आर्टिकल

हिमालय की गोद में स्थित कंकाल घाटी का रहस्य..

हिमालय की गोद में स्थित कंकाल घाटी का रहस्य..

उत्तराखंड : रूपकुंड, हिमालय की गोद में स्थित एक मनोहारी और खूबसूरत पर्यटन स्थल है, यह हिमालय की दो चोटियों के तल के पास स्थित है. त्रिशूल (7120 मीटर) और नंदघुंगटी (6310 मीटर). बेदनी बुग्याल की अल्पाइन तृणभूमि पर प्रत्येक पतझड़ में एक धार्मिक त्योहार आयोजित किया जाता है जिसमें आसपास के गांवों के लोग शामिल होते हैं। नन्दा देवी राजजात का उत्सव, रूपकुंड में बड़े पैमाने पर प्रत्येक बारह वर्ष में एक बार मनाया जाता है। कंकाल झील वर्ष के ज्यादातर समय बर्फ से ढकी हुई रहती है। हालांकि, रूपकुंड की यात्रा एक सुखद अनुभव है। पूरे रास्ते भर, व्यक्ति अपने चारों ओर से पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा हुआ होता है।

यात्री के लिए रूपकुंड जाने के कई रास्ते हैं। आम तौर पर, ट्रेकर और रोमांच प्रेमी सड़क मार्ग से लोहाजंग या वाँण से रूपकुंड की यात्रा करते हैं। वहां से, वे वांण में एक पहाड़ी पर चढ़ते है और रणका धार पहुंचते हैं। वहां कुछ समतल क्षेत्र है जहां ट्रेकर रात को शिविर लगा सकते हैं। अगर आसमान साफ हो, तो व्यक्ति बेदनी बग्याल और त्रिशूल देख सकता हैं।

 

उत्तराखंड राज्य के चमोली जिले में स्थित एक हिम झील है जो अपने किनारे पर पाए गये पांच सौ से अधिक मानव कंकालों के कारण प्रसिद्ध है। यह स्थान निर्जन है और हिमालय पर लगभग 5029 मीटर (16499 फीट) की ऊंचाई पर स्थित है। इन कंकालों को 1942 में नंदा देवी शिकार आरक्षण रेंजर एच. के. माधवल, ने पुनः खोज निकाला, यद्यपि इन हड्डियों के बारे में आख्या के अनुसार वे 19वीं सदी के उतरार्ध के हैं। इससे पहले विशेषज्ञों द्वारा यह माना जाता था कि उन लोगों की मौत महामारी भूस्खलन या बर्फानी तूफान से हुई थी। 1960 के दशक में एकत्र नमूनों से लिए गये कार्बन डेटिंग ने अस्पष्ट रूप से यह संकेत दिया कि वे लोग 12वीं सदी से 15वीं सदी तक के बीच के थे।

उत्तराखंड के पहाड़ों में 5,029 मीटर की ऊंचाई पर स्थित रूपकुंड झील अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है परन्तु इसी सुन्दरता में एक हृदय-विदारक घटना भी सदियों से दफन है. यहाँ कई ऐसे साक्ष्य मिले हैं जो वैज्ञानिकों और इतिहासकारों के लिए किसी अबूझ पहेली की तरह है. इस रहस्य को सुलझाने के लिए वैज्ञानिक, इतिहासकार, पुरातत्ववेत्ताओं, भूगर्भ विशेषज्ञों एवं जिज्ञासु पर्यटकों के कदम इस स्थान में पड़ते रहे हैं. इस स्थान को 1942 में नंदा देवी शिखर आरक्षण रेंजर एच. के. माधवल ने पुनः खोज निकाला तब से आज तक यह रहस्य बरकरार है.

हिमालय जितना ख़ूबसूरत है, उतना ही रहस्यों से भरा भी है. हिमालय के अंदर ऐसे अनगिनत राज़ छिपे हुए हैं. जो बेहद ही ख़ौफ़नाक और रहस्मयी हैं. हिमालय की इन बर्फ़ीली चोटियों के बीच एक ऐसी रहस्यमयी झील है. जिसे देखकर हर कोई चौंक जाता है.

 

क्यों रहस्यमयी है रूपकुंड झील..

