उत्तराखंड

“याद राली टिहरी” में छलका पहाड़ का दर्द

दीपक बेंजवाल 

विकास की बलिवेदी पर टिहरी डूबा दी गयी और डूबा दी गयी पहाड़ के दो लाख लोगो की पहचान, आत्मसम्मान और अपनी मातृभूमि का स्नेह, प्यार समर्पण भी। जिस माटी में पहाड़ की कई पीढियो ने जन्म लिया, जिस माटी ने उन्हे लाड दुलार से पाला पोसा आज उसी को उनके वाशिदो से छीन लिया गया। जनता विरोध करती रही, चीखती चिल्लाती रही लेकिन उनकी गुहार अनसुनी कर दी गयी। और केवल टिहरी के साथ ही यह सब नही रूका बल्कि आजादी के बाद और राज्य बनने के बाद भी पहाड़ के लोगो की जनभावनाओ को लगातार दरकिनार किया जा रहा है। विकास की दुहाईया देकर पहाड़ के असतित्व को मिटाने पर तुले तमाम सवालो को लेकर केदारघाटी की त्रैमासिक पत्रिका ” दस्तक” द्वारा याद आली टिहरी का आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम में टिहरी पर डाक्यूमेन्ट्री के माध्यम से उसके दर्द को बया किया गया साथ ही पहाड़ में बनी रही उन तमाम जनविरोधी परियोजनाओ पर भी चिन्ता जाहिर की गयी जिससे पहाड़ का जनजीवन प्रभावित हो रहा है।

28 दिसम्बर 1815 को गढ़वाल राज्य की राजधानी बनी टिहरी पहाड़ के इतिहास, संस्कृति और नवोन्मेषी परंपराओ की जीवंत नगरी के रूप में जानी जाती रही है, एशिया के सबसे बड़े बाँध के साथ 70 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में 20 हजार हेक्टेयर भूमि, 125 गाँव, 462 पेड़ पौधो को इसमे जलसमाधि दे दी गयी। इसमे तकरीबन 2 लाख लोग भी विस्थापित हुऐ, विकास के लिऐ टिहरी का यह बलिदान सदा सदा के लिऐ अमर हो गया। बावजूद टिहरी को देखने, समझने और उसे जीने वाले उन लाखो लोगो के लिऐ आज भी वह दिलो में जिंदा है। टिहरी की उसी जिंदादिली को याद करने के लिऐ दस्तक पत्रिका परिवार द्वारा अगस्त्यमुनि में यह आयोजन किया गया है। डाक्यूमेट्री, फोटो प्रदर्शनी और टिहरी को जीने वाले लोगो के साथ संवाद की इस पहल ने आमजन को इस डूबी विरासत से रूबरू करवाया।

टिहरी की याद को साझा करते हुऐ टिहरी के वाशिदे काली चरण रावत ने बताया टिहरी बाध से मे केवल एक नगर ही नही डूबा एक पूरी सभ्यता, इतिहास, संस्कृति भी जलमग्न हुई है। जिसके एवज में टिहरी के लोगो को जिदंगी भर के लिऐ विस्थापित होने का तमगा मिल गया है। अब इस तमगे के साथ हम और हमारी पीढी अब हमेशा के लिऐ अपनी पहचान से मरहूम हो गयी है।

टिहरी के पूर्व मूल निवासी शिक्षाविद गंगाराम सकलानी ने टिहरी को याद करते हुऐ कहा कि आजाद भारत मे टिहरी पहाड़ का पहला सुनियोजित नगर था जहा मूलभूत सुविधाओ की बसागत सफल तरीके से हुई। राजशाही के दौर में टिहरी ने पूरे पहाड़ को एक सूत्र से बाँधा। उनके पूर्वज टिहरी की सकलाना पट्टी से थे जिन्होने राजशाही के दौर में विद्ववता का डंका बजाया था। इसलिऐ सकलाना मुआफीदार पट्टी थी।

कामरेड मदन मोहन चमोली ने कहा कि एक भरीपूरी सभ्यता कच डूबाने की समझ विकास के लिऐ कैसे हो सकती है। जनता अपने जल जंगल जमीन को बचाने के लिऐ प्रतिरोध करती है इसे समझा जाना चाहिऐ।

