उत्तराखंड

नई पीढ़ी को इतिहास से वंचित रखने की साजिश..

आखिर उत्तराखंड राज्य आंदोलन क्यों नहीं है पाठ्यक्रम में शामिल..

भाजपा-कांग्रेस नहीं चाहते कि नई पीढ़ी हो इतिहास से अवगत..

उत्तराखंड: राज्य का दुर्भाग्य है कि हमारे नये राज्य की सत्ता ऐसे नेताओं के हाथ में गई जिनकी भावना अलग राज्य के पक्ष में नहीं थी। वो अलग राज्य के विरोधी थी और राज्य बनते ही हमारे भाग्यविधाता बन गये। पिछले 20 साल में एनडी तिवारी, बीसी खंडूड़ी, हरीश रावत, विजय बहुगुणा, रमेश पोखरियाल, हरक सिंह रावत, सतपाल महाराज, इंदिरा हृदयेश समेत अधिकांश नेता ऐसे रहे हैं जो राज्य गठन से पहले भी हमारे नेता थे। जब नेता ही नहीं बदले तो राज्य का भाग्य कैसे बदलता? क्योंकि इनमें से अधिकांश नेताओं ने तो राज्य के लिए संघर्ष ही नहीं किया। जब संघर्ष, त्याग, बलिदान ही नहीं किया तो इनको नये राज्य की जनता की जनभावनाओं, आकांक्षाओं और सपनों की परवाह क्यों होगी?

 

 

राज्य आंदोलनकारी जयदीप सकलानी के कथन:- आज भी सीमांत गांव के व्यक्ति के लिए देहरादून उतना ही दूर है, जितना लखनऊ। न लखनऊ के नेताओं और अफसरों ने पहाड़ जिया और भोगा और न दून के नेताओं और अफसरों ने। पलायन रुका ही नहीं। राज्य में पिछले 20 साल में एक भी ऐसी सड़क नहीं बनी जो गांव तक जाती हो, हालांकि गांव से शहर आने वाली सड़कों का जाल बिछ गया है। इन सड़कों के माध्यम से शहर से गांव-गांव तक विकास नहीं शराब पहुंची बदले में गांवों से जवानी बटोर कर मैदानों की ओर ले गयी। दुर्भाग्य है कि हम उत्पादक नहीं बन सके। हमें बनने ही नहीं दिया गया। राज्य निर्माण की अवधारणा को हमारी नस्लों से ही दूर रखा गया है।

2000. में जो बच्चा राज्य में पैदा हुआ वो आज मतदाता है, लेकिन उसे तो पता ही नहीं है कि आखिर नये राज्य के लिए हमें क्या त्याग और बलिदान करने पड़े? क्या अत्याचार सहा। मसूरी, खटीमा गोलीकांड क्या था, श्रीयंत्र टापू पर क्या हुआ? मुजफ्फरनगर कांड में हमने क्या खोया? किसी ने महसूस ही नहीं किया कि गन्ने के खेतों की सोंधी महक के बीच गोलियों से शरीर और आत्मा कैसे छलनी हो गयी? उसने न गिरदा के हुड़के की थाप सुनी न नेगीदा के गीत सुने। उसने विकास की उत्कंठा को लेकर गांव की पगडंडी से लेकर दिल्ली के लाल किला मैदान तक उतरी माताओं के कदमों की थाप ही नहीं सुनी। उस चीत्कार को सुना ही नहीं कि बेटा, मत निहारो उस सड़क की ओर, दिल्ली जाने वाले कभी लौट कर नहीं आते। उसे राजेश रावत, यशोधर बेंजवाल, हंसा धनाई की बात न तो बतायी गई न सिखाई गयी। उसे तो यह भी नहीं बताया गया कि वीर माधो सिंह भंडारी कौन था और वीर चंद्रसिंह गढ़वाली कौन?

 

 

दरअसल, ये सब भाजपा-कांग्रेस की साजिश है। राष्ट्रीय दल नहीं चाहते हैं कि हमारा इतिहास और राज्य आंदोलन की बात बच्चों और नौजवानों को पता लगे। उनकी साजिश है कि नयी पीढ़ी की सोच में राज्य से कहीं अधिक राष्ट्रीय सोच ही केंद्रित हो। जबकि लोकतंत्र की बुनियादी समझ के केंद्र में व्यक्ति है। यदि व्यक्ति खुशहाल होगा तो परिवार, गांव, प्रदेश और राष्ट्र समृद्ध होगा। इतिहास गवाह है कि जिनका इतिहास नहीं होता वो जाति, समाज और राज्य समाप्त हो जाते हैं। चुनी हुई तानाशाह सरकारों ने पिछले 20 साल में यही किया है कि हमारी भावी पीढ़ी को उत्तराखंड राज्य आंदोलन का इतिहास ही नहीं पढ़ाया। ऐसे में युवा पीढ़ी का पहाड़ पहाड़ियत और हिमालय के प्रति कोई लगाव नहीं हो सका। क्षेत्रीय दलों को पनपने का अवसर भी इसीलिए नहीं मिला कि हमारी नई पीढ़ी को एहसास ही नहीं है कि हमें अलग राज्य क्यों चाहिए था? राज्य निर्माण के बाद न तो पलायन रुका, न रोजगार मिला और न ही हम उत्पादक रहे।

मेरा ये कहना है कि अब भी मौका है संभलो, एकजुट हो जाओ, भाजपा और कांग्रेस के बहकावे में मत आओ। यदि पहाड़ बचाना है तो क्षेत्रीयता को अपनाना होगा। सरहदों में हम पहाड़ी रोज अपनी जान गंवाते हैं, लेकिन अपने राज्य के लिए हम कितना संघर्ष और त्याग करते हैं? यह सोचने की बात है। देश तो राज्य से ही बनता है। यदि राज्य ही खुशहाल नहीं होगा तो देश खुशहाल और समृद्ध कैसे हो सकता है? देश के साथ ही प्रदेश भावना का भी विकसित होना जरूरी है। हमें उत्तराखंड राज्य आंदोलन को पाठ्यक्रम में शामिल करने के लिए अभियान चलाना चाहिए। यह समय की जरूरत है।

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