पिछले सत्तर से भी अधिक बरसों से वैज्ञानिक हिमालय पर्वतमाला में पांच हजार मीटर की ऊंचाई पर छिपी हिमानी झील रूपकुंड के रहस्य की खोज में लगे हैं. उत्तराखंड राज्य में स्थित इस स्थान पर 1942 में लगभग पांच सौ से भी अधिक नर-कंकाल मिले थे. इस नर-कंकाल की आयु 1100 साल आंकी गई है. एक साथ पांच सौ से भी अधिक नर-कंकाल का मिलना अपने-आप में किसी बड़ी घटना की ओर इशारा करती है. सच्चाई के अभाव में अब यह घटना एक रहस्य बनकर रह गई है.

कंकालों से भरी झील..

समुद्र से हज़ारों फीट की ऊंचाई पर चारों ओर ग्लैशियर और पहाड़ों से घिरी है रूपकुंड झील. लेकिन अपनी ख़ूबसूरती से मन मोह लेने वाली कुदरत की गोद में यही झील भयानक राज़ समेटे हुए मौजूद है. सर्दियों में ये डरावना राज़ बर्फ़ की चादर ओढ़ लेता है पर गर्मियां आते ही बर्फ़ पिघलने के साथ-साथ ख़ूनी झील का ख़ौफ़नाक मंज़र रुह में सिहरन पैदा कर देने के लिए काफ़ी होता है.

यहां हर ओर दिखाई देते हैं सिर्फ़ और सिर्फ़ कंकाल ही कंकाल. इसी वजह से इस रहस्मयी झील को कंकाल झील और मौत की झील के नाम से भी जाना जाता है. कहते हैं, रात के अंधेरे में यहां जाने वाले कभी लौट कर नहीं आते. इसलिए यहां जाने और जान को ख़तरे में डालने का जोख़िम कोई नहीं उठाता और जो जाने का जोखिम उठाते हैं वो कंकाल बन जाते हैं.

 

पांच सौ नर-कंकाल के वैज्ञानिक मान्यताएं..

इतनी अधिक संख्या में एक साथ नर-कंकाल का मिलना कई सवालों को जन्म देता है. लंदन के क्वीन मेरी विश्वविद्यालय और पूना विश्विद्यालय के वैज्ञानिकों ने मिलकर यहाँ जो शोधकार्य किए हैं उसके नतीजे हैरान करने वाले हैं. वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इन लोगों की मृत्यु सरल रासायनिक अस्त्र से हुई थी.

अंग्रेजों की नजर सबसे पहले पड़ी..

उस वक़्त दुनिया द्वितीय विश्वयुद्ध की आग में झुलस रही थी. जब पहली बार ब्रिटिश फॉरेस्ट गार्ड की निगाह कंकाल झील पर पड़ी. तब भी सवाल यही उठा कि आख़िर ये कंकाल किसके थे ? 200 लोगों की मौत एक साथ कैसे हुई ?उस समय यही माना गया कि झील में मौजूद हड्डियां उन जापानी सैनिकों की हैं. जो द्वितीय विश्व युद्ध के समय भारत में घुसपैठ कर रहे थे. पर इसी जगह फंस गए. इसके बाद ब्रिटिश प्रशासन ने अपने लोगों को भेज कर इस बात की जांच करवाई, तो लाशें काफी पुरानी होने के कारण आशंका गलत साबित हुई. हालांकि जांच करने आया दल भी किसी अंतिम नतीजे तक नहीं पहुंच सका.

वहीं खोपड़ियों के फ्रैक्चर के अध्ययन के बाद हैदराबाद, पुणे और लंदन में वैज्ञानिकों ने यह निर्धारित किया कि लोग बीमारी से नहीं बल्कि अचानक से आये ओला आंधी से मरे थे. ये ओले, क्रिकेट के गेंद जितने बड़े थे और खुले हिमालय में कोई आश्रय न मिलने के कारण सभी मर गये.रूपकुंड यानी कंकाल झील से जुड़े वो सवाल हैं, जिनका जवाब पिछले अस्सी सालों से तलाशा जा रहा है. पर विज्ञान भी कंकाल झील की इस अबूझ पहेली को सुलझा नहीं पाया. आज तक किसी को मालूम नहीं चला कि उत्तराखंड के चमोली में मौजूद मौत की इस झील का पूरा सच क्या है. बर्फ़ पिघलते ही जो रुह कंपा देने वाला मंज़र यहां दिखाई देता है उसके पीछे का राज़ हमेशा से राज़ ही बना हुआ है.

