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एक जिद के आगे झुकना

चारु तिवारी

हमीं ने सजाया संवारा भी है,
जमाने पे कुछ हक हमारा भी है।
तुम्हीं ने कहा था कि कहते हैं लोग,
हमारे दुखों का किनारा भी है।
दिये जख्म हैं जिन्दगी ने तो क्या,
मुझे जिन्दगी ने निखारा भी है।
मैं घूमूं नगर-गांव थैला लिये,
है मकसद तो जीवन की धारा भी है।
लो हम चल पड़े हैं मशालें लिये,
उजालों को हमने पुकारा भी है।

जनकवि बल्ली सिंह चीमा की यह गजल उन लोगों के लिये बहुत प्रासंगिक है जो अंधरों के खिलाफ लड़ाई लड़ते हैं। डटकर। पाँच-छह साल पहले की बात है। दो-तीन युवा मेरे कार्यालय में आये। किसी के माध्यम से। नाम था उमेश पंत, भुवन सती और राजेन्द्र भट्ट। इन तीनों ने बताया कि वे एक एनजीओ चलाते हैं। मेरे लिये इसका बहुत ज्यादा महत्व नहीं था। हां, सामाजिक जीवन में होने के नाते मैंने उन्हें उसी तरह महत्व दिया जो सभी सामाजिक लोगों को देता हूं। यह बात इसलिये कि एनजीओं के प्रति मेरी राय कभी अच्छी नहीं रही। आज भी नहीं है। बात आई-गई हो गई। कुछ समय बाद लोधी रोड के साई आॅडिटोरियम में एक कार्यक्रम था। इसके समापन पर फिर ये लोग मिल गये। चूंकि हमको एक ही दिशा में आना था तो ये मेरी गाड़ी में ही आ गये। रास्ते में बहुत सारी बातें हुई। मैंने एनजीओं के बारे में अपना दृष्टिकोण भी बहुत रूढ तरीके से उन्हें बताया। ये लोग तब गाजियाबाद के बसुन्धरा क्षेत्र में निर्माण मजदूरों के बच्चों को पढ़ाने का काम कर रहे थे। मुझे अच्छा लगा कि ये लोग बिना किसी तामझाम और प्रचार के इस काम में लगे हैं। अपने घर की छतों पर ही बच्चों को पढ़ाते हैं। थोड़ी जिज्ञासा भी बढ़ी। कभी लगता कि जब सरकारें इनके उत्थान का ढिढोरा पीट रही हैं, तब लोगों को अलग से उन बच्चों के लिये काम क्यों करना पड़ रहा है। लेकिन यह भी सच है कि सरकारों की नाकामियों से कोई शिक्षा से वंचित रहे वह भी ठीक नहीं है। दो-चार ही सही अगर कुछ युवा इसे कर रहे हैं तो गलत भी क्या है।

खैर, मैं जाता या नहीं जाता यह अलग बात थी। इन लोगों ने मुझे नहीं छोड़ा। मेरे ‘अझेल’ नीतिगत भाषणों की शायद इन लोगों को आदत हो गई थी। इन्होंने इस पर ध्यान भी नहीं दिया। मेरे से जो ये करा सकते थे वह काम करा लेते। साथ में एक जुमला भी गढ़ दिया ‘हम तो हुये एनजीओ वाले’। फिर मुझे पता ही नहीं चला कि उमेश कब मुझे कहां ले जाते हैं। यह सिलसिला पिछले नौ सालों से चल रहा है। मैं ‘सार्थक प्रयास’ में हूं भी और नहीं भी। हूं इसलिये कि हर आयोजन, कार्यक्रम, नीति में रहता हूं। नहीं इसलिये हूं कि मुझे इन्होंने कभी अपना सदस्य नहीं बनाया। एक लंबा साथ गुजर गया सामाजिक सरोकारों के इन योद्धाओं के साथ। मैं और मेरे कई साथी ‘सार्थक प्रयास’ के इस अभियान में किसी न किसी रूप से जुड़ गये। हमारी ‘बेकार की बातों’ का इन पर कोई असर नहीं हुआ। हम भी इनकी ‘अच्छी बातों’ के साथ कब जुड़ गये पता नहीं चला। लगातार बसुन्धरा में जाना हुआ। बच्चों से मिलना। उनकी गतिविधियों में भाग लेना फिर नियमित हो गया। बहुत सारे बच्चे थे ‘सार्थक प्रयास’ के पास। भवन निर्माण मजूदरों के बच्चे। इन लोगों को एक जगह तो रहना नहीं था। जहां काम मिले वहां जाना था। यह अच्छा रहा कि जब ‘सार्थक प्रयास’ अपने शिक्षा की इस ज्योति को जला रहा था बसुन्धरा में निर्माण कार्य लंबे समय तक चलने वाले थे। पहले तो बच्चे मिले ही नहीं। बच्चों के अभिभावकों को समझाना भी बहुत कठिन था। फिर एक-दो करके बच्चे जुटने शुरू हुये। उनकी पढ़ने में दिलचस्पी होने लगी। कई अन्य गतिविधियों से जोड़कर उनमें आत्मविश्वास भी आने लगा। ‘सार्थक प्रयास’ ने इन बच्चों को अब स्कूलों में भी दाखिला दिलाना शुरू कर दिया। अब हर साल नये बच्चे इस अभियान में जुड़ते हैं। अब बसुन्धरा में निर्माण मजदूरों के बच्चों के अलावा बड़ी संख्या में झुग्गी में रहने वाले बच्चे भी हैं, जो शिक्षा के महत्व को समझ रहे हैं। संस्था ने इन बच्चों में आत्मविश्वास जगाने के लिये कई ऐसे कार्यक्रम दिये हैं जिनमें अब उनके अभिभावक भी उत्साह से भाग लेते हैं। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के अलावा हर महीने बच्चों के जन्मदिन मनाने की पंरपरा भी स्थापित हो गई है। इसमें वे लोग भी दिलचस्पी दिखाते हैं जिनका सामाजिक सरोकारों से रिश्ता है। वे इन बच्चों का जन्मदिन मनाने में पहल भी करते हैं। कई लोगों ने अपने बच्चों का जन्मदिन इन बच्चों के साथ मनाने की शुरुआत की है। राष्ट्रीय पर्वो और खास मौकों पर संस्था बच्चों के लिये कुछ न कुछ कार्यक्रम आयोजित करती है।

