उत्तराखंड

आखिर जनता की क्यो नहीं सुनती सरकारें

-चारु तिवारी

उत्तराखंड फिर सुलग रहा है। इस बार आवाज आ रही है सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ से। पंचेश्वर बांध को लेकर। टिहरी बांध के विस्थापितों की करुण कहानी अभी थमी नहीं है कि नेपाल की सीमा से लगे सीमान्त पिथौरागढ़ जनपद में बनने वाले पंचेश्वर बांध के विस्थापन की त्रासदी का रास्ता तैयार किया जाने लगा है। 315 मीटर ऊंचे बनने वाले इस बांध की क्षमता 6480 मेगावाट है। इस बांध ने भारत सरकार के उस नारे की भी पोल खोल दी जिसमें वह भविष्य में बड़े बांध न बनाये जाने की बात कर रही थी। पंचेश्वर बांध परियोजना भारत-नेपाल सीमा पर बहने वाली महाकाली नदी पर उत्तराखंड के चंपावत जनपद और नेपाल के बैतड़ी जनपद के तल्ला सौराड़ क्षेत्र की सीमा पर प्रस्तावित है। जिस स्थल पर यह बनना है उसकी ऊंचाई समुद्र सतह से 430 मीटर है। जिस ऊंचाई पर 315 मीटर ऊंचा बांध बनने का अर्थ है पिथौरागढ़ जनपद से इस जलराशि में जाने वाली चार नदियों काली, सरयू, पनार और रामगंगा पर इसका असर पड़ेगा। काली नदी में धारचूला तक, सरयू में सेराघाट तक, पनार में सिमखेत तथा रामगंगा में थल तक का तटीय क्षेत्र डूब जायेगा। इस कारण भारत के 145 गांवों के सात हजार से अधिक परिवारों और चालीस हजार से अधिक की जनसंख्या को विस्थापन का दंश झेलना पड़ेगा। नेपाल के साठ गांवों की बीस हजार से अधिक आबादी विस्थापित होगी। पंचेश्वर बांध की जद में पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, बागेश्वर और चंपावत जनपद आने वाले हैं। इससे इन जिलों की 9100 हेक्टेयर भूमि प्रभावित होगी। बागेश्वर के लिये लंबे समय जनता की रेलवे लाइन की मांग भी हमेशा के लिये समाप्त हो जायेगी। इस बांध के विरोध में जनता सड़कों पर है। सरकार हमेशा की तरह जनसुनवाइयों के माध्यम से पूरे मामाले को दूसरी दिशा में मोड़ने का काम कर रही है। जलविद्युत परियोजनाओं के बारे में हमारे अनुभव कभी अच्छे नहीं रहे। पंचेश्वर बांध के सवाल को और प्रखरता से रखे जाने की जरूरत है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि जब लड़ाई जब विस्थापन या मुआवजे पर आयेगी तो हम लड़ाई हार जायेंगे। इसलिये बांध को निरस्त करने की लड़ाई लड़ी जानी चाहिये। इसके लिये बांधों के पुराने अनुभवों को समझना जरूरी है।

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि इस पहाड़ी राज्य में जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माण और इसे बिजली प्रदेश बनाने का सपना यहां की जनता की बेहतरी के लिए नहीं है। इस पूरी परिकल्पना के पीछे विकास के नाम पर एक बेहद शातिराना मुहिम चल रही है। सत्तर के दशक में टिहरी बांध के बाद विकास का यह दैत्याकार मॉडल लगातार यहां के लोगों को लील रहा है। प्राकृतिक धरोहरों के बीच रहने वाली जनता को लगातार उससे दूर करने की साजिश और इसे बड़े इजारेदारों को सौंपने की सरकारी नीतियां हिमालय के लिए बड़ा खतरा हैं। यह सवाल तब और महत्त्वपूर्ण हो जाता है जब राज्य के विभिन्न हिस्सों में बांधों के खिलाफ लगातार जनआंदोलन चल रहे हैं। पिछले दिनों पिंडर पर बांध न बनाने को लेकर जबर्दस्त आंदोलन हुआ है और केदार घाटी में जनता ने नारा दिया है सर दे देंगे, लेकिन ‘सेरा’ (बड़े सिंचित खेत) नहीं देंगे। प्रशासन लगातार आंदोलनकारियों को जेल में डालता रहा है। कई स्थानों पर अभी भी लोग जनसुनवाइयों में बांधों का जमकर विरोध कर रहे हैं।

