उत्तराखंड

भूख-प्यास से हो गई इस पत्रकार की मौत, मीडिया घरानों की चुप्पी

डाॅ. वीरेंद्र बर्त्वाल

तेरह साल से रोजी-रोटी मांगते-मांगते एक पत्रकार आखिर मौत की आगोश में चला गया। व्यवस्था की खामियों को उघाड़ने वाले की सुध नहीं ली गई। जनता को बरसों से अपनी तीखी और प्रभावी कलम के माध्यम से खबरें परोसने वाला बड़ी खबर नहीं बन पाया,क्योंकि वह पत्रकारिता की एक संस्था(कंपनी) की मनमानी के खिलाफ भूखा-प्यासा रहकर संघर्ष कर रहा था। उसकी आत्मा और परिवार वर्तमान में कितने कष्ट में होंगे और किस हाल में होंगे, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है।

रविंद्र ठाकुर हिमाचल प्रदेश के पत्रकार थे। जैसे कि सोशल मीडिया में खबरें हैं-कई साल पहले एक बड़े मीडिया घराने ने चार सौ पत्रकारों की रोटी छीन ली थी, रविंद्र उन्हीं में से एक थे और तब से यानी 13 साल से दिल्ली में इस अखबार के कार्यालय के बाहर धरना दे रहे थे। अगल-बगल वाले दुकानदारों के टुकड़ों पर इतने सालों तक पेट भरते रहे रविंद्र की मौत हो गई। यह मौत एक बड़ी खबर नहीं, महाखबर है, परंतु उस मीडिया के लिए नहीं, जो खोखले आदर्शों की आधारशिला पर पन्ने काले-सफेद करता है या जो राम रहीम और हनीप्रीत की प्रेमगाथाओं का ’सफल’ मंचन करना अपना धर्म समझता है।

यह घटना उन संगठनों के लिए भी मामूली ही है, जो किसी होटल कर्मी को निकाले जाने पर वहां ’समझौता’ करने जाने से पहले अपना रेट तय कर लेते हैं। दिल्ली जैसी जगह में अखबार के कार्यालय के बाहर ही एक पत्रकार हक की लड़ाई लड़ते-लड़ते प्राण त्याग दे और उस कंपनी की कान में जूं तक नहीं रेंगे, इससे बड़ी अमानवीयता प्रिंट मीडिया में क्या हो सकती है। ऐसे अखबारों को अपना ’जनसेवा’ का यह घिनौना खेल यहीं समाप्त कर देना चाहिए। उन संपादकों को अपनी कलमें तोड़ देनी चाहिए, जो एसी रूम में बैठकर अपने अधीनस्थों पर आग बबूला होते हैं कि हमारे यहां फलां खबर छूट गई और फलां खबर छोटी लग गई।

विज्ञापनों के ठेकेदार ये संपादक पत्रकार नहीं, बिजनेस प्रतिनिधि कहलाने चाहिए।
एक साधारण पत्रकार किस मुफलिसी में जीता है, यह उसकी आत्मा या परिवार ही समझ सकता है। मजीठिया आयोग को बरसों में लागू न करने के लिए वर्षों से ऊटपटांग अड़ंगे और ऊल-जुलूल हथियार अपना रहे मीडिया घराने शायद भूल जाते हैं कि उनकी समृद्धि में योगदान देने वाले कार्मिक कितनी विपन्नता में हैं। अखबारों में पत्रकारिता की डिग्री और ढेर सारा अनुभव वाला पत्रकार प्रायः आज किसी सरकारी दफ्तर के चपरासी से भी कम सैलरी पाता है। यहां सब एडिटर और सीनियर सब एडिटर शब्द बड़ा गरिमामय, ताकतवर और प्रतिष्ठा वाला भले ही लगता हो, लेकिन आप इनकी सैलरी स्लिप देखेंगे तो आपको रोना आ जाएगा। ऊपर से दुःखद यह कि हर वक्त नौकरी जाने का भय।

उगते और डूबते सूरज को देखने का आनंद नहीं ले सकते हैं। अपनों के सुख-दुःख में शामिल नहीं हो सकते। वार-त्योहारों पर समय पर घरे चले जाएं, वह भी गनीमत। गलियों के गड्ढों तक की समस्या को उजागर करने वाले रिपोर्टर के जीवन और भविष्य में कितने गड्ढे पड़े हैं, यह वही जानता है।
आज मीडिया को भ्रष्ट और बेलगाम कहा जाता है, उसका श्रेय इन छोटे और मंझोले पत्रकारों को नहीं, बल्कि पत्रकारों के अभिजात वर्ग और मालिकान को दिया जाना चाहिए। ये छोटे पत्रकार तो रोबोट मात्र होते हैं, जिन्हें संपादक की नीतियों और मालिकान के नियमों पर भौंडा नृत्य करना होता है।

बहरहाल, आज मीडिया का निचला तबका बड़ी शोचनीय दशा में जी रहा है। वह न केवल आर्थिक परेशानियों से घिरा है, बल्कि मानसिक यंत्रणाओं से जूझ रहा है। शायद यही कारण है कि पिछले करीब एक दशक से कई पत्रकार मुख्य धारा से अलग होकर कुछ अलग कार्य कर रहे हैं। रविंद्र ठाकुर की मौत, एक मजबूर पत्रकार की मौत नहीं, मीडिया घरानों की संवेदनाओं की मौत है। यह मनमानी की पराकाष्ठा और लापरवाही की इंतहा है। यह तानाशाही का नतीजा और हठधर्मिता का परिणाम है। यह मौत पत्रकारों के हितैषी होने का प्रहसन करने वाले कथित राष्ट्रीय संगठनों की कार्यशैली को भी चिढ़ाएगी।

अन्याय का शिकार हुए रविंद्र ठाकुर (अगर वही हमीरपुर वाले हैं तो) ने अमर उजाला में हमारे साथ भी काम किया है। मैं जब चंडीगढ़ में ऊना, हमीरपुर, बिलासपुर जिलों का डेस्क इंचार्ज था, तब रविंद्र ठाकुर हमीरपुर से रिपोर्टर थे।

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