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ऋषि मुनियों की तपस्थली है केदारघाटी

हरीश गुसाईं/दीपक बेंजवाल
केदारघाटी देवभूमि के नाम से विख्यात उत्तराखण्ड वास्तव में प्राचीनकाल से देवताओं, ऋषि – मुनियों की तपस्थली रही है। पंच बदरी, पंच केदार, पंच प्रयाग सहित अनेक तीर्थ एवं पवित्र धाम इसी तथ्य की ओर संकेत करते हैं। चाहे फूलों की घाटी नाम से प्रख्यात गंध मादन पर्वत हो या सवामी कार्तिकेय की तपस्थली स्कंद पर्वत, पांडव सेरा का मनोरम बुग्याल हो या रूद्रप्रयाग की नैसर्गिक छटा या पंवालीकांठा का विहंगम प्राकृतिक सौंदर्य।

गंगा, यमुना के उद्गम स्थलों के मनोहारी दृश्य हों या पवित्र केदारनाथ, बदरीनाथ, त्रियुगीनारायण, गंगोत्री, यमुनोत्री, मद्महेश्वर, तुंगनाथ धाम हो ये सब साक्ष्य हैं देवभूमि की प्रासंगिकता का। न जाने किस युग में या कालखण्ड में कौन देवता या महाऋषि आकर इस पवित्र भूमि में तप करके कालजयी बन गये। जनपद चमोली में मण्डल के पास ऋषि अत्रि व सती अनसूया का पवित्र धाम है तो रूद्रप्रयाग जनपद में फाटा के पास जमदग्नि ऋषि का आश्रम रहा है यहां पर पवित्र केंडका नदी तथा जमदग्नेश्वर महादेव का मन्दिर अभी भी निरन्तर पूजित है।

ऐसे ही रूद्रप्रयाग से 17 किमी दूर केदारनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित मन्दाकिनी के बांये तट पर महर्षि अगस्त्य का पुण्य क्षेत्र जो कि अगस्त्य ऋषि के नाम पर ही अगस्त्यमुनि कहलाता है। महर्षि अगस्त्य जिनका वृतान्त वेदों, पुराणों, उपनिषदों सहित वाल्मीकि रामायण, रामचरित मानस, अध्यात्मक रामायण, अगस्त्य तन्त्र, रूद्रायामल तन्त्र यहां तक कि आयुर्वेदिक निघंटुओं में भी मिलता है। अपने जीवन पर्यन्त महर्षि ने बहुत कुछ अलौकिक किया है। मित्रावरूण ऋषि के पुत्र महर्षि वशिष्ठ के अनुज महर्षि अगस्त्य का जीवन वृत्त अपने में विचित्र, रहस्यमय, एवं कठिन संघर्षों से युक्त है। अति अगाध तप करने के कारण समस्त देव एवं ऋषि समुदाय द्वारा अगस्त्य उपाधि से अलंकृत किया गया। वैसे घड़े से जन्म लेने के कारण कुम्भज नाम मिला था। अगस्त्य तन्त्र में आया है –

आतापी भक्ष्यते येन वातापि च महाबली।
समुद्र पोषिते येन कुम्भ योनी नम: स्तुते।।
पितृकार्य सम्पादित करने, पितृ ऋण से उऋण होने हेतु महर्षि ने भगवती लोपामुद्रा से विवाह कर गृहस्थ प्रारम्भ किया। इसी के चलते अपने शिष्य विन्घ्याचल का मान मर्दन करते हुए दक्षिणापथ को प्रस्थान किया। वहां के समस्त वासियों को, जो कि कोल, भील, द्रविड़ जाति के बनवासी ही थे, को वैदिक संस्कृति का पाठ पढ़ाकर लंकापति त्रिलोकजयी रावण वध में श्री राम के सहायक बने। तत्पश्चात् कुछ काल के बाद महर्षि अगस्त्य पूर्वी द्वीप समूह की ओर प्रस्थान कर गये। सनातन धर्म की वैदिक धारा का प्रचार करते हुए महर्षि अगस्त्य ने जावा, सुमात्रा, वर्मा, श्याम, थाईलेण्ड, वियतनाम (प्राचीन नाम प्रागज्योतिष) तक अथक भ्रमण किया।

