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फ़ेसबुक ने की बीती यादें ताज़ा

चारु तिवारी
सोशल मीडिया। फेसबुक कभी-कभी हमारे जीवन का प्रतिबिंब बन जाता है। इसमें दिखाई देने लगता अपना सुखद अतीत। एक माध्यम ही तो है फेसबुक। संबेदनाएं अपनी हैं। यादें भी अपनी। पहले कभी कोई वर्षो बाद मिलता तो उसके साथ बिताये पल याद आ जाते। हम अपने दिनों को याद करने लगते। उसकी जगह आज फेसबुक ने ले ली है। कई बार ऐसे मित्र और ऐसी सूचनाएं इसके माध्यम से मिलती हैं जो हमारे अन्तर्मन के तारों को छेड़ जाती है। आज सुबह फेसबुक पर भाई नन्दनसिंह कार्की की पोस्ट देखी। मेरे पास के गढौली गांव के रहने वाले। गगास नदी हम दोनों के गांव को ही नहीं विकासखंड और विधानसभा को भी अलग कर देती है। लेकिन गगास नदी हमारी एकता का सूत्र है। हमारी खेती नदी के उस पार, उनकी खेती नदी के इस पार। दोनों के लिये गगास का एक ही महत्व है। हमारे सरोकार एक। हमारी मान्यतायें एक। हमारी रामलीला एक जगह पर होती थी। होली की चतुर्दशी पर चार गांवों की होली भी गगास के तट पर बने पिंडेश्वर महादेव के पीपल के चबूतरे पर। नन्दन भाई की पोस्ट देखी तो एक बहुत बड़ा पन्ना खुल गया अतीत का। पन्ना क्या खुला विरासत की एक बड़ी जमीन जिस पर हम सब लोग बड़े हुये। एक बहुत सुखद अतीत जुड़ा है इस पोस्ट के साथ। कुछ नहीं, इतना ही है इस पोस्ट में। नन्दन भाई हैं। उनकी पत्नी हैं। उनके गोद में एक बच्चा है। संभवतः उनका नाती होगा। क्या हो सकता है इसमें। साधारण सी बात है। फेसबुक में तो सभी आजकल अपने परिवार के फोटो डालते ही हैं। नन्दन कार्की ने भी डाल दी। हां! यह बात ठीक है, लेकिन मैंने जब इस फोटो को देखा तो उसमें नन्दू दा तो माध्यम ही रह गये मुझे उसमें उनकी तीन पीढ़िया दिखाई दी। उनकी ही नहीं, मेरी पूरे इलाके की। गगास घाटी की। सबसे पहले नन्दू दा को बधाई कि वर्षो बाद आज आपने मुझे अपने अतीत में पहुंचा दिया।सत्तर-अस्सी का दशक। मेरा गांव गगास घाटी में है। मनेला में। एक तरह से पूरी घाटी का द्वार। सड़क गगास तक ही थी। यहां से बिन्ता, बग्वालीपोखर, कुंवाली तक फैले बड़े-बड़े दर्जनों गांव। इनकी एक ही थाती थी गगास। सारे लोगों का अंतिम बस स्टेशन गगास होता। शादी-ब्याह या सीजन में पूरा गगास लोगों से आबाद रहता। एक-दो दुकानें। एक हमारी जो बद्रीनाथ रोड पर थी। यहीं बस रुकती थी। हमारी दुकान को मटेला के बचेसिंह जी करते थे। उन्हीं के यहां बस में आने वाले लोग सामान रख जाते। भीमसिंह की दुकान थी। चुवणराम दर्जी। हमारे गांव के उस समय के प्रधान त्रिलोक सिंह जी ने भी दुकान खोल ली थी। शायद डाक्टर किशनानन्द तिवारी जी ने भी अपना छोटा सा क्लीनिक खोल लिया था। बगल में पिंडेश्वर महादेव का शिव मंदिर। गगास में चार ‘घट’ थे इनमें दो हमारे परिवार के थे। एक में हमारा हफ्ते का ‘पांता’ (उगाही के दिन की बारी) लगती थी। अर्थात कुछ लोगों के साझे का था। और चैथा ‘घट’ मनेला वालों का था। यहीं पर चार गांवों का श्मशान। इस छोटे से गगास के एक तरफ ‘सिरो’ और दूसरी तरफ ‘कपड़ीघाट’ के गधेरे। जब आते तो गगास के पानी को भी रोक देते। इसके पास ही हमारा ‘तया’, ‘कुलू’ ‘पुरतेई’ नाम से सारें थी। इसके कुछ दूरी पर था गगास के सामने गुढौली। बिल्कुल गगास नदी के किनारे। गुढौली वालों ने शायद ही जाड़ों में कभी ‘घाम’ देखा हो। गांव के नीचे दोे-तीन बड़े घट थे। ये मनेला और गुढौली के लोगों के थे। ‘जैत बू का खाव’, था। वे रामकोट के भक्त थे। सिर में रामजी का लंबा तिलक। उन्होंने इस ‘खाव’ में मछली पाली थी। इन मछलियों को देखना भी हमारे लिये कौतूहल था। इनको मारने पर पाबंदी थी। हम लोग इस ‘रौ’ में नहा भी नहीं सकते थे। बताया जाता था कि इसमें ‘भौंर’ है। जो अपनी ओर खींच लेता है। दुस्साहसी फिर भी इसमें छलांग लगा ही देते। हमारे लिये वे बाहुबली थे। हमारे नायक थे। हम फिर उनकी कहानियों को नमक-मिर्च लगाकर दूसरों को बताते। यही पर दो-तीन दुकानें थी। मनेला के चन्द्रमणि, गुढौली के भवानी सिंह कार्की और देवसिंह कार्की जी की। देवसिंह कार्की की ही दुकान थी जहां मूंगफली मिलती थी। वे जाड़ों में अपना तसला लगाकर मूंगफली भूनते। उनकी दुकान के नीचे ही गगास में बना बहुत बड़ा ‘बान’ (तालाब) था। यही से इन चारों घटों के लिये पानी जाता। यह हम सब बच्चों का ठिकाना था। गरमियों में ऊंचे से छलांग लगाकर हम सब अपनी तैराकी प्रतिभा का परिचय देते। इसी में हमारी तैराकी प्रतियोगिता भी हो जाती। पानी के नीचे देर तक रहना और छलांग लगाकर कितनी दूर पानी के नीचे कौन निकलता है इस पर भी शर्तें लगती। इन्हीं देवसिंह के पोते हैं नन्दन सिंह कार्की। नन्दूदा। नन्दू दा के पिताजी थे हीरा सिंह।