 

जनरल जोरावर से जुड़ता है झील के कंकालों का कनेक्शन..

साल 1942 में कंकाल मिलने के बाद आज तक सैकड़ों नरकंकाल मिल चुके हैं. हर उम्र और लिंग के कंकाल पाए गए हैं. इसी के साथ कंकालों के सिर पर फ्रैक्चर भी मिले. ऐसे में जापानी सैनिकों के कंकाल से अलग माना ये भी गया कि ये कंकाल कश्मीर के जनरल जोरावर सिंह और उनकी फौज के हैं. 1841 का ये वो साल था जब जनरल जोरावर तिब्बत युद्ध के बाद वापस लौट रहे थे. माना जाता है कि इसी बीच जोरावर की टुकड़ी रास्ता भटक गई. इस पर और भी ज़्यादा बुरा तब हुआ जब मौसम भी ख़राब हो गया और क्रिकेट में इस्तेमाल होने वाली बॉल के आकार वाले ओले बरसने लगे. जिसकी वजह से उनकी मौत हो गई. वीरान इलाका होने के चलते ओलों से बचने के लिए उन्हें कहीं भी छिपने की जगह नहीं मिली.

कंकाल झील पर स्थानीय मान्यता..

स्थानीय मान्यता के मुताबिक कन्नौज के राजा जसधवल अपनी गर्भवती पत्नी रानी बलाम्पा के साथ यहां तीर्थ यात्रा पर पर निकले थे. दरअसल, वह हिमालय पर मौजूद नंदा देवी मंदिर में माता के दर्शन के लिए जा रहे थे. वहां हर 12 साल पर नंदा देवी के दर्शन की बड़ी महत्ता थी. राजा बहुत जोर-शोर के साथ यात्रा पर निकले थे. लोगो का कहना था कि बहुत मना करने के बावजूद राजा ने दिखावा नही छोड़ा और वो पूरे जत्थे के साथ ढोल नगाड़े के साथ इस यात्रा पर निकले. राजा को समझाया गया कि देवी इससे नाराज हो जाएंगी. हुआ भी वही उस दौरान बहुत ही भयानक और बड़े-बड़े ओले और बर्फीला तूफ़ान आया, जिसकी वजह से राजा और रानी समेत पूरा जत्था रूपकुंड झील में समा गया. हालांकि, इस बात की कोई भी आधिकारिक पुष्टि नहीं है.

 

300 सालों तक इकट्ठा होते रहे कंकाल..

ये सभी कंकाल एक साथ एक समय पर वहां इकठ्ठा नहीं हुए. जो भारत और आस-पास के इलाकों वाले कंकाल हैं, वो सातवीं से दसवीं शताब्दी के बीच वहां पहुंचे थे. और जो ग्रीस और आस-पास के इलाके वाले कंकाल हैं, वो सत्रहवीं से बीसवीं शताब्दी के बीच वहां पहुंचे. जो कंकाल चीन के आस-पास का बताया गया, वो भी बाद के ही समय में वहां पहुंचा था. इससे ये पता चलता है कि वहां मिले कंकाल दो अलग अलग हादसों में मरने वाले लोगों के हैं. वो हादसे क्या थे, जिनमें ये लोग मरे, उसे लेकर अभी भी एकमत होकर कुछ कहा नहीं जा सकता. कुछ कंकालों की हड्डियों में ऐसे फ्रैक्चर पाए गए जो गिरने-पड़ने, चोट खाने से लगते हैं. इससे अंदाज़ा ये भी लगाया गया कि शायद ये लोग किसी तूफ़ान में फंसे थे. भयंकर अंधड़ में. ओले भी गिरे होंगे इसमें. लेकिन वो भी एक थ्योरी ही है. अभी तक रूपकुंड के कंकालों का रहस्य सुलझना बाकी है.

1942 में मिली नरकंकालों से भरी ये झील..

रूपकुंड झील टूरिस्टों के लिए एक आकर्षण का केंद्र है. यहां रोमांचक यात्रा के शौक़ीन लोगों का तांता लगा रहता है. टूरिस्ट यहाँ ट्रैकिंग करते हुए पहुँचते हैं और इस जगह पर मौजूद नरकंकालों को देख अचंभित होते हैं. रूपकुंड झील में मौजूद नरकंकालों की खोज सबसे पहले 1942 में हुई थी.

Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

To Top