नहीं रहे फोटो बाबा स्वामी सुंदरानंद..
हिमालय के प्रसिद्ध फोटोग्राफर स्वामी सुंदरानंद..
उत्तराखंड: गंगोत्री धाम में रहने वाले बाबा सुन्दरानन्द जो फ़ोटो बाबा के नाम से विख्यात थे, 23 दिसंबर को रात्रि ब्रम्हलीन हो गए। लगभग 92 वर्ष के हो चुके बाबा ने देहरादून के एक निजी अस्पताल में आखिरी सांस ली। 25 दिसंबर को गंगोत्री में उनको सन्यासी रीति रिवाज से समाधि दी गयी। गंगोत्री धाम में रहने वाले बाबा सुन्दरानन्द जो फ़ोटो बाबा के नाम से विख्यात थे,
स्वामी के निधन से देश दुनिया में उनके भक्तों में शोक व्याप्त है। स्वामी सुंदरानंद की शिष्या अमेरिका निवासी डेबरा मॉरिन(दयामयी) भी कोविड-19 महामारी के चलते भारत नहीं आ पा रही हैं। मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने स्वामी सुंदरानंद के ब्रहमलीन होने पर श्रद्धांजलि अर्पित की है। मुख्यमंत्री ने कहा कि परम पूज्य स्वामी सुंदरानंद सच्चे मायनों में हिमालय के योगी थे। उन्होंने हिमालय की दिव्यता, पवित्रता और सुंदरता को अपने कैमरे के माध्यम से दुनिया के सामने रखा।
उनके द्वारा स्थापित गंगोत्री स्थित तपोवनम हिरण्यगर्भ आर्ट गैलेरी और पुस्तक ‘हिमालय : थ्रू ए लेंस ऑफ ए साधु’ (एक साधु के लैंस से हिमालय दर्शन) विश्व को एक अनुपम देन है। उनका पूरा जीवन हिमालय के लिए समर्पित रहा। वे हम सभी के लिये सदैव प्रेरणास्त्रोत बने रहेंगे।
आंध्र प्रदेश के नेल्लोर जिले में 1926 में जन्मे स्वामी सुंदरानंद को पहाड़ों के प्रति बचपन से ही आकर्षण था। प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद 1947 में वह पहले उत्तरकाशी और यहां से गोमुख होते हुए आठ किलोमीटर दूर तपोवन पहुंचे। कुछ समय तपोवन बाबा के सानिध्य में रहने के बाद उन्होंने संन्यास ले लिया।
1955 में 19,510 फुट की ऊंचाई पर कालिंदी खाल से गुजरने वाले गोमुख-बद्रीनाथ पैदल मार्ग से स्वामी सुंदरानंद अपने साथियों के साथ बद्रीनाथ की यात्रा पर थे। अचानक बर्फीला तूफान आ गया और अपने सात साथियों के साथ वे किसी तरह बच गया। बस, यहीं से उन्होंने हिमालय के विभिन्न रूपों को कैमरे में उतारने की ठान ली। 25 रुपये में एक कैमरा खरीदा और शुरू कर दी फोटोग्राफी।
चीनी आक्रमण में भारतीय सेना के रह चुके पथ प्रदर्शक..
गंगोत्री हिमालय के हर दर्रे तथा ग्लेशियर एवं गाड़-गदेरों (बरसाती नाले) से परिचित स्वामी सुंदरानंद वर्ष 1962 के चीनी आक्रमण में भारतीय सेना की बार्डर स्काउट के पथ प्रदर्शक रह चुके हैं। भारत-चीन युद्ध के दौरान वह सेना के पथ प्रदर्शक भी रहे। एक माह तक साथ रहकर उन्होंने कालिंदी, पुलमसिंधु, थागला, नीलापाणी, झेलूखाका बार्डर एरिया में सेना का मार्गदर्शन किया।