारिकता पूरी कर लेना चाहते हैं।

बेहतर होता यदि जन सुनवाई में सारे मुद्दे सुलझाए जाते। प्रदेश में बांध निर्माण से जुड़ा अनुभव यह बताता है कि जल विद्युत परियोजनाओं का विरोध और निर्माण कार्य एक साथ चलता रहता है और एक समय ऐसा आता है जब आंदोलन निर्माण कार्यों पर भारी पड़ने लगता है। मगर तब सरकारें बांध के बचाव में यह दलील देती हैं कि जिन बातों को लेकर आंदोलन किया जा रहा है वे बातें शुरुआत में नहीं उठाई गईं। पंचेश्वर में तो शुरुआत से ही मुद्दे उठाए जा रहे हैं, मगर सवाल यही है कि, सुनेगा कौन?

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