उत्तराखंड

इस गांव की कहानी: सूनी डंडलि, उदास तिबरी

 

पूर्णिमा मिश्रा

एक बड़ी कूड़ी (मकान) के छह कमरों में एक बड़ा हाॅल यानी बैठक। पत्थरों से निर्मित परम्परागत शैली से बने मकान का यह हाॅल और सीमेंट की छज्जा में कभी बैठने के लिए जगह कम पड़ जाती थी,  लेकिन आज यहां  वर्ष के 360 दिन सन्नाटा पसरा रहता है। छज्जे में पुराना टूटा सा सोफा और प्लास्टिक की कुर्सियां इस पर बैठने वालों के लिए तरसती हैं और जब साल भर में चार-पांच दिनों के लिए परिवार के कुछ सदस्य आते हैं तो ये सोफा और कुर्सियां इतराती हैं, अपने को सौभाग्यवान मानती हैं कि चलो कोई तो आया।

पलायन कर चुके प्रवासी गाहे-बगाहे साल-दो साल में एक बार आ ही जाते हैं। लेकिन कुछ घरों में अब भी वर्षों से ताले लगे हैं, बदलते परिवेश में रिश्तों पर चढ़ गई धूल की चादर

इस मकान के हाॅल यानी बैठक में पुरानी यादें जुड़ी हैं। संयुक्त परिवार की। बैठक में संयुक्त परिवार की निशानियां ही शेष हैं। परिवार के कुछ सदस्यों की शादियों की फोटो हैं तो कुछ रिश्तों की। हाॅल में टंगी फोटो बताती है कि अब रिश्तों पर भी धूल की चादर चढ़ चुकी है। पटवड़ यानी दीवार के अंदर बना वह स्थान जहां कुछ सजावटी या पूजा का सामान रखा जाता है, वहां परिवार की कुछ टूटे फ्रेम वाली तस्वीरें हैं। ये तस्वीरें रिश्तों और संयुक्त परिवार की टूटन की दुखभरी दास्तां बयान कर रही है। परिवार की बुजुर्ग महिला जमोत्री देवी बताती हैं कि शायद दस साल हो गये होंगे, तबसे परिवार के दूसरे नम्बर और चौथे नम्बर के बेटे के परिवार का कोई भी सदस्य गांव नहीं आया। सुख-दुख में नहीं। गांव की माटी की सुंगध उन्हें खींच नहीं पाती।

जून के महीने में यहां चार-पांच दिनों की हलचल होती है जब गांव के कौथिग के लिए परिवार के कुछ सदस्य यहां आ जाते हैं। इस परिवार के अधिकांश सदस्य  पलायन कर गये हैं। इनमें से भी अधिकांश का नाता अब गांव से टूट चुका है। सब परदेस में हैं और सबकी अपनी समस्याएं हैं। समस्याएं माटी प्रेम पर भारी पड़ रही हैं। आखिर आएं भी तो क्यों? जो छूट गया है और जहां से रोजी-रोटी नहीं है तो वहां से क्या मतलब?गांव जाने से कहीं अच्छा है नैनीताल-मसूरी घूम आएं? फेसबुक पर तस्वीरें टांग देंगे और लाइक का इंतजार करेंगे। ढेरों लाइक मिलेंगे। बच्चे भी गर्व से बता सकेंगे कि हिल स्टेशन गये थे। नहीं तो ससुराल ही हो आएंगे। ससुराल गांव की माटी से कहीं अधिक अच्छा है। गांव की बात तो शेयर भी नहीं कर सकते। मन में चोर बैठा है कि कहीं शहरी कहेंगे गंवार कहीं के। पर यह बात उन्हें नहीं पता कि गांव से ही तो शहर बसे हैं। शहर का अपना कोई नहीं। शहर भी भला किसी का हुआ है क्या? परिवार का मंझला बेटा हीरामणी जखमोला फौज से रिटायर्ड है और अब गांव में अकेले ही लगभग 35 सदस्यीय जखमोला परिवार का झंडा उठाए हुए हैं।

यह कहानी पौड़ी गढ़वाल के चमाली गांव के जखमोला परिवार की है। लगभग डेढ़ सौ परिवारों का गांव है चमाली। गांव में ब्राह्मण, क्षत्रिय और दलित सभी रहते हैं। आसपास के दूसरे गांवों की तुलना में यह अधिक संपन्न है क्योंकि यहां से सर्वाधिक पलायन हुआ है। लेकिन वर्ष भर में यहां अधिकांश लोग कौथिग के नाम पर कुछ दिनों के लिए एकत्रित हो जाते हैं। लेकिन कई घर ऐसे हैं जिनका नाता गांव से पूरी तरह टूट चुका है। विनोद, कुलदीप व अनूप रावत तीन भाइयों की रिश्तों के टूटने और गांव छूटने की कथा भी भाव-विभोर करने वाली है। भारतीय गुप्तचर संस्था राॅ में अधिकारी प्रदीप उर्फ पप्पू रावत का भी अब गांव से नाता नहीं है। उनके मकान की छत टूट चुकी है और दरवाजे पर लटका ताला पलायन की दुखद कथा बयां करता है। मनमोहन रावत, शम्भूनाथ और दिनेश डंडरियाल के परिवार की कथा भी कुछ अलग नहीं है। यहां तक कि गांव के कुछ दलित परिवार भी पलायन कर चुके हैं। यह कहानी अकेले चमाली गांव की नहीं है। इस गांव से सटे सतपाली, बडे़थ, थापला, दूणी, मंजेड़ी आदि गांवों में भी यही स्थिति है।

जीवन के चार दशक मुंबई में बिताने वाले गांव के निवासी रघुनाथ रावत के बेटे आनंद रावत का कहना है कि चूंकि वह मराठी नहीं हैं तो उन्हें नौकरी में कोई प्राथमिकता नहीं मिलती। दोयम दर्जेे का नागरिक समझा जाता है। आनंद की बोली का अंदाज, कपड़े पहनने का अंदाज और आचरण मराठी सा है। वह पैदा भी मुंबई में हुआ, लेकिन महाराष्ट्र ने उसे नहीं अपनाया। नौकरी में भी नहीं और संस्कृति ने भी नहीं। वह वर्षों बाद गांव पहुंचा तो खुश है कि गांव तो अपना है। यही सच्चाई है। रोजी-रोटी की तलाश में दिल्ली, मुंबई, लखनऊ, हरियाणा या विदेश कहीं भी चले जाओ, गांव से नाता कैसे तोड़ोगे? पहचान तो गांव से ही मिलती है।

अब दुख-सुख का साथी है शराब

गांवों से पलायन और आधुनिकता ने सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया है। पहले गांवों में सुविधाएं व संपन्नता नहीं थी तो दुख-दर्द साझा होता था, लेकिन अब सुख साझा है और दुख सिर्फ अपना। गांव में शादी-ब्याह समारोह में शराब के बिना कोई काम नहीं होता। यहां तक कि अब मृतक के अंतिम संस्कार में शामिल होने वाले लोगों को भी शराब पिलानी पड़ती है। शराब रिश्तों पर भारी है। बिना शराब के कोई काम नहीं होता है, पूजा-पाठ भी नहीं। चमाली के बुजुर्ग शिव सिंह रावत के अनुसार यह नैतिकता व संस्कारों का ह्रास है। समाज किस दिशा में जा रहा है और हम भावी पीढ़ी को क्या सीख दे रहे हैं, हमें सोचना होगा ?

 

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