उत्तराखंड

सतपुली के नहीं, श्रीनगर के रास्ते चलें

इन्द्रेश मैखुरी
लगभग एक महीने के अन्तराल के बाद कल सतपुली में फिर साम्प्रदायिक बवाल का माहौल पैदा हो गया. इस बार बवाल का कारण, एक समुदाय के युवक पर गाय के साथ अप्राकृतिक हरकत करने का आरोप. इस आरोप के बाद देखते ही देखते सतपुली में साम्प्रदायिक बवाल के जैसे हालात पैदा हो गए.

यह सही बात है कि किसी निरीह पशु के साथ,अप्राकृतिक हरकत करना बेहद घिनौना कृत्य है. जिसने ऐसा किया उसे कठोरतम दंड मिलना चाहिए.लेकिन अपराधी के खिलाफ कार्यवाही करने का काम पुलिस का है और सजा देने का काम अदालत करेगी. यह काम किसी उन्मादी भीड़ के हवाले नहीं किया जा सकता है. किसी भी घटना के होते ही, जो लोग तुरंत धार्मिक उन्माद का माहौल पैदा करने पर उतारू हो जाते हैं, उन्हें देख कर तो ऐसा लगता है कि जैसे, वे इसी अवसर के इन्तजार में रहे हों. पुलिस से जो लोग निर्बाध रूप से उत्पात करने की छूट चाहते हों तो उनका मकसद समझा जा सकता है. एक महीने के अन्तराल पर ही सतपुली का दूसरी बार सुलगना कोई अच्छा संकेत नहीं है. अमनपसंद नागरिकों को चाहिए कि वे उन्मादी तत्वों के मंसूबों को कामयाब न होने दें.

इस मामले में श्रीनगर(गढ़वाल) में जिस तरह की समझदारी दिखाई गयी, उसे जरुर नजीर मानना चाहिए. कल श्रीनगर(गढ़वाल) में एक व्हाट्स एप्प ग्रुप में एक बेहद आपत्तिजनक और भड़काऊ मेसेज फॉरवर्ड हुआ. उस मेसेज को उत्तेजना फ़ैलाने के लिए उपयोग किया जाता तो निश्चित ही उसकी आग में कईयों को झुलसना पड़ता. लेकिन श्रीनगर(गढ़वाल) के संजीदा नागरिकों, पत्रकारों और व्यापार मंडल के पदाधिकारियों ने समझदारी का परिचय देते हुए, उत्तेजना और उन्माद फैला कर मामले को भडकाने के बजाय पुलिस के पास जाने का रास्ता चुना. पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज कर ली है और दोषी को अपने किए की सजा मिलेगी.

ऐसा विवेकशील कदम उठा कर श्रीनगर(गढ़वाल) के संजीदा नागरिकों, पत्रकारों और व्यापार मंडल के पदाधिकारियों ने अनावश्यक तनाव के माहौल से भी शहर को भी बचा लिया और यह भी सुनिश्चित कर लिया कि दोषी को सजा हो. वैसे यह कोई पहला मौका नहीं है, जबकि श्रीनगर(गढ़वाल) में लोगों ने इस तरह संजीदगी और विवेकशीलता से काम लिया है. लगभग साल-डेढ़ साल पहले भी, जब क्रिकेट मैच के मामले में अफवाह उड़ी तो श्रीनगर(गढ़वाल) के प्रेस क्लब और सभी पत्रकारों ने इसी तरह की संजीदगी का परिचय देते हुए नगर को अनावश्यक तनाव और उन्माद के माहौल से बचा लिया था. उस समय पत्रकार उत्तेजना की रौ में बह गए होते तो वे अखबारों में फ्रंट पेज पर बाई लाइन पाते, टी.वी.पर भी पी.टी.सी. और फोनो के जरिये छाये रहते. लेकिन श्रीनगर(गढ़वाल) के पत्रकारों ने अपने को लाइमलाइट में लाने के बजाय, शहर और उत्तराखंड के अमन-ओ-चैन को तरजीह दी और इस तरह न केवल श्रीनगर(गढ़वाल) को बल्कि पूरे उत्तराखंड को भी, साम्प्रदायिक उन्माद की चपेट में आने से बचा लिया. उत्तराखंड को ही नहीं, पूरे देश को इस संजीदगी और विवेकशीलता की जरूरत है.

Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

To Top