साहित्यकार और उत्तराखण्ड आदोलन मे सक्रिय रहे गिरिश बेंजवाल ने जनभावनाओ पर सरकार की उपेक्षा का सवाल उठाते हुऐ कहा कि पहाड़ की जनता ऐसे विकास को झेल रही जो उसके असतित्व को लगातार समाप्त कर रही है। उसकी आवाज को लगातार नजरदांज किया जा रहा है।

जनसरोकारो की बात रखने वाले युवा दीपक भट्ट ने टिहरी के इतिहास पर प्रकाश डालते हुऐ कहा कि राजसी पहचान के साथ टिहरी साझी संस्कृति का भी शहर था जहा विभिन्न जाति धर्म के लोग सदभाव से रहते थे। टिहरी जनादोलनो की धरती भी थी। श्रीदेव सुमन, नागेन्द्र सकलानी की शहादत भी टिहरी के इतिहास की कर्ति थी। टिहरी को जीने वालो ने उसे अपनी मा समझा और उसी प्यार से जिया।

शिक्षाविद माधव सिह नेगी ने कहा टिहरी के बहाने सवाल पहाड़ के असतित्व का है। आज पहाड़ को बचाना जरूरी हो गया है। पहाड़ के सभी बुद्धिजिवयो को सोचना होगा कि योजनाऐ पहाड़ की जनता की सहूलियत के लिऐ भी हो न कि केवल उसे बेघर करने के लिऐ।

संस्कृतिकर्मी और लोककवि सुधीर बर्त्वाल ने कहा आज प्रतिरोध के स्वर बहुत धीमे हो गये है। हमे कैसा विकास चाहिऐ इसके लिऐ सोचना हमारी जिम्मेदारी है। जिसके लिऐ संगठित होना जरूरी है।

प्रकृति संस्था के संस्थापक गजेन्द्र रौतेला ने इस पूरे आयोजन को टिहरी को समर्पित करते हुऐ कहा कि एक नगर के रूप मे उसकी रवायत और रवानगी हमेशा जिन्दा रहेगी। टिहरी का बलिदान आने वाली पीढी के लिऐ नये युग का सूत्रपात कर गया है। टिहरी के लोगो ने टिहरी को दिलो मे जीया है उनका प्यार, सदभाव आज भी उनके जेहनो मे जिन्दा है। टिहरी को इसलिऐ भी याद किया जाना जरूरी है क्योकि उसने अपनो के लिऐ अपना असतित्व त्याग दिया है।

कार्यक्रम के आयोजक दस्तक संस्थापक दीपक बेंजवाल ने बाताया टिहरी की याद को ताजा करने के लिऐ सभी आगुतंको को धन्यवाद अर्पित किया। उन्होने कहा कि टिहरी को याद करने के पीछे उद्देशय टिहरी के त्याग को नयी पीढी तक पहुचाना जरूरी है। आज झील के नीचे जलमग्न एक पूरी विरासत विकास के लिऐ मिट चुकी है। आजादी के बाद तेजी से पहाड़ के जल जंगल जमीन का जिस प्रकार से दोहन किया जा रहा है वह पहाड़ के असतित्व पर सवाल खड़ा करता है। यह संवाद जरूरी है क्योकि लगातार पहाड़ के लोगो की जनभावनाओ को दरकिनार कर विकास की नयी अवधारणाऐ थोपी जा रही है। जनता विकास की सदैव पक्षधर है लेकिन उनके असतित्व को बचाये जाने की आवाजो को भी सम्मान दिया जाना जरूरी है।

कार्यक्रम मे टिहरी पर डाक्यूमेन्ट्री फिल्म एव पुस्तक प्रदशनी भी लगायी गयी। कार्यक्रम मे शिक्षाविद गंगाराम सकलानी, अजीज प्रेमजी फाउडेशन से नमोदीप, महेश पोखरिया, प्रियंका रस्तौगी, सरिता पंवार, सुधीर रौथाण ने भी विचार रखे।

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