‘सार्थक प्रयास’ ने बच्चों की संख्या को देखते हुये और उनके सर्वागीण विकास के लिये आगे की बात सोची। समझा गया कि इनके लिये एक ऐसे केन्द्र की स्थापना हो जहां बच्चे नियमित आकर अपनी पढ़ाई और आपस में मिल सकें। इसके लिये एक पुस्तकालय खोलने का विचार मन में आया। बसुन्धरा में ही एक जगह लेकर पुस्तकालय की नींव रखी गई। हम लोग दिल्ली में अपने सारे पत्रकार, बुद्धिजीवी, प्राध्यापक, वकील, सामाजिक कार्यकर्ताओं के पास गये। उनसे किताबों मांगी। उन लोगों ने इस नेक काम के लिये हमें बड़ी संख्या में पुस्तकें उपलब्ध कराई। आज इस पुस्तकालय में पांच हजार से अधिक पुस्तकें हैं। इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुये ‘सार्थक प्रयास’ ने बच्चों को प्रतियोगी परीक्षाओं के लिये तैयार करने का काम किया। ‘सार्थक प्रयास’ की पहल पर कई बच्चे अब हाईस्कूल और इंटरमीडिएट भी कर चुके थे। उन्हें प्रतियोगी परीक्षाओं में मदद देने के लिये कोचिंग की व्यवस्था की गई। आज कई लोगों की मदद से संस्था के पुस्तकालय में आॅनलाइन पढ़ाई की व्यवस्था है। यहां बच्चे नियत समय पर आॅनलाइन कोचिंग ले रहे हैं। पुस्तकालय में कंप्यूटर ओर प्रोजेक्टर की भी व्यवस्था है। बच्चों को समय-समय पर अच्छी फिल्में दिखाई जाती हैं।

‘सार्थक प्रयास’ से हमारी नजदीकियां उत्तराखंड में 2010 में आई आपदा के बाद बढ़ीं। उस समय हम लोग भी ‘क्रिएटिव उत्तराखंड-म्यर पहाड़’ की ओर से राहत कार्यो में लगे थे। राज्य के विभिन्न हिस्सों के तीन हजार से ज्यादा गांव आपदा से प्रभावित थे। सुमगढ़ में 18 बच्चों की मौत के अलावा अल्मोड़ा में एक गांव पूरी तरह तहस-नहस हो गया था। यहां 14 लोगों की मौत हो गई थी। गढ़वाल में रुद्रप्रयाग, टिहरी, उत्तरकाशी और चमोली में जानमाल का भारी नुकसान हुआ। इस आपदा में लगभग 272 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। तब हम लोग अलग-अलग जगहों पर राहत का काम कर रहे थे। कई जगह साथ मिलना भी हुआ। सामूहिकता की भावना भी बढ़ी और फिर सारे काम एक साथ होते चले गये। यह सिलसिला 2013 की आपदा तक चलता रहा। ‘सार्थक प्रयास’ ने हर आपदा के समय बढ़-चढ़कर राहत कार्यो में हिस्सा लिया। दूरस्थ क्षेत्रों में जाकर जरूरतमंदो की खबर ली। इतना ही नहीं आज भी आपदा पीडित परिवारों से उनका रिश्ता बना है। संस्था लगातार असहाय, कमजोर और जरूतरमंद लोगों की मदद के लिये हमेशा तत्पर है। मरीजों को अस्पताल में मदद के अलावा ब्लड की व्यवस्था करने के अलावा जब कभी आर्थिक संसाधनों की जरूरत पड़ती है तो इसे पूरा करने के अभियान में संस्था लग जाती है।

