उत्तराखंड

सियासत से बदरंग होती उत्तराखंड की फिजा

सियासत से बदरंग होती उत्तराखंड की फिजा

योगेश भट्ट
अपराध तो अपराध है, न इसकी कोई जाति है न ही कोई धर्म। अपराधी न हिंदू होता है और न मुसलमान। ऐसा कैसे संभव है कि मुसलमान अपराध करे तो बड़ा और हिंदू करे तो वो छोटा। अपराध मुसलमान से हो जाए तो बवाल और हिंदू से हो जाए तो सन्नाटा ! अब कोई शक नहीं कि उत्तराखंड की शांत फिजाओं में सांप्रदायिकता का जहर धीमे धीमे घुलने लगा है, अपराधिक घटनाओं को भी जिस तरह सांप्रदायिक रंग दिया जा रहा है वह सौहार्द के लिए खतरनाक संकेत हैं।

हालात बेहद नाजुक स्थिति में हैं, पहाड़ थर्रा रहा है लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि समाज के ठेकेदारों को चिंता पहाड़ में बढ़ते अपराध और अपराधिक प्रवृति की नहीं बल्कि धर्म, संप्रदाय और सियासी समीकरणों की है। जबकि असल सवाल यह है कि किसी भी बहन-बेटी को हवस का शिकार बनाने की छूट किसी को नहीं दी जा सकती, चाहे वो मुसलमान हो हिंदू हो या फिर कोई और। कानून हर किसी के लिये एक है, हिंदू अगर यह अपराध करे तो वह भी उतना नफरत का पात्र है जितना मुसलमान। तो फिर इसमें हिंदू और मुसलमान का सवाल ही कहां उठता है ? लकिन अपने प्रदेश में पिछले कुछ समय से अपराध भी संप्रदायों में बंट चुका है। अभी पिछले कुछ दिनों में सतपुली, कोटद्वार, पौडी, श्रीनगर, रायवाला में कुछ घृणित घटनाएं घटित हुईं।

लगभग सभी घटनाएं बालिकाओं के साथ दुराचार या दुष्कर्म से जुड़ी रहीं, घटनाओं का उल्लेख यहां जानबूझकर नहीं किया जा रहा है। हर घटना के बाद स्थिति हिंदू और मुसलमान के बीच तनावपूर्ण हुई है, लेकिन हर बार भड़काऊ कोशिशें नाकाम रही हैं। संवेदनशील जागरुक लोगों ने आगे आकर अप्रिय स्थिति को टाला है। बड़ी तसल्ली यह भी है कि हर घटना में कानून ने अपना काम बखूबी किया है, पुलिस प्रशासन ने पूरी चौकसी रखी । कानून ने अपना काम रायवाला की घटना पर भी किया, लकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि पूरा मामला जानते-बूझते भी यह घटना सांप्रदायिक रंग पकड़ गई।तमाम बेगुनाहों को नुकसान उठाना पडा, प्रदेश को लेकर एक बडा गलत संदेश गया। किसने दिया इसे यह रंग, जबकि अपराध और अपराधी सब कुछ कानून के सामने था?

क्या उपद्रव सिर्फ इसलिए क्योंकि जिसकी हत्या हुई वह हिंदू था ? सवाल यह है कि मुसलमान के घृणित कृत्य पर सवाल उठाने वाले हिंदू के घृणित कृत्य पर मौन क्यों? निसंदेह हत्या एक बड़ा अपराध है, और कानून हाथ में लेने का अधिकार किसी को नहीं, लेकिन एक सवाल यह भी है कि मृतक ने जो घृणित कृत्य किया वह क्षम्य कतई नहीं हो सकता। अपराध अपनी जगह है लेकिन यह भी सत्य है कि इंसानियत के नजरिए से देखा जाए जो मृतक कतई भी संवेदना का पात्र नहीं है। जहां तक हत्या जैसे अपराध का सवाल है तो पीड़ित पक्ष होने के बावजूद हत्या के अपराध में अपराधी कानून की गिरफ्त में हैं। तो फिर उपद्रव क्यों? मुसलमानों को निशाना बनाकर उपद्रव मचाना आखिर सोची-समझी साजिश नहीं तो क्या है ?

