मानो उत्तराखंड न हुआ, कुबेर का खजाना हो गया
योगेश भट्ट
“आश्चर्य यह है कि उत्तराखंड इन नेताओं की हर ख्वाहिशों को पूरा करता जा रहा है । मगर उन ख्वाहिशों को पूरा करने का वक्त राजनेताओं, ठेकेदारों के पास नहीं है जो पर्वतीय राज्य की अवधारणा से जुड़ी हैं । गैरसैंण को राजधानी बनाने की ख्वाहिश पक्ष-विपक्ष के तुष्टिकरण की सूली पर टांग दी जाती है । दुर्गम और पिछड़े गांवों में डॉक्टर और दवा की ख्वाहिश से सरकारें मुंह मोड़ लेती हैं । बुनियादी सुविधाओं की ख्वाहिश में हो रहे पलायन से सरकार मुंह फेर लेती हैं । पिछले 17 सालों से आंकड़ों की सुनहरी इबारत गढ़ कर अपनी नेताओं द्वारा अपनी व्यक्तिगत ख्वाहिशों को पूरा करते जाने का जो सिलसिला शुरू हुआ था, अब वो रीत बन चुका है । दुर्भाग्य से ये रीत बनाने में जितने राजा जिम्मेदार है उतनी ही इस नव उदित राज्य की प्रजा भी ।”
ठीक नौ नवंबर 2000 को जो नन्हा उत्तरांचल लड़खड़ाते बुजुर्ग हाथों में सौंपा गया था, आज 17 बरस का उत्तराखंड हो चुका है, उसकी हालत उस निकम्मी संतान के पिता के समान है जो अपनी संतान की जायज-नाजायज ख्वाहिशों के बोझ तले इस कदर दब जाता है कि वक्त से पहले ही बुढ़ापे की दहलीज पर पहुंच जाता है । 17 साल के इस सफरनामे पर पीछे नजर डालकर देखें तो इसके लिये कोई अकेला जिम्मेदार नहीं है । इस राज्य की इस व्यथा के लिये राज्य का हर व्यक्ति जिम्मेदार है, चाहे वो राजनेता हो, अफसर हो, ठेकेदार हो या फिर राज्य बनाने का खम ठोकने वाले आंदोलनकारी हों । हर किसी की इस राज्य से ख्वाहिशों की लंबी फेहरिस्त है ।
लेकिन इस राज्य की क्या ख्वाहिश है, ये सोचने की फुरसत किसी को नहीं ? प्रधान जी विधायक का सपना देख रहे हैं । मंत्री जी मुख्यमंत्री बन जाना चाहते हैं । कर्मचारियों को प्रमोशन की चाहत है । बिल्डर-प्रोपर्टी डीलर कृषि भूमि पर कंक्रीट का जंगल उगा देने का ख्वाब देख रहा हैं, नेता पुत्र यहाँ की नदियों के पानी और जंगलों की जमीन में अपना आर्थिक भविष्य सुरक्षित कर रहें हैं ।
पृथक राज्य आंदोलन से लेकर राज्य गठन तक हर वर्ग के हर तबके ने ख्वाहिशों को समग्र रूप के बजाय उन्हें एकांगी बना दिया । इस नवोदित राज्य के लिये इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि राज्य गठन के बाद अंतरिम सरकार में ही इस बात को लेकर घमासान होता रहा कि कमान संभालेगा कौन ? हर बड़ा नेता मुख्यमंत्री बनना चाहता था ।घमासान इतना भीषण था कि एक ही साल की अंतरिम सरकार में भी इस राज्य को दो-दो मुख्यमंत्री देखने पड़े । जब नेता मुख्यमंत्री-मुख्यमंत्री खेल रहे थे, तब अफसर लाखों बना रहे थे । वे पैसा बनाने की ख्वाहिशों को पूरा करने में जुटे थे । टार्च घोटाला, साइकिल घोटाला, पर्दा घोटाला सरीखे तमाम घपलों को लेकर हल्ला मचा । मगर गुब्बारे की तरह फूला और वक्त के साथ फुस्स हो गया ।
इसके बाद पहली निर्वाचित सरकार का हाल तो सब जानते ही हैं । जो सीएम बनने का ख्वाब देख रहे थे, उन्हें संगठन की कमान थमा दी गई और जो राज्य आंदोलन के दौरान यह बयान देते थे कि उत्तराखंड उनकी लाश पर बनेगा, उन्हें राज्य का मुख्यमंत्री बना दिया गया । उनके राज में ख्वाबों के सूचकांक ने ऐसी कुलाचें भरीं कि सपने और हवस के बीच का फर्क ही मिट गया । मंत्री-अफसर, नेता-कार्यकर्ता सब अपने-अपने ख्वाबों की फसल काटने में लीन थे । राजधानी देहरादून से लेकर नैनीताल और ऊधमसिंह नगर की तराई और हरिद्वार का मैदान भू-माफिया के लिये चारागाह बन गया। दुर्भाग्य से ये सिलसिला भ्रष्टाचार मुक्त, सुशासन का दम भरने वाली वर्तमान निर्वाचित सरकार में भी नहीं टूट पाया,स्वच्छ, पारदर्शी एंव भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन देने के वादे के साथ 57 विधायकों के साथ सत्ता पर काबिज हैं ।
आज 17 साल बाद भी नेताओं की उत्तराखंड से कुछ न कुछ हासिल करने की ख्वाहिश जारी है । कर्मचारियों को हर हाल में प्रमोशन चाहिये । अस्थायी कर्मचारियों को पक्की नौकरी चाहिये । दैनिक भोगियों को एन्क्रीमेंट चाहिये । नेताओं और कार्यकर्ताओं को खनन के पट्टे और स्टोन क्रशर का लाइसेंस चाहिये। बिल्डर को सस्ती जमीन चाहिये । नेताओं को लालबत्ती चाहिये, सत्ता में बैठे मंत्री पुत्रों को टिकट या फिर सरकार में पद चाहिये।