योगेश भट्ट
थराली : थराली उपचुनाव में सियासी ‘चौसर’ सजी है, सियासी दलों के ‘मोहरे’ एक दूसरे को मात देने को बेताब हैं। दिलचस्प यह है कि सियासी दलों के लिये यह उपचुनाव भले ही कसौटी बना हो लेकिन थराली की जनता बड़ी ‘दुविधा’ में है। दरअसल थराली में सियासत के खेल से असल मुद्दा गुम हो चुका है। जिन परिस्थतियों में थराली उपचुनाव हो रहा है
वह थराली के लिये ही नहीं पूरे प्रदेश के लिये बेहद संवेदनशील मुद्दा है। इसके बावजूद नयी इबारत लिखने का जनता के पास कोई विकल्प नहीं है, सियासत के आगे लोकतंत्र मजबूर है। हालात यह हैं कि जनता आज यह सवाल भी नहीं कर सकती कि उसके विधायक की असमय मौत क्यों हुई ?
यह भी नहीं पूछ सकती कि कौन है इसका जिम्मेदार?
थराली में सियासत की ‘चौसर’ पर ‘मोहरे’ इस कदर सजे हैं कि उनसे कोई सवाल संभव नहीं। दुविधा यह है कि बेचारी जनता आखिर किस पर भरोसा करे? क्या उस पार्टी पर जो सरकार होने के बावजूद अपने एक विधायक तक की जान नहीं बचा पायी, या उस पर जो सत्ता में रहने के बावजूद क्षेत्र में एक अदद अस्पताल तक नहीं दे पाये? इसमें कोई दोराय नहीं कि थराली में मुख्य मुकाबला अंतत: भाजपा और कांग्रेस के बीच ही सिमटा है। दोनो ही दलों के ‘सूरमा’ इन दिनों थराली विधानसभा क्षेत्र की खाक छानने में जुटे हैं। हाशिये पर पहुंच चुकी कांग्रेस के लिये यह चुनाव ‘संजीवनी’ तलाशने जैसा है, तो भाजपा के लिये ‘लाज’ बचाने का चुनाव बना हुआ है। हालांकि यहां होने वाली हार जीत का सत्ता के ‘अंकगणित’ पर कोई फर्क नहीं पड़ने जा रहा है,
इसके बावजूद भाजपा और कांग्रेस ने इसे प्रतिष्ठा का सवाल बनाया हुआ है। भाजपा के लिये यह सीट इसलिये अहम बनी हुई है क्योंकि सरकार के कामकाज को लेकर असंतोष के स्वर उठने लगे हैं। इस चुनाव में यदि नाकामी हाथ लगी तो इसे सरकार की नाकामी के तौर पर भी देखा जाएगा। और फिर 2019 के लिये भी यह भाजपा के लिये सही संकेत नहीं होगा । यही कारण है कि भाजपा के रणनीतिकारों के साथ ही सरकार ने भी पूरी ताकत झौंकी हुई है, उम्मीदवारी से लेकर हर मोर्चे पर भाजपा की टीम चौकस है। चौकस भाजपा ने एक ओर भावनात्मक कार्ड खेलते हुए दिवंगत विधायक की पत्नी मुन्नी देवी को मैदान में उतारा तो दूसरी ओर बागियों को भी ‘शांत’ कर दिया है। सरकार के कई मंत्री विधायक चुनाव तक वहीं डेरा डाले हुए हैं। उधर थराली से कांग्रेस की भी उम्मीदें कम नहीं हैं। कहीं न कहीं इस चुनाव के बहाने वह भी अपनी ताकत समेटने की कोशिश कर रही है।
कांग्रेस के दिग्गज थराली में कुछ इस तरह जुटे हैं मानो वे किसी ‘संजीवनी’ की तलाश कर रहे हों। यही कारण भी रहा कि भाजपा जहां अंतिम समय तक उम्मीदवारी को लेकर ‘गुणा भाग’ में लगी रही, वहीं कांग्रेस ने बिना देरी के अपने उम्मीदवार की घोषणा की। कांग्रेस इस सीट पर कामयाब होती है तो निसंदेह हताश कांग्रेस को नयी ऊर्जा मिलेगी। कांग्रेस और भाजपा के बीच सिमटे इस संग्राम में अहम यह है कि असल मुद्दा ‘हवा’ हो चुका है। इस ‘संग्राम’ में मुद्दे की बात दोनो ही करने को तैयार नहीं। दरअसल थराली उपचुनाव में कांग्रेस और भाजपा के अलावा एक पक्ष और भी है वह है ‘जनपक्ष’, जो फिलवक्त हाशिये पर है। थराली में इस पक्ष की ‘छटपटाहट’ साफ महसूस की जा सकती है। पिछले चुनाव में सात हजार से अधिक वोट लेकर तीसरे स्थान पर रहने वाले गुड्डू लाल की उम्मीदवारी के बहाने जनपक्ष ने ‘अंगड़ाई’ तो ली तो लेकिन वह परवान चढ़ने से पहले ही धराशायी हो गयी। हालांकि थोड़े ही समय में इससे थराली से लेकर देहरादून तक खासी ‘हलचल’ रही। गुड्डू लाल के निर्दलीय चुनाव लड़ने के ऐलान भर से देहरादून के सत्ता के गलियारों में खासी बैचेनी महसूस की गयी।
गुड्डू लाल की उम्मीदवारी को जिस तरह व्यापक जनसमर्थन मिला वह राजनैतिक दलों के लिये खतरे का संकेत था। संभवत: इसी खतरे को भांपते हुए भाजपा ने हर हाल में गुड्डू लाल को निर्दलीय मैदान में उतरने से रोका। जिस नाटकीय घटनाक्रम में गुड्डू लाल ने भाजपा के सामने आत्मसमर्पण किया उससे अंतत: फिर यही साबित हुआ कि सियासत और सत्ता में संवेदनाओं की कोई जगह नहीं। यही सच्चाई भी है, संवेदना होती तो थराली में जनता का असल सवाल यूं गुम न होता। थराली में असल सवाल सही इलाज के अभाव में एक विधायक की असमय मौत का है।
साल भर पहले थराली की जनता जिसे अपना विधायक चुनकर भेजती है, देहरादून के एक बड़े अस्पताल में असमय उसकी मृत्यु हो जाती है। मृत्यु का कारण होता है सही समय पर रोग का पता न चलना और इलाज न मिलना। यह सच्चाई है कि थराली के विधायक मगनलाल शाह की मृत्यु स्वाइन फ्लू के कारण हुई। अस्पताल में भर्ती रहते हुए भी काफी समय तक यह पता ही नहीं चल पाया कि वह स्वाइन फ्लू के शिकार हैं। सच्चाई यह है कि मगनलाल शाह की मौत स्वाइन फ्लू से हुई लेकिन यह मौत सामान्य नहीं कही जा सकती। एक विधायक की इस तरह से मृत्यु प्रदेश की स्वास्थ्य सेवाओं पर बहुत बड़ा प्रश्न चिह्न है। सवाल यह है कि जब एक विधायक के साथ इतनी बड़ी लापरवाही हो सकती है, तो आम आदमी के लिये सिस्टम से क्या उम्मीद की जाए? जब राजधानी देहरादून में स्वास्थ्य सेवाएं इस कदर बदहाल हों तो राज्य के दूसरे इलाकों या थराली जैसे दूरस्थ क्षेत्रों में क्या उम्मीद की जा सकती है? सवाल आज सिर्फ सवा साल पुरानी सरकार का ही नहीं बल्कि पूरे सत्रह वर्षों का है। पिछले सत्रह सालों में अकेले थराली विधानसभा क्षेत्र के ही न जाने कितने बीमारों ने छोटी-मोटी बीमारी पर ही देहरादून का रुख किया होगा। कई ऐसे भी होंगे जो थराली से दून तक का लंबा सफर तय ही न कर पाए हों, न जाने कितने बीमार या घायलों ने बीच रास्ते में दम तोड़ा होगा।
इस चुनाव में क्या सियासी दलों से इसका हिसाब नहीं लिया जाना चाहिए था? नहीं पूछा जाना चाहिए कि कौन है इसका जिम्मेदार? क्यों नहीं सत्रह सालों में एक अदद अस्पताल यहां दे पायी सरकार, कौन है इन सबका जिम्मेदार? सवाल यही है कि कौन खड़ा करेगा और किससे करेगा यह सवाल?