नीत सीखें युवा, कव्वा बनने से बचें…
राज्य आंदोलन ने हमें बाबू और चपरासी दिये, नेता नहीं…
असम व झारखंड से सीखे युवा…
गुणानंद जखमोला
उत्तराखंड : गणतंत्र दिवस पर यूं ही ख्याल आ गया कि आखिर क्या कारण रहा है कि उत्तराखंड विकास की होड़ में पिछड़ गया, जबकि हमारे पास बेस्ट ब्रेन और बेस्ट मैनपावर है। मंथन के बाद यही निष्कर्ष निकाला कि राज्य आंदोलन भावनात्मक था और आंदोलनकारियों के पास विचार नहीं थे। राज्य बना, तो आंदोलनकारियों को नीत यानी नेतृत्व क्षमता नहीं विकसित हो सकी और आंदोलनकारी भाजपा और कांग्रेस के पिछलग्गू बन गये।
स्पष्ट है कि राज्य बनने का लाभ आंदोलनकारियों को नहीं हुआ और इसका लाभ भाजपा और कांग्रेस ने उठाया। परिणाम, 18 साल बाद भी अधिकांश आंदोलनकारी जो सत्ता के शीर्ष पर होने चाहिए थे, वे कव्वा बन कर सरकारों को कोस रहे हैं और कुछ भाग्यशाली आंदोलनकारी सरकारी चपरासी या अधिक से अधिक बाबू बन गये और अपनी किस्मत पर इतरा रहे हैं। मैं अपने प्रदेश के युवाओं को कहना चाहता हूं कि वो नीत यानी नेतृत्व करना सीखें, न कि कव्वा बनना। आंदोलन वो होता है जो सरकारी की चूलें हिला दें। लेकिन राज्य गठन के बाद उत्तराखंड में जितने भी आंदोलन हुए, उनका हश्र कौव्वा की तर्ज पर हुआ। कांव-कांव।
आंदोलन एक विचार है और यदि उसका असर जनमानस पर नहीं हो रहा है तो इसका अर्थ है कि हम कौव्वा बन गये। फिर क्या फर्क पड़ता है कि कितने दिनों से धरना-प्रदर्शन चल रहा है जब उसका असर नहीं पड़ना। क्योंकि सत्तासीन लोग ऐसे लोगों को आंदोलनकारी कम और कौव्वा अधिक समझते हैं। तो युवाओं को सीख है कि वो नेतृत्व करना सीखें, कव्वा बनना यानी कोसना नहीं।