‘सार्थक प्रयास’ की यह यात्रा थमने का नाम नहीं ले रही है। गाजियाबाद के बाद संस्था ने पहाड़ में उन बच्चों की मदद करने का फैसला लिया जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं। ऐसे में पहला पड़ाव डाला चैखुटिया में। यहां ‘सार्थक प्रयास’ को कुछ ऐसे बच्चे मिले जो निराश्रित थे। उन्हें आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया। कुछ ही समय में ऐसे बहुत सारे बच्चे गांवों में थे जिनके ऊपर से मता-पिता का साया उठ गया था। कई बच्चे ऐसे थे जिनके परिवार में कमाने वाला कोई नहीं था। बहुतों के मां-बाप किसी बीमारी से ग्रस्त थे। कुछ आर्थिक रूप से बहुत कमजोर थे। ऐसे 60 बच्चों की शिक्षा, भोजन, कपड़े आदि की व्यवस्था का जिम्मा संस्था ने लिया। इन बच्चों में जीवन के प्रति नया उत्साह पैदा हुआ। बच्चों में आत्मविश्वास और आत्मसम्मान का भाव लाने के लिये उन्हें मुख्यधारा के साथ जोड़ने का काम किया गया। पढ़ाई के अलावा उनकी नैसर्गिक प्रतिभा को बढ़ाने के लिये उन्हें अन्य गतिविधियों से भी जोड़ा गया। इन्हें दिल्ली जैसे शहर में लाया गया। दिल्ली दिखाने के बाद राजेन्द्र भवन में इन बच्चों ने अपनी सांस्कृतिक प्रस्तुतियां दी। इस समारोह में देश के कई शिक्षाविदो, बुद्धिजीवी, पत्रकार, सामाजिक कार्यकत्र्ताओं ने शिरकत की। सभी ने बच्चों की इस प्रतिभा की भूरि-भूरि प्रसंशा की। इन्हीं बच्चों में दो इस बार पाॅलीटेक्नीक परीक्षा में निकले। दो बच्चे ग्रेजुएशन कर रहे हैं। ‘सार्थक प्रयास’ ने चैखुटिया में इन बच्चों के लिये एक पुस्तकालय की स्थापना की। इस पुस्तकालय में इस समय तीन हजार से अधिक पुस्तकें हैं। बच्चों के लिये कंप्यूटर की व्यवस्था भी है। अभी और बहुत सारे बच्चों को संस्था ने चिन्हित किया है। ‘सार्थक प्रयास’ हर साल इन बच्चों के उत्साहवर्धन के लिये अपना ‘स्थापना दिवस’ मनाती है। इसमें बच्चों द्वारा कई सांस्कृतिक प्रस्तुतियां दी जाती हैं। पिछले वर्ष डा. आशुतोष उपाध्याय जी के नेतृत्व में ‘प्रथम’ संस्था ने तीन दिन का बाल विज्ञान मेला आयोजित किया। इस बाल मेले में दो सौ से अधिक स्कूली बच्चों ने भाग लिया। इन बच्चों ने विज्ञान के कई ऐसे माॅडल बनाये जो दर्शकों को अचंभित करने वाले थे। संस्था अपने स्थापना दिवस पर एक स्मारिका का भी प्रतिवर्ष प्रकाशन करती है। ‘दृष्टि’ नाम से प्रकाशित होने वाली यह स्मारिका हर वर्ष किसी विषय पर केन्द्रित रहती है। अभी तक ‘शिक्षा के अधिकार’, ‘महिला सशक्तीकरण’, ‘बच्चों पर केन्द्रित’ अंक प्रकाशित हो चुके हैं। इससे पहले भी स्मारिका के तीन अंक प्रकाशित हो चुके हैं। चैखुटिया में इस काम को संस्था के श्री पवन तिवारी और उनकी जीनसंगिनी श्रीमती हेमलता तिवारी बड़े मनोयोग से देखती हैं। चैखुटिया में इस पुस्तकालय को विस्तार देकर एक सांस्कृतिक केन्द्र की स्थापना करना है।

