योगेश भट्ट
जब यह साफ है कि उत्तराखंड में आयोगों की रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई नहीं होती, तो सरकारें आयोग बनाती ही क्यों हैं? सिर्फ खानापूर्ति के लिए, मुद्दों को भटकाने के लिए या फिर उन्हें हमेशा के लिए ठंडे बस्ते के हवाले करने के लिए? त्रिवेंद्र सरकार ने अपने सौ दिन का कार्यकाल पूरा करने के मौके पर एक नए आयोग के गठन की घोषणा की है। यह आयोग प्रदेश में पलायन की समस्या और निदान पर रिपोर्ट तैयार करेगा। इसी रिपोर्ट के आधार पर सरकार कार्ययोजना तैयार करेगी।
अभी तक के अनुभवों से तो साफ है कि पलायन का मुद्दा फिलहाल सरकार ने कुछ वक्त के लिए ‘ठंडा’ कर दिया है। निसंदेह पलायन बड़ा मुद्दा तो है ही, यही कारण रहा कि सरकार बनने के बाद इसके लिए मंत्रियों की एक कमेटी का गठन भी किया गया। सवाल यह है कि जब मंत्री सतपाल महाराज की अध्यक्षता में कमेटी बना दी गई थी, तो फिर आयोग बनाने की जरूरत क्यों आन पड़ी? और अब जब आयोग बनाने की घोषणा कर दी गई है तो फिर मंत्रियों की कमेटी का क्या औचित्य रह जाता है? बहरहाल आयोगों की ही यदि बात करें तो, इनको लेकर प्रदेश का अब तक का अनुभव बहुत बुरा रहा है। सरकारें आतीं हैं, उनके द्वारा आयोग पर आयोग बनाए जाते हैं, ये आयोग अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपते हैं, मगर इनकी रिपोर्ट पर कार्रवाई के नाम पर कोई एक्शन नहीं होता।
हां, इतना जरूर है कि प्रदेश की मेहनतकश करदाता जनता का करोड़ों रुपया इन आयोगों पर हर साल खर्च होता है, जिसकी कि कोई उपयोगिता साबित नहीं होती। बात राज्य बनने के बाद बने सबसे पहले आयोग, ‘राजधानी चयन आयोग’ से शुरू करते हैं। अंतरिम सरकार द्वारा बनाए गए इस आयोग की रिपोर्ट का लगभग दशकभर तक इंतजार किया जाता रहा, जबकि इसे छह महीने की अवधि में अपनी रिपोर्ट के जरिए यह बताने की जिम्मेदारी दी गई थी कि प्रदेश की स्थाई राजधानी कहां बननी चाहिए। वर्षों के बाद जब रिपोर्ट आई भी तो उसके आधार पर सरकार किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकी। स्थाई राजधानी का मसला आज भी अनसुलझा है। एक और अहम आयोग, जिसका नाम था ‘प्रशासनिक सुधार आयोग’। इस आयोग ने प्रशासनिक सुधारों को लेकर बेहद अहम रिपोर्ट सरकार को सौंपी, मगर आज तर उस रिपोर्ट को लागू नहीं किया गया। इस दौरान भाजपा और कांग्रेस दोनो की ही सरकारें आ चुकी हैं। प्रशासनिक आयोग की रिपोर्ट पर नौकरशाही आज तक कुंडली मारे बैठी है। इस रिपोर्ट को भी लगभग एक दशक बीत चुका है। इसी तरह पदोन्नति में आरक्षण होना चाहिए या नहीं, के पेचीदगीभरे मसले का हल निकालने के नाम पर रिटायर्ड जस्टिस इरशाद हुसैन की अध्यक्षता में आयोग बनाया गया जिसकी रिपोर्ट काई ही कोई आता पता नहीं ।
इसी तरह प्रदेश में हुए सिडकुल जमीन घोटाले से लेकर पावर प्रोजक्ट घोटाला, स्टर्डिया घोटाला, ढैंचा बीच घोटाला, कुंभ घोटाला, आपदा घोटाला आदि की जांच के नाम पर भी आधा दर्जन के करीब आयोग बनाए गए जिनमें शर्मा आयोग, वर्मा आयोग, भाटी आयोग, त्रिपाठी आयोग आदि बहुत चर्चाओं में भी रहे। लेकिन इन आयोगों की रिपोर्ट के आधार पर कभी कोई एक्शन नहीं हुआ। त्रिपाठी आयोग की रिपोर्ट ने तो आज कल हंगामा भी मचाया हुआ है। ढैंचा बीज घोटाले में इस आयोग द्वारा मौजूदा मुख्यमंत्री और तब कृषि मंत्री रहे त्रिवेंद्र सिंह रावत को दोषी ठरहाए जाने के बावजूद ‘एक्शन टेकन रिपोर्ट’ में उन्हें क्लीन चिट दे दी गई है। आयोग की रिपोर्ट मिलने के बाद पूर्ववर्ती हरीश रावत सरकार ने उस पर एक्शन लेने के बजाय रिपोर्ट का परीक्षण करने के लिए एक कमेटी गठित कर दी। इसी कमेटी ने त्रिवेंद्र सिंह रावत को क्लीन चिट दी है। सवाल यह है 7कि जब आयोगों की रिपोर्ट का यही हश्र होना है तो फिर उन पर जनता की गाढी कमाई क्यों लुटाई जा रही?
जहां तक पलायन की समस्या की बात है तो इसका समाधान सरकार को करना है ना कि किसी आयोग को। इसके लिए सरकार को ऐसा प्लान बनाना पड़ेगा ताकि लोग अपनी जड़ो से जुड़े रहें। इसके लिए सरकार को आयोग बनाने के बजाय घर वापसी का माहौल बनाना होगा, खासकर रोजगार और उद्यमिता के क्षेत्र में । सरकार को इसी के साथ लोगों को वापस उत्तराखण्ड लौटने की अपील करनी चाहिए जो प्रदेश छोड़ कर दूसरे शहरों में बस चुके हैं। क्या सरकार ने अभी तक ऐसी कोई अपील की? क्या सरकार ने प्रदेश के उन उद्यमियों को उत्तराखंड में आकर काम करने का न्यौता दिया जो दूसरे प्रदेशों में रहते हुए अच्छा खासा कारोबार कर रहे हैं या प्राईवेट नौकरियां कर रहे हैं ? नहीं , ऐसा करने के बजाय सरकार आयोग के सहारे पलायन जैसी विकराल समस्या का हल तलाश रही है। काश, सरकार आयोग पर आयोग बनाए जाने की परंपरा से हट कर कुछ जमीनी फैसले लेने का साहस दिखाती।