विकास के नाम पर लोगों को बरगलाने का सिलसिला बहुत पुराना है। टिहरी बांध के विरोध में स्थानीय लोगों ने लंबी लड़ाई लड़ी। आखिर सरकार की जिद और विकास के छलावे ने एक संस्कृति और समाज को डुबो दिया। राज्य में प्रस्तावित सैकड़ों जलविद्युत परियोजनाओं से पूरा पहाड़ खतरे में है। इनसे निकलने वाली सैकड़ों किलोमीटर की सुरंगों से गांव के गांव खतरे में हैं। कई परियोजनाओं के खिलाफ लोग सड़कों पर हैं। बांध निर्माण कंपनियों का सरकार की शह पर मनमाना रवैया जारी है। जिन स्थानों पर जनसुनवाई होनी है, वहां जनता के खिलाफ बांध कंपनियों और स्थानीय प्रशासन की मिलीभगत से भय का वातावरण बनाया गया है। राज्य की तमाम नदियों पर बन रही सुरंग-आधारित परियोजनाओं से कई गांव मौत के साये में जी रहे हैं। सरकार ने चमोली जनपद के चाईं गांव और तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना की सुरंग से रिसने वाले पानी से भी सबक नहीं लिया। यहां सुरंग से भारी मात्रा में निकलने वाले पानी से पौराणिक शहर जोशीमठ के अस्तित्व को खतरा है। चमोली जनपद के छह गांव पहले ही जमींदोज हो चुके हैं। तीन दर्जन से अधिक गांव इन सुरंगों के कारण कभी भी धंस सकते हैं। बागेश्वर जनपद में कपकोट में सरयू पर बन रहे बांध की सुरंग से 2010 में सुमगढ़ में मची भारी तबाही में 18 बच्चे मौत के मुंह में समा गए थे। भागीरथी पर बन रहे बांधों के खतरे सबके सामने हैं। टिहरी का जलस्तर बढऩे से कई गांव मौत के साये में जी रहे हैं। बावजूद इसके आंखें बंद कर राज्य को बिजली प्रदेश बनाने की जिद में बांध परियोजनाओं को जायज ठहराने की जो मुहिम चली है वह पहाड़ को बड़े विनाश की ओर ले जा सकती है। अब पूरे मामले को छोटे और बड़े बांधों के नाम पर उलझाया जा रहा है। असल में बांधों का सवाल बड़ा या छोटा नहीं है, बल्कि सबसे पहले इससे प्रभावित होने वाली जनता के हितों का है।

पिछले चालीस वर्षों से जलविद्युत परियोजनाओं का विरोध कर रही जनता की इन सरकारों ने नहीं सुनी। लंबे समय तक टिहरी बांध विरोधी संघर्ष की आवाज को अगर समय रहते सुन लिया गया होता तो आज पहाड़ों को छेदने वाली इन विनाशकारी जलविद्युत परियोजनाओं की बात आगे नहीं बढ़ी होती। पहाड़ में बन रही तमाम छोटी-बड़ी जलविद्युत परियोजनायें यहां के लोगों को नेस्तनाबूत करने वाली हैं। जलविद्युत परियोजनाओं के खिलाफ मुखर हुई आवाज नई नहीं है। भागीरथी और भिलंगना पर प्रस्तावित सभी परियोजनाओं के खिलाफ समय-समय पर लोग सड़कों पर आते रहे हैं। लोहारी-नागपाला से फलेंडा और पिंडर पर बन रहे तीन बांधों के खिलाफ जनता सड़कों पर है। इस बीच जो सबसे बड़ा परिवर्तन आया है, वह है सरकार और बांध निर्माण कंपनियों का जनता को बांटने का षडय़ंत्र। इसके चलते मौजूदा समय में पूरा पहाड़ समर्थन और विरोध में सुलग रहा है। केंद्र और राज्य सरकार के बीच एक ऐसा अघोषित समझौता है जिसके तहत वह न तो इन परियोजनाओं के बारे में कोई नीति बनाना चाहते हैं और न ही बिजली प्रदेश बनाने की जिद में स्थानीय लोगों के हितों की परवाह करते हैं। इसे इस बात से समझा जा सकता है कि यदि इन सरकारों की चली तो पहाड़ में 558 छोटे-बड़े बांध बनेंगे। इनमें से लगभग 1500 किलोमीटर की सुरंगें निकलेंगी। एक अनुमान के अनुसार अगर ऐसा होता है तो लगभग 28 लाख आबादी इन सुरंगों के ऊपर होगी। यह एक मोटा अनुमान सिर्फ प्रस्तावित बांध परियोजनाओं के बारे में है। इससे होने वाले विस्थापन, पर्यावरणीय और भूगर्भीय खतरों की बात अलग है।

