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डिजिटल इंडिया और न्यू इंडिया नहीं, हमें चाहिए भूख से निजात

ग़रीबी में जीते बच्चे

गत दिनों चार बच्चे हमारी गली में ढोल बजाते हुए अपनी कला के बदले धन मांग रहे थे, कुछ इसे भीख या दान भी कह सकते हैं। गजब का ढोल बजा रहे थे। देहरादून रेलवे स्टेशन के पास झुग्गी में रहने वाले उनमें से एक बच्चे ने पूछने पर बताया कि पहले कनस्तर बजाते थे। जब ताल आने लगी तो मेरठ के कबाड़ी बाजार से ये ढोल उठा लाये। अब लोग खुश होकर गुजारे लायक पैसे दे देते हैं।

सुबह का वक्त था, हालांकि हम नाश्ता कर चुके थे, मैंने उन्हें पूछा कुछ खाओगे? चारों के सिर एक साथ हां में हिले। मेरी पत्नी ने उनके लिए रोटियां बनाई, सब्जी कुछ कम ही बनी। लेकिन चारों खुश थे। पेट की भूख ऐसी ही होती है शायद। इन बच्चों के पेट को न तो डिजिटल इंडिया से मतलब है और न ही मेक इन इंडिया से। अच्छे दिन वही हैं, जिस दिन दो वक्त का खाना नसीब हो जाए।

मेरा संदर्भ सिर्फ भूख से है। तीन साल का बुधिया याद होगा न आपको? वही बुधिया जो पेट के लिए पुरी से भुवनेश्वर तक दौड़ा। बुधिया को तब सिलेब्रिटी बना दिया गया। उस पर बीबीसी ने फिल्म बना डाली। उड़ीसा के एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी स्कूल ने चपरासी के बेटे बुधिया को दाखिला भी दे दिया। लेकिन आज बुधिया कहां है? किसने ली उसकी खबर? जिसे हम मैराथन का भावी चैंपियन समझ रहे थे, आज वह उड़ीसा के स्पोट्र्स हाॅस्टल में एक-दो किलोमीटर ही दौड़ पा रहा है और गुमनाम हो गया। उसके कोच विरंची दास की हत्या कर दी गई और पेट की आग बुझाने के लिए मैराथन दौड़ने वाले बुधिया का करियर हमारी भ्रष्ट व्यवस्था की भट्टी में जल गया।

अब बात झारखंड की 11 साल की संतोषी की। संतोषी 5 दिनों से भूखी थी। दुर्गा पूजा के लिए स्कूल बंद थे तो मिड डे मील भी नहीं मिला। भूख से दम तोड़ गयी। हाय-तौबा मचा तो अब सरकार कह रही है कि छुट्टियों में भी मिड डे मील देने पर विचार हो रहा है जब तक कि कोई और संतोषी दम न तोड़ दें, फैसला होना संभव नहीं है। हां, और अल्मोड़ा द्वाराहाट की खुजरानी गांव की विकलांग बालिका सरिता ने भीं तो भूख से ही दम तोड़ा। सवाल यह है कि हम अपनी भावी पीढ़ी को जब भूख से निजात नहीं दिला पा रहे तो डिजिटल इंडिया और किस तरह के अच्छे दिनों की बात कर रहे हैं। आज भूख के इंडेक्स में हमारे देश का नंबर विश्व के 119 देशों में से 100वां है।

तो आप अंदाजा लगाएं कि आखिर हम अपनी भावी पीढ़ी को विरासत में कर्ज और भूख के सिवाए क्या दे पाएंगे? सारे जुमले, सारे तर्क, सारे गुणगान, सारे नारे, सारे विकास की बात तब गौण हो जाते हैं जब हमारा कोई नौनिहाल इस तरह से भूख से दम तोड़ देता है। हर रोज देश में लगभग 20 करोड़ लोग भूखे सो जाते हैं। आज हमें डिजिटल इंडिया और अच्छे दिन नहीं चाहिए, हमें भूख से निजात चाहिए।

(वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला जी की फ़ेसबुक वॉल से)

 

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