अति विस्तृत एवं दुर्गम क्षेत्रों के मानवों को अपना तप बांटते हुए पूर्वोततर के मार्ग से महर्षि अगस्त्य आ पहुंचे केदारखण्ड में। यहां पर ध्यान देने वाली बात यह है कि महर्षि अगस्त्य ने अपने शिष्य विन्ध्याचल पर्वत को झुकाते हुए कहा था – पुत्र विन्ध्याचल जब तक मैं दोबारा लौटकर तुम्हारे पास नहीं पहुंच जाऊं तुम इसी प्रकार झुके रहना। और अभी तक अगस्त्य वहां लौटकर नहीं गये हैं।

नाना पर्वतों की वायु का सेवन करते हुए तपलीन होते – होते वर्तमान सिल्ला गांव में पहुंचे। जहां पर भगवान शंकर का एक सिद्धपीठ सिल्हेश्वर महादेव नाम से भव्य मन्दिर प्रसिद्ध है। (यह स्थान अगस्त्यमुनि से आठ किमी दूर मन्दाकिनी के दूसरी ओर स्थित है।) यहीं पर अगस्त्य ऋषि द्वारा आतापी एवं वातापी नामक मायावी राक्षसों का संहार कर ग्रामीणों को उसके अत्याचारों से मुक्त किया। महर्षि अगस्त्य का वर्तमान मन्दिर, जो कि नाकोट ग्राम के अन्तर्गत स्थित है, का निर्माण लगभग दो सौ वर्ष पूर्व ही हुआ था। इससे पूर्व मन्दिर वर्तमान स्थल से एक किमी उत्तर की ओर केदारनाथ मार्ग पर स्थित पुराना देवल नामक स्थान पर था। अनुमान किया जाता है कि सन् 1803 में गढ़वाल में भयंकर बाढ़, वर्षा एवं भूकम्प का प्रकोप हुआ था। इसी के फलस्वरूप पुराना देवल वाला मन्दिर टूट गया और महर्षि अगस्त्य का समस्त विग्रह परिवार नदी की भयंकर बाढ़ में बह चला।

उसी विग्रह परिवार में एक लौह शलाका रूप में शमशान वीर का निशान भी बह चला। जोकि वर्तमान इण्टर कालेज अगस्त्यमुनि के नीचे चट्टान के दो बड़े शिलाखण्डों के बीच अटक गया। लौह शलाका पर महर्षि अगस्त्य मन्दिर का सारा विग्रह परिवार अटक गया। इसमें सबसे मूल्यवान (तप से प्राप्त) वस्तु जो थी वह अति प्रकाशवान, दिव्य तेजयुक्त किसी धातु से निर्मित यन्त्रमण्डल एक ताम्रपत्र में स्थित थी। उच्च कोटि के चिन्तन मनन एवं गवेषणा रत विद्वानों का मत है कि वह और कुछ नहीं महर्षि अगस्त्य की परम अद्भुत आधार शक्ति श्री यन्त्र ही है।

जिसे तत्कालीन नाकोट ग्राम के मालगुजार द्वारा स्वप्नादेश के साथ काले कम्बल में लपेटकर वर्तमान मन्दिर में स्थापित किया गया। तत्पश्चात् सारा विग्रह परिवार लाकर विधि विधान से मन्दिर के गर्भ गृह में स्थापित कर पूजित है। चँूकि महर्षि अगस्त्य पूर्व में सूर्य के परम उपासक रहे हैं तथा आदित्य सिद्धि योग के सिद्ध थे। कालान्तर में मायावी राक्षसों से युद्ध हेतु उन्हें शाक्त मत में भी दीक्षित होना पड़ा। अत: यहां महर्षि अगस्त्य की लम्बी अवधि तक नि:ष्काम भक्ति करने से आत्मबल की बृद्धि एवं साक्षात् आदित्य भगवान का तेज अंश प्राप्त होता है।

साथ ही यहां पर गर्भ गृह में बन्द कूप में ताम्रप्रस्थ से ढ़के परम दिव्य तेज पुंज युक्त श्रीयन्त्र के प्रभाव से अद्याशक्ति का आशीर्वाद प्राप्त होकर मनोकामनायें पूर्ण होती है। वैशाखी के शुभ अवसर पर इस स्थान पर एक पौराणिक मेला लगता है। मान्यता है कि वैशाखी पर्व पर जो व्यक्ति गंगा स्नान कर मंदाकिनी का जल अगस्त्य महर्षि व पास में स्थित भगवान शिव पर चढ़ाता है वह पुण्य प्राप्त कर धन्य हो जाता है।

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