उत्तराखंड : दो वर्ष पूर्व यानी 2016 में उत्तराखंड भीषण आग की लपटों में झुलस रहा था। हालत यह हो गई थी कि बेकाबू होती जा रही आग पर काबू पाने के लिए वायु सेना, थल सेना और और एनडीआरएफ को मोर्चा संभालना पड़ा। आज चारों ओर जंगलों को देखकर यही लगता है कि इन्द्रदेव की कृपा नहीं हुई तो एक बार फिर जंगल की आग को नियंत्रित करने के लिए सेना की मदद लेनी पड़ेगी। वन विभाग के आंकड़े बताते हैं कि अभी तक प्रदेश में 767 आग लगने की घटनाओं में 1253 हेक्टेयर जंगल को नुकसान पहुंच चुका है। आग की दृष्टि से गढ़वाल मंडल सबसे ज्यादा संवेदनशील बना हुआ है। जहां पर 485 घटनाएं हुई हैं। कुमाऊं मंडल में 238 और वाइल्ड लाइफ एरिया में 44 घटनाएं हुई हैं। इन घटनाओं में 22 लाख से ज्यादा की जैव विविधता को नुकसान पहुंचने का अनुमान है।
हर वर्ष उत्तराखंड के जंगल आग से झुलस रहे हैं। पिछले तीन दशकों में समय-समय पर उत्तराखंड ने भीषण अग्नि दुर्घटनाओं का सामना किया है। लगातार बढ़ रही अग्नि दुर्घटनाओं से यही लगता है कि वन विभाग जंगलों के प्रति गंभीर नहीं है और ना ही स्थानीय लोग वनों को अपना नहीं समझ रहे हैं। ग्रामीणों का अपने जंगलों के प्रति प्रेम खत्म सा हो रहा है। आज से चार-पांच दशक पूर्व गांव के लोग स्वयं ही आग बुझाने के लिए जंगलों की तरफ दौड़ पड़ते थे। आज गांव के लोग खुद ही जंगलों को आग के हवाले कर रहे हैं। पशुओं के लिए अच्छी घास के लिए ग्रामीण खेत या आस-पास के जंगलों में आग लगा देते हैं। हालांकि कई बार वन विभाग पर भी यह आरोप लगता है कि वृक्षारोपण की असलियत सामने आने से पहले जंगल में आग लगा दी जाती है। कई बार यह बात सामने आती है कि टिंबर माफिया बेशकीमती लकड़ी और शिकारी जंगली-जानवरों के शिकार के लिए जंगलों को आग के हवाले कर देते हैं। वहीं जंगलों में लगी आग वन्यजीवों के लिए खतरे की घंटी साबित हो रही है। सैकड़ों प्रजाति के पक्षियों के अस्तित्व पर संकट खड़ा हो गया है। आग की वजह से जंगलों की अधिकांश वनस्पति जलकर नष्ट हो रही है। आग से नंगी हुई पहाड़ियों से बरसात के समय भारी भूस्खलन का खतरा कई गुना बढ़ गया है। जंगलों में आग की रोकथाम के लिए वन विभाग गांवों में जन-जागरूकता अभियान के लिए गोष्ठियां भी आयोजित करता है। इसके बावजूद हर वर्ष जंगलों में अग्नि दुर्घटनाएं कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही है। तमाम तरह के जागरूकता कार्यक्रम और संसाधनों पर करोड़ों रुपए खर्च होने के बाद भी जंगल जल ही रहे हैं।
आपको जानकारी होगी कि सर्वे ऑफ इंडिया देश भर में लगने वाली आग की सूचना सैटेलाइट के माध्यम से पहुंचाता है। इस सैटेलाइट के जरिये जंगल में कहीं भी आग लगने के चार घंटे के भीतर अपने आप ही उस इलाके में तैनात डीएफओ के मोबाइल पर इसकी सूचना आ जाती है। इसके बाद भी आग को नियंत्रित नहीं किया जा रहा। इसके पीछे वन विभाग के अधिकारी यही तर्क देते हैं कि उनके पास संसाधनों का अभाव है। चीड़ के जंगलों में ही सबसे अधिक आग की घटनाएं होती है। इसकी वजह यह है कि मार्च से जून माह के बीच चीड़ के पेड़ों की नुकीली पत्तियां गिरती है। इसे पिरूल कहा जाता है। चीड़ के जंगलों में बहुत कम नमी होती है इसलिए भी जंगलों में आग जल्दी लगती है और तेजी से फैलती है। एक समय उत्तराखंड में चीड़ का इतना ज्यादा फैलाव नहीं था जितना आज है। तब इस इलाके में देवदार, बांज, बुरांश और काफल जैसे पेड़ों की बहुतायत थी।
इमारती लकड़ी के लिए अंग्रेजों ने इन पेड़ों को जमकर काटा। इसके बाद खाली हुए इलाकों में चीड़ का फैलाव शुरू हुआ। अंग्रेजों ने भी इस पेड़ को बढ़ावा दिया, क्योंकि इसमें पाये जाने वाले रेजिन का इस्तेमाल कई उद्योगों में होता था। विकसित होने के बाद चीड़ का जंगल कुदरती रूप से जल्दी फैलने की क्षमता भी रखता है। बांज और बुरांस जैसे दूसरे स्थानीय पेड़ इस समाज के बहुत काम के थे। उनकी पत्तियां जानवरों के चारे की जरूरत पूरी करती थीं। उनकी जड़ों में पानी को रोकने और नतीजतन स्थानीय जलस्रोतों को साल भर चलाए रखने का गुण था। लेकिन चीड़ में ऐसा कुछ भी नहीं था। बल्कि जमीन पर गिरी इसकी पत्तियां घास तक को पनपने नहीं देती थीं। तो लोगों में यह सोच आना स्वाभाविक था कि इनमें आग ही लगा दी जाए ताकि बरसात के मौसम में थोड़े समय के लिए ही सही, घास के लिए जगह खाली हो जाए और जानवरों के लिए चारे का इंतजाम हो जाए। इस स्थिति के साथ सख्त वन्य कानूनों के कारण स्थानीय लोगों के लिए जंगल पराए होते चले गए। पहले वे इन्हें अपना समझकर खुद इन्हें बचाते थे, लेकिन अब वे इन्हें सरकारी समझते हैं। हमें अपने जंगलों को समझना होगा। जब तक हम जंगलों से नहीं जुड़ेंगे, तब तक इस तरह की अग्नि घटनाएं होती रहेंगी। हमें समझना होगा कि जंगल है तो हमारा पर्यावरण है और इसी से हमारा जीवन है।
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