मौजूदा समय में एक नई बात छोटी और बड़ी परियोजना के नाम पर चलाई जा रही है। बताया जा रहा है कि पहाड़ में बड़े बांध नहीं बनने चाहिए। इन्हें ‘रन ऑफ द रीवर’ बनाया जा रहा है, इसलिए इसका विरोध ठीक नहीं है। लेकिन यह सच नहीं है। उत्तराखंड में बन रही लगभग सभी परियोजनायें तकनीकी भाषा में भले ही ‘रन ऑफ द रीवर’ बतायी जा रही हों या उनकी ऊंचाई और क्षमता के आधार पर उन्हें छोटा बताया जा रहा हो, लेकिन ये सब बड़े बांध हैं। सभी परियोजनायें सुरंग आधारित हैं। सभी में किसी न किसी रूप में गांवों की जनता प्रभावित हो रही है। कई गांव तो ऐसे हैं जो छोटी परियोजनाओं के नाम पर अपनी जमीन तो औने-पौने दामों में गंवा बैठते हैं, लेकिन वे विस्थापन या प्रभावित की श्रेणी में नहीं आते हैं। जब सुंरग से उनके घर-आंगन दरकते हैं तो उन्हें मुआवजा तक नहीं मिलता, जान-माल की तो बात ही दूर है। सरकार और परियोजना समर्थकों की सच्चाई को जानने के लिए कुछ परियोजनाओं का जिक्र करना जरूरी है।

जिस लोहारी-नागपाला को लेकर पिछले वर्षो में विवाद होता रहा और फिलहाल वह बंद है। उसे ‘रन ऑफ द रीवर’ का नाम दिया गया। इसमें विस्थापन की बात को भी नकारा गया। स्थानीय लोगों ने तब भी इसका विरोध किया था, लेकिन उनकी किसी ने नहीं सुनी। यह परियोजना 600 मेगावाट की है। इसमें 13 किलोमीटर सुरंग है। भागीरथी पर ऐसे 10 और बांध हैं। इनमें टिहरी की दोनों परियोजनाओं और कोटेश्वर को छोड़ दिया जाये तो अन्य भी बड़े बांधों से कम नहीं हैं। इनमें करमोली हाइड्रो प्रोजेक्ट 140 मेगावाट की है। इसके सुरंग की लंबाई आठ किलोमीटर से अधिक है। जदगंगा हाइड्रो प्रोजेक्ट 60 मेगावाट की है। इसकी सुरंग 11 किलोमीटर है। 381 मेगावाट की भैरोघाटी परियोजना जिसे सरकार ने निरस्त किया है, उसके सुरंग की लंबाई 13 किलोमीटर है। मनेरी भाली प्रथम 90 मेगावाट क्षमता की रन ऑफ द रीवर परियोजना है। यह 1984 में प्रस्तावित हुई। इसे आठ किलोमीटर सुरंग में डाला गया है। इसका पावर हाउस तिलोय में है। इस सुरंग की वजह से भागीरथी नदी उत्तरकाशी से मनेरी भाली तक 14 किलोमीटर तक अपने अस्तित्व को छटपटा रही है। इसके बाद भागीरथी को मनेरी भाली द्वितीय परियोजना की सुरंग में कैद होना पड़ता है। 304 मेगावाट की इस परियोजना की सुरंग 16 किलोमीटर लंबी है। इसके बाद टिहरी 1000 मेगावाट की दो और 400 मेगावाट की कोटेश्वर परियोजना है। आगे कोटली भेल परियोजना 195 मेगावाट की है। इसमें भी 0.27 किलोमीटर सुरंग है।

