उत्तराखंड

यदि जीना है तो जनभागीदारी और संयम से लड़ना होगा बीमारी से..

सचिवालय बंद, मोबाइल बंद, नेता-अफसरों की कोठियों के दरवाजे भी बंद..

सिस्टम और सरकार की लाचारी पर क्षोभ, गुस्सा और रोना आता है..

उत्तराखंड:  सरकार मेडिकल इमरजेंसी में पूरी तरह से फेल हो गयी है। लाकडाउन समाधान नहीं है। प्रदेश में हर 20 मिनट में एक कोरोना मरीज दम तोड़ रहा है। आधे से अधिक मरीजों की मौत पैनिक अटैक के कारण हो रही है। हर कोई घर में आक्सीजन सिलेंडर चाहता है, बिना यह जाने की इसके इस्तेमाल की सही जानकारी न होने पर मरीज की मौत हो सकती है। हर कोई रेमडेेसिविर का इंजेक्शन चाहता है। आईसीयू बेड चाहता है। आक्सीजन चाहता है, लेकिन कितनों को मिल रही है? सरकार के पास इस महामारी से बचने के लिए कोई प्लान नहीं है। कैबिनेट में जो फैसले लिए जा रहे हैं वो केंद्र की नकल मात्र हैं। कहीं नहीं दिख रहा है कि सरकार ने इमरजेंसी मैनेजमेंट किया हो। 90 प्रतिशत लोगों में इस बात को लेकर घबराहट है कि दवाएं नहीं मिल रही है, आक्सीजन सेचुरियेशन घट रहा है। सिस्टम फेलयोर होने की इस स्थिति पर क्षोभ, गुस्सा और रोना आ रहा है।

 

यह मेडिकल इमरजेंसी का समय है। युद्ध की तर्ज पर इलाज की रणनीति की जरूरत है। ऐसे समय में सचिवालय बंद हे। नौकरशाहों के मोबाइल बंद हैं। नेता दूर-दूर हैं। रोज नई गाइडलाइन आ जाती है लेकिन पालन कराएगा कौन? कोरोना बीमारी से कहीं अधिक लोगों में कोरोना का पैनिक है। 90 प्रतिशत कोरोना मरीजों को यदि दवाएं मिल जाएं तो पैनिक नहीं होगा। ये पैनिक दूर कौन करेगा? सरकार को पहल करनी चाहिए। स्वास्थ्य सचिव या स्वास्थ्य महानिदेशक की रोज प्रेस ब्रीफिंग होनी चाहिए थी। इसमें वास्तविक स्थिति बतानी चाहिए। मंत्री, विधायक, पार्षद, बीडीसी सदस्य, पंचायत सदस्य और ग्राम प्रधान की भूमिका तय होनी चाहिए थी।

 

सरकार विदेश दौरे के लिए भी समिति बनाकर दो-तीन मंत्रियों और नेताओं को सरकारी खर्च पर भेजने के तरीके ढूंढ लेती है तो क्या यह नहीं हो सकता कि आपातकाल में मंत्रियों की उपसमिति बनायी जाती। स्वास्थ्य सचिव समेत तीन नौकरशाहों को शिफ्टवाइज 24 घंटे जनता के लिए उपलब्ध कराया जाता। डाक्टरों का एक पैनल बनता जो जनता को सोशल मीडिया से संदेश देते कि क्या करें और क्या न करें। कोराना लक्षण मिलने पर क्या दवाई लें। सोशल मीडिया पर कोरोना की दवाएं लिख दी जाती तो भी आधी समस्या का समाधान हो जाता। केवल गंभीर मरीज ही अस्पतालों तक पहुंचते। ये दवाओं की कालाबाजारी क्यों नहीं रुक रही? क्या रेमडेसिविर इंजेक्शन का विकल्प नहीं है? दो रुपये की डेक्थामेकासोन को इसका विकल्प माना जा रहा है। ये बताएगा कौन? डाक्टर, लेकिन सरकार तो डाक्टरों से पूछ ही नहीं रही कि क्या करें?

 

उत्तराखंड देश के सबसे अधिक साक्षर प्रदेशों में शुमार है। इसके बावजूद यहां की किस्मत में अधिकांश अनपढ़ टाइप नेता और अधिकांश थर्ड क्लास अफसर लिखे हैं। हम इन गधे नेताओं को चुनते हैं और आज कोरोना काल में ये हमारे लिए भस्मासुर बन गये हैं। और बेचो, 500 रुपये और दारू मुर्गे में अपना वोट। मतदाताओं का अति राष्ट्रवाद, कैडर वोटिंग और निष्ठा बिकना ही इस सिस्टम के लिए जिम्मेदार है। ये नेता अपना इलाज कराने एम्स दिल्ली, मेदांता गुड़गांव भाग जाते हैं और यहां हजारों मरीज दवा, बेड और आक्सीजन के लिए तरस रहे हैं। नेता न दवाओं की कालाबाजारी रोक पा रहे हैं न मरीजों को इलाज के लिए व्यवस्था करा पा रहे हैं। मरीज के दाखिले और इलाज में निजी संबंध काम आ रहे हैं। लोगों को अब खुद ही बीमारी से बचना होगा। सामाजिक, धार्मिक और अन्य संस्थाओं को अब आगे आना होगा। हमें एक-दूसरे की मदद खुद करनी है। सरकार पर निर्भर रहना सही नहीं। जनभागीदारी और जन-जागरूकता जरूरी है।

 

 

 

 

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