दरअसल, बात हीरासिंह जी से ही शुरू होनी थी। हमारे गांव के भूगोल पर चली गई। हां, गगास हमारे कई गांवों का केन्द्र था। मनेला, ऐराड़ी, मकडौं, पीपलडांडा, चैकुनी, मौना, मवाड़, गुढौली, चमना, गिनाई, गाड़ कोटली, छाना, भेट, तमाखानी और च्याली गांवों का गगास से सीधा रिश्ता था। शायद यह बात 77-88 की होगी। गगास में रामलीला कराने पर सब गांवों की सहमति बनी। रामलीला कमेटी का गठन किया गया। पिंडेश्वर महादेव मंदिर ही इसका आॅफिस बना। गगास नदी के किनारे हमारे खेतों में रामलीला कराने पर विचार हुआ। इसमें मुख्य भूमिका निभाई हीरा सिंह जी ने। उस समय हमारे मंदिर में एक बाबा थे। संतोषी बाबा। उनके जैसा रचनात्मक व्यक्ति मैंने आज तक नहीं देखा। आज सोचता हूं संतोषी बाबा ने संन्यास क्यों लिया होगा। वे समाज के लिये बेहतर काम कर सकते थे। उस रामलीला में उनकी रचनात्मकता देखते ही बनती थी। उन्होंने स्टेज की जो साज-सज्जा की वह आज मुझे दिल्ली के मंचों में भी नहीं दिखाई देती। उन दिनों बिजली तो थी नहीं। ‘गैस’ जलाकर रामलीला होती थी। गैस जलाने वाले को हम तब आईआईटी पास आउट सा सम्मान देते थे। मनेला के मोहन दा ही शायद हमारे इंजीनियर थे। वे हमेशा हिन्दी में बोलते थे। हमारे लिये हिन्दी भी किसी आतंक से कम नहीं थी। ऐसे में सात पर्दो का मंच। उसमें सलीके से बिछी हुई दरियां। मंच के चारों ओर फूलों के गमले। हमने पहली बार कृष्ण के मुकुट और अंगुली पर चक्र को घुमते हुये देखा। हनुमान को हवा में संजीवनी लाते हुये देखा। सुन्दर मृग को दोड़ते हुये और लक्ष्मण रेखा को जलते हुये देखा। मैंने ऐसी पर्णकुटी आज तक किसी रामलीला में नहीं देखी जो संतोषी बाबा ने बनाई। अशोक वाटिका तो आज भी आंखों में आ जाती है। धुनष-बाण, गदा, तलवार, ढाल, साज-सज्जा तो बिल्कुल ऐसी जैसे रामानंद सागर की रामायण देख रहे हो। वे खुद ही पात्रों का मेकअप करते। संगीत के बहुत अच्छे जानकार थे। रामलीला में हारमोनियम कफड़ा के गुसाईंदत्त जी बजाते थे जो इलाके में संगीत के मर्मज्ञ माने जाते थे। खैर इस पर फिर कभी।

