उत्तराखंड

सपनों के सौदागरो.. होश में आओ… होश में आओ..

योगेश भट्ट
श्रीनगर : सुनो.. सपनों के सौदागरो, जनता की आवाज सुनो.. उसके दर्द को महसूस करो । सुनो.. क्योंकि सिर्फ सपनों से न पेट भरता है और न जनता की जरूरतें पूरी होती है। हर बड़ा सपना तब तक बेमानी है जब तक कि प्रदेश के अस्पतालों को अदद डाक्टर, स्कूलों को मास्टर, हर गांव शहर को पीने का साफ पानी,सडक, बिजली और हर हाथ को रोजगार नहीं मिल जाता। सरकार ‘मजबूत’ हो या ‘मजबूर’ हर सरकार की पहली जिम्मेदारी भी यही है और इसके लिये अगर जनता को आंदोलन करना पड़े, आमरण अनशन सरीखे ब्रहमास्त्र का इस्तेमाल करना पड़े तो फिर यह सरकार के लिये ‘धिक्कार’ है ।

सरकार अगर ऐसे आंदोलनों की अनदेखी करने लगे तो यह और भी दुर्भाग्यपूर्ण है, तब तो सरकार के औचित्य पर ही सवाल उठ खड़ा होता है । सरकार के औचित्य पर ऐसा ही सवाल इन दिनों उत्तराखंड के एक प्रमुख नगर श्रीनगर में खड़ा है। जहां पिछले तकरीबन 200 दिन से भी अधिक समय से जनता सिर्फ इसलिये आंदोलनरत है क्योंकि उन्हें श्रीनगर में पीने का साफ पानी चाहिये, अस्पताल में अदद डाक्टर चाहिये और वर्षो से खानाबदोश की तरह चल रहे एनआईटी के लिये भवन चाहिये । इन तीनों में कौन सी ऐसी मांग है जो सरकार पूरा नहीं कर सकती ।लेकिन अफसोस, दो सौ दिन बीतने के बावजूद न अफसरों ने सुध ली न सरकार ने । सरकार की अनेदखी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अपनी बात सरकार तक पहुंचाने के लिये जनता को आमरण अनशन जैसा कठोर फैसला लेना पड़ा ।

सरकार और उसके प्रशासन की निष्ठुरता देखिये जनता की भावनाओं का सम्मान करने के बजाय आंदोलन को कुचलने की कोशिश की जा रही है, एक बार का अनशन जबरन समाप्त करा दिया गया है । बहरहाल श्रीनगर सुलग रहा है लेकिन सरकार जिस तरह जनता के इस आंदोलन की अनदेखी कर रही उससे जनता का सरकार पर से भरोसा उठने लगा है । सरकार के खिलाफ जो आवाज बुलंद हो रही है उसमें सरकार को गूंगी बहरी कहा जाने लगा है। अब तो सवाल सिर्फ श्रीनगर का ही नहीं है। सरकार जिस तरह जनता की अनदेखी कर रही है, उससे तमाम सवाल जन्म ले रहे हैं। साफ है कि प्रचंड बहुमत की सरकार या तो किसी गलतफहमी में है या फिर उसे जनता के आंदोलन की ताकत का अंदाजा ही नहीं ।

सरकार भूल रही है कि यह वही ताकत है जो सरकारों को ‘मजबूत’ भी बनाती है और ‘मजबूर’ भी । बड़ा सवाल यह है कि जब श्रीनगर के यह हाल हैं तो प्रदेश के तमाम दूसरे इलाकों के क्या हाल होंगे ? प्रदेश की राजनीति का प्रमुख् व ताकतवर केंद्र माने जाने वाले श्रीनगर की ही अगर सरकार में कोई सुनवाई नहीं तो बाकी प्रदेश की समस्याओं पर तो फिर सरकार की ओर से गंभीरता की उम्मीद भी नहीं की जा सकती । आश्चर्य यह भी है कि सरकार सुलगते श्रीनगर को लेकर इतनी उदासीन क्यों है ? सरकार का यह रवैया श्रीनगर के प्रति जानबूझकर है या फिर सरकार को दर्द का अहसास ही नहीं है ? जो भी हो स्थितियां दोनो ही चिंताजनक हैं । स्पष्ट है कि सरकार की प्राथमिकता श्रीनगर और श्रीनगर की समस्या है ही नहीं या यह भी कहा जा सकता है कि उत्तराखंड के दर्द से फिलहाल सरकार का कोई साबका नहीं । सरकार की प्राथमिकता तो सिर्फ दिल्ली के एजेंडे पर खरा उतरना है, उसकी प्राथमिकता आल वेदर रोड़ है, पंचेश्वर बांध है, केदारपुरी है और वह सब है जो दिल्ली दरबार की प्राथमिकताओं में है ।

तमाम बड़ी प्राथमिकताओं के बीच जनता के छोटे हितों के सरकार के लिये कोई मायने नहीं । सरकार तो छोड़िये क्षेत्रीय विधायक तक का मानो इससे कोई सरोकार नहीं रह गया है । क्षेत्रीय विधायक धन सिंह रावत आज सरकार में बेहद मजबूत स्थिति में हैं । दून से लेकर दिल्ली तक उनकी सियासत का डंका है, सपने दिखाने और चेहरा चमकाने की दौड़ में वह सबसे आगे हैं । इस सरकार के वह प्रदेश में सर्वाधिक दौरे करने वाले और सर्वाधिक घोषणाएं करने वाले मंत्री है।प्रदेश में वह लाखों बेराजगारों को रोजगार और तो उच्च शिक्षा को विश्व पटल पर ले आने का सपना दिखाते हैं, लेकिन क्षेत्र के प्रति इस कदर उदासीन है कि जनता की मामूली मांगों को लेकर चल रहे आंदोलन की ओर उनका ध्यान नहीं जाता । अपने विधानसभा क्षेत्र के लिये उनके पास न शुद्ध पेयजल की योजना है और न अस्पताल में डाक्टर पहुंचाने का दम। मांगों को पूरा कराना तो दूर उनके पास आंदोलन की सुध लेने तक की फुर्सत नहीं । इन हालात में सरकार पर सवाल उठना क्या स्वाभाविक नहीं है ? बताते चलें कि यह वही श्रीनगर है जहां खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव के दौरान जनता से वोट और सरकार के बदले विकास का वायदा किया । देखा जाये तो सरकार यहां मोदी के वायदों की भी लाज नहीं रख पा रही है । किसी भी आंदोलन के 200 दिन कम नहीं होते, कोई दोराय नहीं कि सरकार से जनता की मनोदशा का आंकलन करने में बडी चूक हो रही है। सपनों के सौदागर सत्ता के गलियारों और राजमहलों से बाहर जनता का दर्द नहीं सुन पा रहे हैं।

काश ,सपनों के यह सौदागर इतना समझ पाते कि जनता को और कुछ नहीं सबसे पहले अपने हिस्से की बिजली, पानी, सड़क चाहिये । फिर चाहिए अपने हिस्से की शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार, बाकी सपने तो इसके बाद की बातें हैं । लेकिन यहां जो सरकार पीने का साफ पानी तक मुहैय्या नहीं करा सकती, उससे और ज्यादा उम्मीद भी क्या की जाए ?

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