उत्तराखंड

गैरसैण से ऐसी “दिल्लगी” ठीक नहीं

योगेश भट्ट (Yogesh Bhatt)
जब नेता ‘बहरूपिये’, अफसर ‘मौकापरस्त’ और जनता ‘मूर्ख’ हो जाए तो राजधानी के सवाल का स्थायी हल मिलना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन है । गैरसैण(gairsain) के मुद्दे पर हालात यही हैं । सरकारों की गैरसैण(gairsain) से ‘दिल्लगी’ आज उन प्रवासियों की तरह है, जिनके लिये उनका गांव सिर्फ गर्मियों की चंद छुट्टियां बिताने या फिर देवी देवताओं की पूजा में शामिल होने भर के लिये है। सरकारें चाहती तो गैरसैण(gairsain) भी आंध्राप्रदेश के अमरावती की तरह स्थायी राजधानी घोषित हो चुकी होती, लेकिन यहां सरकारों ने यह चाहा ही नहीं। अब तो प्रचंड बहुमत की सरकार भी गैरसैण में ‘आग ताप’ कर ‘हाथ झाड़कर’ लौट आयी है।

हां, अब एक बात जरूर साफ है कि कांग्रेस और भाजपा की सरकारें तो गैरसैण(gairsain) को स्थायी राजधानी न कभी बनायेंगी और न बनने देंगी । जो माहौल पिछली हरीश सरकार ने तैयार किया मौजूदा त्रिवेंद्र सरकार भी उसी को आगे बढा रही है, देखा जाए तो अब यह हर सरकार की मजबूरी भी है। लेकिन आने वाले समय में हद से हद कुछ अधिक हुआ भी, तो गैरसैण सिर्फ ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित कर दी जाएगी । तय मानिये गैरसैण ग्रीष्मकालीन राजधानी होने का मतलब है उत्तराखंड की भविष्य की संभावनाओं का दम तोड़ना, पहाड की राजधानी पहाड़ में होने के सपने का टूटना। ग्रीष्मकालीन राजधानी की घोषणा के बाद उत्तराखंड की स्थायी राजधानी गैरसैण होने का तो सवाल ही नहीं उठता, यह प्रस्ताव तो गैरसैण को राजधानी बनाने से टालने की बडी कोशिश है । सच यह है कि आज जो हालात राज्य के हैं, उसमें हर समस्या का एकमात्र समाधान सिर्फ और सिर्फ स्थायी राजधानी गैरसैण ही है।

पहाड़ की राजधानी पहाड़ में पहुंचाकर ही इस प्रदेश को बचा पाना संभव है, वरना देहरादून में बैठकर इस प्रदेश को राजनेता, नौकरशाह और सत्ता के बिचौलिये ‘खोखला’ कर चुके हैं । यह गठजोड़ किसी कीमत पर नहीं चाहता कि गैरसैण(gairsain) स्थायी राजधानी बने । दुर्भाग्य यह है कि नेता ‘बहरूपिये’ हैं, जब सरकार में होते हैं तो ग्रीष्मकालीन राजधानी का ‘झुनझुना’ बजाते हैं और जब विपक्ष में होते हैं तो तब गैरसैण को स्थायी राजधानी घोषित करने की बात करते हैं। विपक्ष में होते हैं तो गैरसैण को राजधानी घोषित करने का प्रस्ताव लाते हैं । वही नेता जब सरकार में आते हैं तो पार्टी के घोषणा पत्र का राग अलापते हैं या मुंह में ‘दही’ जमाकर बैठे होते हैँ। कुछ तो इतने शातिर हैं कि कैमरे के आगे गैरसैण को जनभावनाओं का प्रतीक बताते हैं, जन भावनाओं के सम्मान की बात करते हैं और अपनी सियासी जमीन पर गैरसैण का विरोध करते हैं।