गंगा की प्रमुख सहायक नदी अलकनंदा पर दर्जनों बांध प्रस्तावित हैं। इन्हें भी रन ऑफ द रीवर के नाम से प्रस्तावित किया गया। इस समय यहां नौ परियोजनाएं हैं। इनमे 300 मेगावाट की अलकनंदा हाइड्रो प्रोजेक्ट से 2.95 किलोमीटर की सुरंग निकाली गई है। 400 मेगावाट की विष्णुगाड़ परियोजना की सुरंग की लंबाई 11 किलोमीटर है। लामबगड़ में बनी इसकी झील से सुरंग चाईं गांव के नीचे खुलती है जहां इसका पावर हाउस बना है। यह गांव इसके टरबाइनों के घूमने से जमींदोज हो चुका है। लामबगढ़ से चाईं गांव तक नदी का अता-पता नहीं है। तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना इस समय सबसे संवेदनशील है। इस परियोजना की क्षमता 520 मेगावाट है। इससे निकलने वाली सुरंग की लंबाई 11.646 किलोमीटर है। यह ऐतिहासिक और सांस्कृतिक शहर जोशीमठ के नीचे से जा रही है। इससे आगे 444 मेगावाट विष्णुगाड़-पीपलकोटी परियोजना है। इससे 13.4 किलोमीटर सुरंग निकली है। 300 मेगावाट की बोवाला-नंदप्रयाग परियोजना से 10.246 किलोमीटर की सुरंग से गुजरेगी। नंदप्रयाग-लंगासू हाइड्रो प्रोजेक्ट 100 मेगावाट की है। इसमें पांच किलोमीटर से लंबी सुरंग बननी है। 700 मेगावाट की उज्सू हाइड्रो प्रोजेक्ट की सुरंग की लंबाई 20 किलोमीटर है। श्रीनगर हाइड्रो प्राजेक्ट जिसे पूरी तरह रन ऑफ द रीवर बताया जा रहा था उसकी सुरंग की लंबाई 3.93 किलोमीटर है। यह परियोजना 320 मेगावाट की है। अलकनंदा पर ही बनने वाली कोटली भेल- प्रथम बी 320 मेगावाट की परियोजना है। यह भी सुरंग आधारित परियोजना है। गंगा पर बनने वाली कोटली भेल-द्वितीय 530 मेगावाट की है। इसकी सुरंग 0.5 किलोमीटर है। चिल्ला परियोजना 144 मेगावाट की है, इसमें से 14.3 किलोमीटर सुरंग बनेगी।

जलविद्युत परियोजनाओं की सुरंगों के ये आंकड़े केवल भागीरथी और अलकनंदा पर बनने वाले बांधों के हैं। इसके अलावा सरयू, काली, शारदा, रामगंगा, पिंडर आदि पर प्रस्तावित सैकड़ों बांधों और उनकी सुरंगों से एक बड़ी आबादी प्रभावित होनी है। अब सरकार और विकास समर्थक इसके प्रभावों को नकार रहे हैं। उनका कहना है कि पर्यावरणीय प्रभाव और आस्था के सवाल पर विकास नहीं रुकना चाहिए। असल में यह तर्क ही गलत है। जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण का विरोध पर्यावरण और आस्था से बड़ा स्थानीय लोगों को बचाने का है। पिछले चार दशक से नदियों को बचाने से लेकर अपने खेत-खलिहानों की हिफाजत के लिए जनता सड़कों पर आती रही है। जिस तरह इस बात को प्रचारित किया जा जाता रहा है कि इन बांध परियोजनाओं की शुरुआत में लोग नहीं बोले, यह गलत है। लोहारी-नागपाला के प्रारंभिक दौर से ही गांव के लोग इसके खिलाफ हैं। भुवन चंद्र खंडूड़ी के मुख्यमंत्रित्वकाल में लोहारी-नागपाला के लोगों ने उसका काली पट्टी बांधकर विरोध किया था। श्रीनगर परियोजना में भी महिलाओं ने दो महीने तक धरना-प्रदर्शन कर कंपनी की नींद उड़ा दी थी। लोहारी-नागपाला परियोजना क्षेत्र भूकंप के अतिसंवेदनशील जोन में आता है, जहां बांध का निर्माण पर्यावरणीय दृष्टि से कतई उचित नहीं है। विस्फोटकों के प्रयोग से तपोवन-विष्णुगाड़ जल विद्युत परियोजना में चाईं गांव विकास के नाम पर विनाश को झेल रहा है। यहां के लोगों ने 1998-99 से ही इसका विरोध किया था, लेकिन जेपी कंपनी धनबल से शासन-प्रशासन को अपने साथ खड़े करने में सफल रही। आठ साल बाद 2007 में चाईं गांव की सड़कें कई जगह से ध्वस्त हो गईं। मलबा नालों में गिरने लगा, जिससे जल निकासी रुकने से गांव के कई हिस्सों का कटाव और धंसाव होने लगा। गांव के पेड़, खेत, गौशाला और मकान भी धंस गए। करीब 50 मकान पूर्ण या आंशिक रूप से ध्वस्त हुए तथा 1000 नाली जमीन बेकार हो गई। 520 मेगावाट वाली तपोवन-विष्णुगाड़ जल विद्युत परियोजना का कार्य उत्तराखंड सरकार और एनटीपीसी के समझौते के बाद 2002 में प्रारंभ किया गया, जिसमें तपोवन से लेकर अणमठ तक जोशीमठ के गर्भ से होकर सुरंग बननी है। निर्माणाधीन सुरंग से 25 दिसंबर 2009 से अचानक 600 लीटर प्रति सेकेंड के वेग से पानी का निकलना कंपनी के पक्ष में भूगर्भीय विश्लेषण की पोल खोलता है। इस क्षेत्र में विरोध करने वालों पर अनेक मुकदमे दायर किए गए हैं।