हां, इस रामलीला के सबसे बड़े नायक थे हीरासिंह जी। रामलीला में लोकनाट्य के सबसे बड़े शिल्पी। रामलीला में उन्होंने जिस तरह जोकरिंग और लोकनृत्य को स्थान दिया वह देखने लायक था। हमने पहली बार हीरासिंह जी को इसी रामलीला में जोकर और कई अन्य भूमिकाओं में देखा। हीरासिंह डील-डौल में मोटे और छोटे थे। उनके पास जोकर की एक ड्रेस थी। तीन चार कलर में गोल खुला हुआ पजामा और झोरदार कुर्ता, सिर पर नुकीली टोपी जिसमें गुब्बारा बंधा होता। जब मंच पर आते तो पूरा वातावरण उन्मुक्त हो जाता। वह जमाना तो इतना खुला नहीं था। विशेषकर महिला-पुरुषों के बीच में, लेकिन हीरासिंह ने अपनी जोकरिंग से इस खाई को पाट दिया। हमारे गांव के बहुत ही सज्जन व्यक्ति हैं मथुरादत्त जी। आजकल हमारे पोस्ट आॅफिस में हैं। वे रामलीला में उठने वाले ठेके की दुकान को करते थे। चाय-पानी और पान की दुकान। कुछ मूगफली, बिस्कुट। आज की तरह का सामान तो था नहीं। चाय की दुकान मंच के सामने लगी होती। हीरासिंह जी ने गाना बनाया-

मथुरा रे मथुरा रे, चाय तेरी ठंड़ी चीनी मिला जरा घोल के।
पान तेरे सड़े हैं ये अच्छे नहीं, खाने वाले बड़े हैं ये बच्चे नहीं,
मैं तो तहां आऊंगा, सबै घुरया जाऊंगा, ये तेरी केतली तोड़के।

हीरासिंह जी आवाज भी बहुत मधुर थी। भाव-भंगिमा तो प्रकृति से मिली हुई। वे जनक के दरवार में सबसे लोकप्रिय राजा थे। उन्होंने धनुष यज्ञ के प्रसंग को जिस तरह से लोकनाट्य में परिवर्तित किया वह देखने लायक था। एक क्षेत्रीय राजा के रूप में उन्होंने जिस तरह से क्षेत्रीय समस्याओं को रखा वह चेतना का एक बड़ा काम था। वे अपने पेट में को बहुत बड़ा बनाकर आते और गाते-

मैं तो राजा हूं राजा अपण गौ क
देखो मेरी पगड़ी देखो, देखो मेरा पेट
इसी पेट में छुपे हुये हैं, बामण-बनिया-सेठ
मैं तो राजा……