सार्वजनिक मंचों पर पहाड़ की राजधानी पहाड में होने की जरूरत बताते हैं और बंद कमरों की बैठकों में इस फैसले के सियासी नफा नुकसान गिनाते हैं।.. राज्य के भाग्यविधाता अफसरों का तो कहना ही क्या, वह तो इसी में सिद्धहस्त हैं कि कैसे असल ‘मुद्दे’ को ‘हवा’ किया जाए। गैरसैण(gairsain) के मुद्दे पर नेता एक बार के लिए ‘जनभावना’ के आगे घुटने टेक भी लें, लेकिन नौकरशाह किसी हाल में इसके लिए तैयार नही। और जब उन पर कसी ‘राजनैतिक लगाम’ कमजोर हो तो फिर तो कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती। यह भी कैसे भूला जा सकता है कि जो ‘झुनझुना’ आज सरकारें बजा रही है, असल में तो वह भी नौकरशाहों का ही थमाया हुआ है। उन्हें नहीं फर्क पडता कि प्रदेश पांच हजार करोड़ के कर्ज में हैं, उन्हें यह भी चिंता नहीं कि अदना सा राज्य दो दो राजधानियों का बोझ कैसे झेलेगा ।

उन्हें नहीं है यह फिक्र कि इसमें पैसे की और समय की कितनी बर्बादी होगी । उन्हें इससे भी कोई सरोकार नहीं है कि गैरसैण(gairsain) राजधानी बनने से ही राज्य की मूल अवधारणा साकार होगी। नौकरशाही का नजरिया बिल्कुल अलग है, उनके लिये तो दो राजधानी बनने के बाद ‘खेलने’ की नयी संभावनाएं जन्म लेंगी । उनकी ‘पूछ’ और सिस्टम की उन पर निर्भरता और बढ़ेगी। अब रहा सवाल जनता का तो बकौल मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिहं रावत सरकार ने गैरसैण में शीतकालीन सत्र आयोजित कर बहुत बडा काम किया है, चौतरफा इसकी प्रशंसा हो रही है। मुख्यमंत्री की यह बात अगर सच है तो फिर जनता तो मूर्ख है ? वाकई जनता ‘मूर्ख’ न होती तो ग्रीष्मकालीन राजधानी के प्रस्ताव पर यूं चुप बैठती । सच्चाई यह है कि मुख्यमंत्री गैरसैण(gairsain) के मसले पर जिस ‘इंतजार’ की बात कर रहे हैं, वह इंतजार जनता के ‘रुख’ का ही है।

जहां तक गैरसैण(gairsain) को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने का सवाल है तो यह काम तो हरीश सरकार ही कर चुकी होती, लेकिन हरीश सरकार जनता के ‘रुख’ को लेकर आशंकित रही । उस वक्त भाजपा ने भी इसका विरोध किया लेकिन अब नयी सरकार इसी के लिये माहौल तैयार कर रही है । यानि साफ है कि यह सरकार गैरसैण(gairsain) के मुद्दे पर ‘माइंड गेम’ खेल रही है । कहीं ऐसा न हो कि आम जनता की समझ में जब तक यह खेल आए, तब तक बहुत देर हो चुकी हो। यह सही है कि गैरसैण(gairsain) को नजरअंदाज करना अब किसी सरकार के बूते की बात नहीं, लेकिन अगर सरकार अपने मंसूबों में कामयाब हुई तो गैरसैण(gairsain) हमेशा के लिये एक ‘अधूरी कहानी’ बन जाएगा । बहरहाल सरकारों की ‘दिल्लगी’ के बाद अब गैरसैण(gairsain) की गेंद जनता के पाले में है । समय की मांग भी है कि अब राज्य की ‘नयी’ शुरुआत गैरसैण राजधानी के नाम से शुरू की जाए । उत्तराखंड में अगर विकास की इबारत लिखी जा रही है तो आल वेदर रोड और ऋषिकेश कर्णप्रयाग रेल लाइन के साथ साथ गैरसैण(gairsain) राज्य की स्थायी राजधानी क्यों नहीं हो सकती ? यह संभव है, बशर्ते जनभावनाएं हो और उन्हें पूरा करने की मजबूत राजनैतिक इच्छाशक्ति हो ।

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