चिपको आंदोलन की प्रणेता गौरा देवी के गांव रैणी के नीचे भी टनल बनाना महान आंदोलन की तौहीन है। वर्षों पहले रैणी महिला मंगल दल ने परियोजना क्षेत्र में पौधे लगाये थे। परियोजना तक सड़क ले जाने में 200 पेड़ काटे गए और मुआवजा वन विभाग को दे दिया गया। पेड़ लगाने वाले लोगों को पता भी नहीं चला कि कब ठेका हुआ। गौरा देवी की निकट सहयोगी गोमती देवी का कहना है कि पैसे के आगे सब बिक गया। रैणी से छह किमी दूर लाता में एनटीपीसी द्वारा प्रारंभ की जा रही परियोजना में सुरंग बनाने का गांववालों ने पुरजोर विरोध किया। मलारी गांव में भी मलारी झेलम नाम से टीएचडीसी की विद्युत परियोजना चल रही है। मलारी ममंद ने कंपनी को गांव में नहीं घुसने दिया। परियोजना के बोर्ड को उखाड़कर फेंक दिया। प्रत्युत्तर में कंपनी ने कुछ लोगों पर मुकदमे दायर किए हैं। इसके अलावा गमशाली, धौलीगंगा और उसकी सहायक नदियों में पीपलकोटी, जुम्मा, भिमुडार, काकभुसंडी, द्रोणांगिरी में प्रस्तावित परियोजनाओं में जनता का प्रबल विरोध है। पिंडर नदी में प्रस्तावित तीन बांधों के खिलाफ फिलहाल जनता वही लड़ाई लड़ रही है।

बांध परियोजनाओं के आलोक में पंचेश्वर बांध को नये सिरे से देखे जाने की जरूरत है। पंचेश्वर के तमाम पहलुओं को जनता को बताना होगा। यह भी कि यह हमारी सांस्कृतिक, सामाजिक, पार्यावरणीय और हमारे अस्तित्व के साथ किस तरह जड़ा हुआ है। पंचेश्वर बांध का मतलब है हमें अपनी जमीन से उजाड़े जाने का षडयंत्र। यह ऐसा षडयंत्र है, जिसे हमारी व्यवस्था ने ही जन्म दिया। इस विस्थापन की कहानी के किरदार हमारे प्रतिनिनिधि हैं। सरकारें हमारे अस्तित्व, हमारी अस्मिता, हमारे स्वाभिमान, हमारे भविष्य का सौदा किस तरह करती है इसका उदाहरण नेपाल-भारत के बीच जलविद्युत परियोजनाओं को लेकर बनी समितियों का है, जिसमें हमारे प्रतिनिधि शामिल होते रहे हैं। उत्तराखंड सरकार ने तो उसके लिये अलग से विंग ही बना दी थी। इसका परिणाम यह हुआ कि हमारे प्रतिनिधियों ने हमारे विस्थापन का सौदा किया। पंचेश्वर के बहाने अगर अस्तित्व को बचाने की लड़ाई आगे बढ़ती है तो यह उत्तराखंड के पूरे परिदृश्य को बदल सकती है।

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