यूं ही तो कनखल हरिद्वार से लेकर ऋषिकेश तक आग नहीं भड़की। कल्पना कीजिए, जिस तरह की कोशिश की गई, यदि यह आग प्रदेश के दूसरे इलाकों और पहाड़ की ओर रुख कर गई होती तो क्या होता? उधर अभी यह मामला ठंडा भी नहीं हुआ कि हाल ही में कोटद्वार में हुई एक अन्य घटना ने तनाव पैदा किया हुआ है। रायवाला की घटना के बाद हुआ यह है कि सड़क पर उतरने वालों की हिम्मत बढ़ी है। कोटद्वार में हुई मारपीट इसका प्रमाण है।

यह स्थिति प्रदेश के लिए ठीक नहीं, चिंताजनक यह है कि सियासतदाओं का रुख ठीक नहीं है। आज प्रदेश में भाजपा की सरकार है तो आरोप है कि मुसलमान असुरक्षित है, सांप्रदायिक रंग दिया जा रहा है। तो एक सच यह है भी है कि पुरानी कांग्रेस सरकारों का रुख भी ईमानदाराना नहीं रहा है। अच्छे-बुरे लोग किस समाज में नहीं होते, लेकिन सियासत ने वोट बैंक के खेल में अच्छे बुरे का भेद भी खत्म कर दिया है। आज जो हालात हैं उसके लिये हर सरकार दोषी है, सिर्फ सरकार ही नहीं प्रदेश का समाज भी दोषी है।

आज सवाल पहाड़ की छवि का है उसकी पहचान का है। मुसलमान प्रदेश के लिये कोई नए नहीं हैं,बड़ी संख्या में पीढ़ियों से मुसलमान यहां रहते आए हैं और यहां की संस्कृति में रचे बसे हैं। पहले कभी इस तरह का माहौल नहीं रहा, न ऐसे घृणित कृत्य हुए और न ऐसी सियासत। सरकारें और समाज आज पलायन का रोना रोते-रोते यह भूल रहे हैं शायद कि डेढ़ दशक में बडी संख्या में अन्यत्र स्थानों से लोग यहां आकर बसे हैं। अपनी सरकारों और प्रशासन के पास इसका कोई अनुमान तक नहीं है, लेकिन एक आंकड़ा कहता है कि पांच साल में नौ लाख से अधिक मतदाता बढ़े हैं। कायदे से यह आंकड़ा चिंता का विषय होना चाहिए, लेकिन इसकी चिंता करे कौन ? जिन्हें चिंता करनी है वे इसमें अपना गणित तलाशते हैं, उनकी पूरी सोच और सियासत टिकी ही इस पर है। अब देखिए, नारा भले ही स्वच्छता का दिया जाता हो, दावे स्मार्ट शहरों के होते हों लकिन नेताओं की आत्मा रमती मलिन बस्तियों में ही है।

कौन है इन बस्तियों में, कहां से आया, क्यों आया, किसने बसाया, किसकी क्या पृष्ठभूमि है ? इसका कोई ब्यौरा सरकार के पास नहीं, जबकि एक संवेदनशील राज्य के लिए क्या यह जरूरी नहीं ? जिस तरह के सवाल आज उठ रहे हैं उससे निसंदेह सांप्रदायिक खतरे बढ़ रहे हैं। ऐसा नहीं है कि इस दौर में सिर्फ मुसलमान ही उत्तराखंड में आए, हिंदू और अन्य भी आए हैं लेकिन आज कथित तौर पर खतरा यही बने हुए हैं। दरअसल आज असल सवाल है पहाड़ की पहचान का, उसके वजूद का, उसकी संस्कृति और सांप्रदायिक सौहार्द का। इतिहास गवाह है सांप्रदायिक सौहार्द उत्तराखंड की परंपरा रहा है।

आज बड़ी जरूरत इसी को सहेजने की है, जरूरत है कि इस सौहर्द को बदरंग होने से बचाने की।यह नहीं भूलना चाहिए कि उत्तराखंड में जिस तरह हिंदू की अलग पहचान है उसी तरह मुसलमान, सिख और इसाई की भी अलहदा पहचान है। उत्तराखंड को खतरा इनसे नहीं, बल्कि खतरा उनसे है जिनकी पहचान का पता नहीं है और जो सांप्रदायिक सौहार्द की परंपरा का हिस्सा नहीं है। अभी भी वक्त है संभलो… जागो…

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