उत्तराखंड

यह शिक्षक की ‘चूक’ नहीं अपराध है

योगेश भट्ट

हाल ही में गढवाल विश्वविद्यालय के कुछ जागरुक छात्रों ने सूचना अधिकार के तहत विवि से अपनी उत्तर पुस्तिकाएं मांगी, तो खुलासा हुआ कि गढ़वाल विश्वविद्यालय में छात्रों को अंक उनकी उत्तर पुस्तिकाएं जांच कर नहीं बल्कि मंदिर के प्रसाद की तरह बांटे जाते हैं। कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि विश्वविद्यालय के शिक्षक परीक्षक उत्तर पुस्तिका जांचने की जिम्मेदारी तक नहीं उठाते।

मनमाने तरीके से जो मन आया प्राप्तांकों के विवरण में नंबर भरे और इतिश्री, इसका छात्रों पर क्या असर होगा इसकी कोई चिंता नहीं । यह भय भी नहीं कि कहीं मामला खुला तो क्या होगा ?यह सही है कि ऐसा फिलहाल एक ही विषय में सामने आया है,लेकिन कटघरे में आज पूरा विश्वविद्यालय और मूल्यांकन कार्य करने वाला हर शिक्षक है। आश्चर्य यह है कि एक शिक्षक, वह भी उच्च शिक्षा का शिक्षक आखिर छात्रों के साथ इस तरह की हरकत कैसे कर सकता है ?

हालांकि विश्वविद्यालय प्रशासन से लेकर शिक्षक और तमाम छात्र संगठन इस पर एक तरह से मौन ही हैं, जबकि मसला चुप्पी ओढ़ने का नहीं है । थोड़ा जज्बाती होकर ही सोचा जाए तो यह बेहद गंभीर मसला है, एक छात्र का भरोसा तोड़ना और उसके भविष्य के साथ खिलवाड़ है यह । क्या एक शिक्षक को इतना भी भान नहीं कि छात्र और शिक्षक के रिश्ते की मर्यादा छात्र के विश्वास से जुड़ी होती है। उस विश्वास को कायम रखने और मजबूती देने की जिम्मेदारी शिक्षक की ही है। आज सूचना अधिकार के युग में जब कुछ भी गोपनीय या छिपा नहीं है, ऐसे में भी शिक्षक का यह रवैया बेहद चिंतनीय है।

शिक्षक के इस रवैये को क्या कहा जाए, गैर जिम्मेदाराना हरकत, लापरवाही, चूक या कुछ और ? सच यह है कि यह न लापरवाही है और न ही चूक, यह तो अपराध है, एक ऐसा अपराध जो सब कुछ जानते बूझते किया गया है। यह एक छात्र के भविष्य के साथ खिलवाड़ करने का अपराध है, सच तो यह है कि एक शिक्षक के लिये इससे बड़ा अपराध और कोई हो भी नहीं सकता कि वह विद्यार्थियों का मूल्यांकन हवा में ही कर दे। किसी छात्र की प्रतिभा के साथ उसके भविष्य के साथ यह खिलवाड़ नहीं तो क्या है?

आखिर कोई शिक्षक कैसे ऐसा कर सकता है कि वह बिना उत्तर पुस्तिका जांचे ही सीधे मनमाने तरीके से नंबर रख दे। शिक्षक क्यों यह भूल रहा है कि वह सिर्फ एक व्यक्ति मात्र नहीं बल्कि एक संस्था है, समाज के निर्माण में उसकी एक प्रमुख भूमिका है। इस प्रकरण के बाद अब सवाल सिर्फ शिक्षक पर ही नहीं बल्कि सवाल गढवाल विश्वविद्यालय के प्रशासन पर भी है । गढवाल विवि अब राज्य विश्वविद्यालय नहीं बल्कि केंद्रीय विश्ववि्द्यालय है। एक समय था कि गढ़वाल विश्वविद्यालय इस तरह के क्या इससे भी बडे दुस्साहसिक कारनामों को अंजाम देने के लिये कुख्यात रहा । लेकिन अब आठ साल बीत चुके हैं

इस विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय बने हुए। ऐसा लगता है कि अभी तक पुरानी मानसिकता व कार्यप्रणाली से विवि अभी उबर नहीं पाया है। बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि परीक्षा मूल्यांकन जैसी संवेदनशील व्यवस्था विवि प्रशासन ऐसी नहीं कर पाया, जिसमें कोई चूक न हो पाये। हाल में मूल्यांकन में परीक्षकों की कारगुजारी का जो खुलासा हुआ, वह भी चंद जागरूक छात्रों की वजह से संभव हुआ है। जिन्होंने फेल होने पर सूचना अधिकार का इस्तेमाल करते हुए अपनी जांची गयी उत्तर पुस्तिकाएं हासिल की। जानकारी के मुताबिक बीएसएसी तृतीय वर्ष के कुछ छात्रों ने वनस्पति विज्ञान की जांची गयी उत्तर पुस्तिकाएं सूचना अधिकार के तहत मांगी, तब खुलासा हुआ कि इन उत्तर पुस्तिकाओं में परीक्षक ने बिना प्रश्नों को जांचे, पुस्तिका में प्राप्तांकों का विवरण भर विवि को भेजा है। छात्रों ने यह प्रकरण जब विवि प्रशासन के सामने रखा तो अब विवि प्रशासन बचाव की मुद्रा में है। विवि के जिम्मेदार अधिकारी मसले को गंभीर मानते हुए जांच और कार्यवाही की बात कर तो रहे हैं, लेकिन अभी इसकी बहुत उम्मीद नजर नही आती ।

सवाल यह है कि इस खुलासे के बाद विवि इसे कितनी गंभीरता से लेगा, क्या जो छात्र फेल हुए उन सभी की उत्तर पुस्तिकाओं की जांच की जाएगी ? सिर्फ फेल छात्रों की ही क्यों इसकी क्या गारंटी है कि जो छात्र पास हुए हैं उनका मूल्यांकन सही हुआ है, इसकी भी क्या गारंटी है कि मूल्यांकन में पहले भी ऐसा ही होता नहीं रहा है? सबसे अहम यह कि ऐसे शिक्षकों के विरुद्ध क्या कार्यवाही की जाएगी, क्या उन्हें एक शिक्षक के दायित्व या पद से विरत किया जाएगा ? भविष्य में इस तरह की पुनारावृतत्ति न होने पाए इसके लिये विवि प्रशासन कोई ठोस व्यवस्था करेगा ?

पूरे प्रकरण में एक आश्चर्यजनक और दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह भी है कि केंद्रीय विवि में छात्रों के साथ हुआ यह खिलवाड़ मीडिया की सुखिर्यों में भी जगह नही बना पाया और न छात्रों की आवाज बन पाया। वजह भले ही स्पष्ट न हो लेकिन कहीं न कहीं यह तो है कि शिक्षा के स्तर से जुड़े मसले पर समाज में संवेदनशीलता की भारी कमी है।

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