हीरा खनन के बदले 2.15 लाख पेड़ों की कटाई का अधिकार, कैसे बचेगा पर्यावरण..
देश-विदेश: मध्यप्रदेश के बक्सवाहा में एक निजी कंपनी को हीरों की खुदाई करने का अधिकार मिला है। जिसके लिए कंपनी को 2.15 लाख जंगली पेड़ों को काटने का अधिकार भी मिल गया है। जिसके पर पर्यावरणविदों का कहना है कि इन जंगलों की कटाई से पर्यावरण और स्थानीय आदिवासियों को अपूरणीय क्षति होगी। इससे केवल इस क्षेत्र में ही नहीं, बुंदेलखंड के इलाके में भी जल संकट गहराएगा क्योंकि इस क्षेत्र से होने वाले जल का बहाव ही बुंदेलखंड के क्षेत्रों तक जाता है। यहां के स्थानीय आदिवासियों ने इसे अपने जीवन पर संकट बताते हुए इस परियोजना पर रोक लगाने की मांग करते हुए एनजीटी में याचिका दाखिल कर दी है। एनजीटी में इस मामले की अगली सुनवाई 30 जून को होगी।
आपको बता दे कि मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले में राज्य सरकार ने एक निजी कंपनी (आदित्य बिरला ग्रुप की एस्सेल माइनिंग एंड इंडस्ट्रीज लिमिटेड) को बक्सवाहा के जंगलों की कटाई करने की अनुमति दे दी है। यह अनुमति इस क्षेत्र में पाई जाने वाली हीरों की खानों की खुदाई के सन्दर्भ में दी गई है। अनुमान है कि 382.131 हेक्टेयर के इस जंगल क्षेत्र के कटने से 40 से ज्यादा विभिन्न प्रकार के दो लाख 15 हजार 875 पेड़ों को काटना होगा। इससे इस क्षेत्र में रहने वाले लाखों वन्य जीवों के प्राकृतिक आवास पर भी असर पड़ेगा। कंपनी को इन पेड़ों को काटने की भी अनुमति मिल गई है।
जिसके बाद पर्यावरण कार्यकर्ता मेधा पाटकर का कहना है कि इन पेड़ों को काटने से यहां रहने वाले 20 गांवों और उनके 8000 निवासियों पर भारी असर पड़ेगा, क्योंकि उनका पूरा जीवन इन्हीं जंगलों पर आश्रित है। दूसरे, इन पेड़ों की कटाई का असर केवल एक सीमित क्षेत्र में असर नहीं डालेगा, बल्कि इनका विश्व के बढ़ते तापमान और बिगड़ते पारिस्थितिकी संतुलन के रूप में भी समझा जाना चाहिए।
पहले से ही पानी की भारी कमी से जूझते इस क्षेत्र में इन पेड़ों की कटाई से यहां होने वाली वर्षा में भी भारी कमी आएगी। इसी क्षेत्र से बुंदेलखंड क्षेत्र में भी जल उपलब्धता सुनिश्चित होती है। यहां के पेड़ कटने से जल बहाव प्रभावित होगा और बुंदेलखंड क्षेत्र को और अधिक जल संकट का सामना करना पड़ेगा। आदिवासी लोग इन जंगलों की पत्तियों, फलों-बीजों पर निर्भर करते हैं। इन पेड़ों के कट जाने से यहां के लोगों का जीवन बेहद कठिन हो जाएगा।
केंद्र-राज्यों से कंपनियों को मिलने वाले ठेकों के पीछे यह तर्क दिया जाता है कि कंपनियां काटे जाने वाले पेड़ों के बदले उतने ही क्षेत्र में वृक्षारोपण करेंगी। लेकिन नर्मदा आन्दोलन के अनुभव बताते हैं कि यह वृक्षारोपण कागजों पर ज्यादा और भूमि पर कम होता है। नर्मदा आंदोलन में कंपनी ने जिन स्थानों पर पेड़ लगाने की बात कही थी, पाया गया कि उनमें से ज्यादातर जगहों पर किसानों के खेत, तालाब और अन्य क्षेत्र थे। निजी कंपनियां बबूल जैसे पेड़ों को लगाकर उन्हें वृक्षारोपण बता देती हैं, जबकि किसी जंगल में वहां के स्थानीय पौधे होते हैं जो एक विशेष पारिस्थितिकी विविधता और प्राकृतिक संतुलन का निर्माण करते हैं। किसी भी प्रकार के पौधे लगाकर इनकी भरपाई नहीं की जा सकती है।
ग्रामीणों ने बनाई समिति..
बक्सवाहा के जंगलों को बचाने के लिए स्थानीय आदिवासियों ने एक समिति का गठन कर ली है। जिसके माध्यम से वे इस निर्णय का विरोध कर रहे हैं। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) में एक मामला दायर कर इस निर्णय पर रोक लगाने की अपील की गई है। कंपनी को अपना पक्ष पेश करने का निर्देश दिया गया है। एनजीटी को बताया गया है कि रियो टिंटो एक्सप्लोरेशन इंडिया प्राइवेट लिमिटेड (आरटीईआईपीएल) नामक एक ऑस्ट्रेलियाई कंपनी ने बक्सवाहा संरक्षित वन, सगोरिया गांव, बक्सवाहा तहसील, छतरपुर जिला में 2008 में बंदर डायमंड ब्लॉक की खोज की थी। बाद में कंपनी ने इसे मध्यप्रदेश सरकार को दे दिया था।
इसके बाद एक नीलामी के जरिये बिरला ग्रुप की कंपनी ने इसके खनन का अधिकार हासिल कर लिया। परियोजना की अनुमानित लागत 2500 करोड़ रुपये है। कंपनी ने इस क्षेत्र के जंगलों के बदले स्थानीय आदिवासी युवाओं को रोजगार और जंगल के बदले वृक्षारोपण की बात कही है, लेकिन आदिवासियों का कहना है कि ये चीजें उनके मूल अधिकारों की भरपाई नहीं कर सकतीं।