उत्तराखंड

संभलकर: यहाँ पर कभी भी डूबने से हो जाती है श्रद्धालुओं की मौत

डॉ वीरेंद्र सिंह बर्त्वाल

देवप्रयाग। यह देवप्रयाग का पवित्र संगम है। यहां से गंगा का जन्म होता है। अर्थात् वह पूर्ण रूप को प्राप्त होती है। अलकनंदा और भागीरथी नदियों के इस पवित्र मिलन-स्थल को उत्तराखंड के पांच प्रयागों में प्रथम और प्रमुख माना गया है। श्रद्धालु यहां पर स्नान-पूजा और पितरों के निमित्त दानकर स्वयं को धन्य समझते हैं, लेकिन एक चिंतनीय पहलू यह है कि यहां पर आए दिन डूबने से श्रद्धालु मृत्यु के आगोश में चले जाते हैं।

यहां पर स्नान करने वाला श्रद्धालु प्रायः पहली बार आता है। इसलिए उसे अनुमान नहीं होता है कि पानी कितना गहना है और किनारा कितना उथला है। घाट की बनावट कुछ इस तरह है कि आदमी उथली जमीन समझकर गंगा में निश्चिंत होकर उतर जाता है और उसके जीवन का अंत हो जाता है। एक साल और छह महीने तो क्या, यहां प्रायः तीन-चार महीने में कोई न कोई हादसा हो जाता है।

प्रशासन की हीलाहवाली देखिए कि घाट का सुधारीकरण तो दूर, यहां पर गोताखोर अथवा तैराक पुलिस की भी कोई व्यवस्था नहीं है। कोई व्यक्ति यहां पर डूबता है तो उसके रिश्तेदारों या मित्रों की मजबूरी होती है उसे डूबते देखना। कुछ मामलों में परिजन या नदी तट पर खड़े व्यक्ति उसे बचाने जाते हैं तो वे भी डूब जाते हैं। आये दिन होने वाली दुर्घटनाओं के बाद भी प्रशासन ने यहां व्यवस्था सुधारनी तो दूर, कोई चेतावनी बोर्ड भी नहीं लगाया है।

बताते हैं कि यहां पर एक बार डूबने के बाद के लाश कभी भी दिखती नहीं है। वे लाशें या तो व्यास घाट या फिर ऋषिकेश जाकर दिखाई देती हैं। स्थानीय अनेक लोगों में संगम को लेकर डर रहता है, इसलिए वे यहां जाते ही नहीं अथवा सावधानी से स्नान करते हैं, किंतु बाहर से आने वाले श्रद्धालुओं को इस बारे में कोई जानकारी न होने के कारण वह हर की पैड़ी की तरह ही यहां पर निर्भय होकर स्नान करता है और काल का ग्रास बन जाता है।

गौरतलब है कि उत्तराखंड की तीर्थयात्रा में देवप्रयाग का बड़ा महत्त्व है। हरिद्वार और ऋषिकेश के बाद श्रद्धालु यहां पर अवश्य स्नान करते हैं। श्री रघुनाथ जी का पौराणिक मंदिर भी यहां स्थित होने के कारण यहां का महत्त्व और बढ़ जाता है। आखिर इतने वर्षों बाद भी संगम की इस उपेक्षा क्यों की जा रही है, यह चिंतनीय विषय है।

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