‘सार्थक प्रयास’ ने चैखुटिया के अलावा केदार घाटी में आपदा से प्रभावित परिवारों के बच्चों को भी सहायता देना शुरू किया है। केदार घाटी में 14 बच्चे संस्था ने चिन्हित किये हैं जिन्हें पढ़ाई, फीस, भोजन, कपड़ों की सहायता दी जा रही है।संस्था ने पिछले दिनों एक और प्रयास किया था सीमांत जिला पिथौरागढ़ के जौलजीवी में। यहां ‘वनराजि’ के बच्चों की शिक्षा का जिम्मा ‘सार्थक प्रयास’ उठा रहा था। यहां सत्तर के दशक से एक संस्था इन बच्चों की पढ़ाई के लिये एक आवासीय विद्यालय चलाती थी। इस वर्ष से उन्होंने इसे चलाने में असमर्थता जाहिर की। संस्था ने सोचा कि इन बच्चों का भविष्य नहीं बिगड़ना चाहिये। इसलिये एक पहल की थी। जब संस्था ने इससे हाथ खींच लिये तो उनके सामने रोटी का संकट भी आ गया था। ‘सार्थक प्रयास’ ने इन बच्चों के लिये दो माह के भोजन की व्यवस्था की। सोचा था कि इन बच्चों को इसी आवासीय विद्यालय में रखा जायेगा। इस पिद्यालय को पांचवीं से आठवीं तक उच्चीकृत किया जायेगा। इसके लिये शिक्षा विभाग में भी सारी कार्यवाही और आवश्यक शुल्क जमा कर दिया था। इसे कैसे चलायेंगे इसका एक विस्तृत खाका भी प्रशासन को दिया था। यहां यह जानना भी जरूरी है कि प्रशासन इस विद्यालय के लिये कुछ नहीं करता। सिर्फ समाज कल्याण विभाग का भवन है जिसमें यह विद्यालय चलता है। अभी तक यह केन्द्रीय सहायता से चलता था। अब उन्होंने भी इसे बंद कर दिया है। राज्य सरकार के पास इसकी कोई योजना नहीं है। फिर भी कुछ अधिकारियों ने अपनी अफसरशाही की जिद में इसे नहीं होने दिया।

‘सार्थक प्रयास’ को जितना मैं जानता हूं उसका यह एक छोटा हिस्सा है। उमेश और उनके साथियों राजेन्द्र भट्ट, भुवन सती, रवि शर्मा, परमानंद पपनै, सुभाष जोशी, भुवन चन्द्र जोशी, पूनम कांडपाल, सुमन प्रकाश, प्रेमबल्लभ जोशी, पत्रकार केवल तिवारी, सुषमा पंत, देवेन्द्र भट्ट, अतुल सिंह, विनोद शाही, हंसा अमोला, प्रियधर जमलोकी, बुद्धिबल्लभ जमलोकी, हेमंत डोबिरयाल जैसे लोग हैं जो लगातार इस मुहिम के आगे बढ़ाने में ंलगे हैं। चैखुटिया में पवन तिवारी, हेमलता तिवारी, बालादत्त, गिरीश चन्द्र भट्, मनोज, उमराव सिंह, नन्दाबल्लभ, पावन कुमार पांडे, डाॅ. मोनिका पाठक, किरण त्रिपाठी और भास्कर जोशी हैं।

जैसा कि मैंने पहले जिक्र किया कि हमारी सलाह इन जिद्दी लोगों के लिये ज्यादा मायने नहीं रखती। उमेश ने कह दिया है कि हम आपकी सारी ‘आलतू-फालतू’ बातें सुन लेंगे, लेकिन हम जो कहेंगे वही होगा। आपको जो करने के लिये कहें उसे कर दें। मैं भी उनकी जिद के आगे कुछ नहीं कर सकता। ठीक है जो बन पडेगा। हम भी करते ही रहेंगे। मुझे पता है, नहीं भी करूंगा तो तुम करवा लोगे। फिलहाल जो संकट है वह संसाधनों का है। इतने सारे बच्चों की जरूरतों को पूरा करना अब कठिन हो रहा है। अभी तक कुछ कोरपोरेट थे सीएसआर से मदद मिल रही थी। अब वो भी बंद हो गई है। यही ‘सार्थक प्रयास’ का सबसे बड़ा आधार रहा है। अब इसे कैसे पूरा किया जाये इसी उधेड़बुन में संस्था लगी है। हम लोगों से अपील करते हैं कि एक सार्थक दिशा में हो रहे काम में अगर किसी भी प्रकार की मदद हम लोग कर सकें तो वह बहुत सारे बच्चों को शिक्षा और जरूरमंदों के काम आ सकती है। किसी कोरपोरेट के सीएसआर, अपने संपर्को और व्यक्तिगत रूप से आप अगर ‘सार्थक प्रयास’ की मदद करेंगे तो आपके आभारी रहेंगे। आपसे एक निवेदन यह भी है कि आप समय निकालकर कभी बसुन्धरा और चैखुटिया के पुस्तकालयों में जरूर आयें आपको अच्छा लगेगा।

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