रावण के मंत्री के रूप में भी हीरासिंह की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी। जब रावण नर्तकी से प्रसन्न होता तो कहता- ‘मंत्री नर्तकी को ईनाम दिया जाये।’ तो हीरासिंह जी कहते- ‘दे दिया महाराज गुढौली के देवसिंह का ‘पूरा कनाव’ दे दिया।’ देवसिंह उनके पिताजी थे। जब वे यह डाॅयलाग बोलते पूरा पंडाल ठहाकों से गूंज जाता। वे अपनी जोकरिंग में कहते कि अरे! कभी देवसिंह की दुकान की मूंगफली मत लेना ‘बुसिल’ होते हैं। उन दिनों फैमली प्लानिंग का जमाना था। हीरासिंह जीे बच्चे भी ज्यादा ही थे। उन्होंने इसे भी बहुत तरीके से कहा और जनसंख्या नियंत्रण का संदेश भी दिया- ‘अरे महराज कै करूं हो, म्यरा नानतिन ले भौत हाय। आब मि नाम ले भुलि जानौं। अब मील सबूंक पुठ में कोलतारलै नंबर लिख हेलो, कालतार नंबर-एक, कोलतार नबर दो….।’ कभी राम सेना मे होते और राक्षसों ने पकड़ लिया तो कहते, ‘मैंके नि मारों हो नानतिना छोरमयोव है जालि।’ दुर्भाग्य से वास्तविक जीवन में उनके साथ यही हुआ। जब बच्चे छोटे थे तो उनकी पत्नी और फिर जल्दी उनका देहांत हो गया। उस समय हम लोग बहुत दुखी हुये थे। बाद में बहुत सकूल मिला जब नन्दन सिंह, भगवंत और अन्य बच्चों ने अपना सही मुकाम हासिल कर लिया।

सुसैन वैद्य के रूप में उनकी भूमिका देखने लायक होती। एक छोटे से पात्र को कैसे जिया जाता है यह उनके अभिनय से समझा जा सकता है। सुसैन वैद्य को जिस तरह से उन्होंने लोक के रूप में प्रस्तुत किया उससे पहाड़ की लोकनाट्य शैली को भी समझा जा सकता है। सुसैन वैद्य के रूप में खांसते-खांसते वे यहां की पूरी परिस्थितियों को बता देते थे-

है कोई यो़द्धा इस कपिदल में, जो लाये संजीवन मनमाही रे,
द्रोणांगिरी में है वो संजीवनी ज्योति जले रणमाही रे।.

सीता हरण के समय जोगी के भेष में रावण की भूमिका तो भुलाये नहीं भूलती। कितना सुरीला गीत गाते थे हीरासिंह-

संसार में है सबसे बढ़िया साधुओं का भेष।
जो कोई लाये दूध-मलाई, सटक नारायण
जो कोई लाये लड्डू-पेड़ा गटक नारायण
संसार मे है……

हीरासिंह जी ने रामलीला के सभी पात्रों को बहुत संजीदगी से जिया। उन्होंने जहां छोटे पात्रों की भूमिका को रोचक बनाया वहीं बड़े पात्रों की भूमिका को बहुत सार्थकता दी। अभिनय, गायन, भाव-भंगिमाओं से उन्होंने रामलीला को बहुत ऊंचाई तक पहुंचाया। उनके परशुराम के अभिनय को देखने के लिये लोग एक-एक घंटा पहले आकर अपनी सीट सुरक्षित कर लेते। उस दिन सबसे रोचक यह होता कि लक्ष्मण की भूमिका में नन्दू दा होते और परशुराम हीरासिंह जी। दोनों बाप-बेटों का संवाद जब चरम पर होता तो गगास घाटी थर्रा जाती। उस दिन लोगों का साक्षत परशुराम और लक्ष्मण से भेंट हो जाती। परशुराम बने हीरासिंह जी कहरुआ गाते-

बोले ना संभारी हां बोले ना बिचारी रे-रे क्षेत्रिय।
इसी परशु से मार गिराये, बड़े-बडे़ बलशाली
क्षत्रियहीन मही सब कीन्हीं, तोहिं ना हतीं शठ बाल बिचारी। रे क्षत्रिय..।

लक्ष्मण के रूप में नन्दू दा का प्रतिकार देखिये-

पिनाक पुराना, ये धनुष पुराना, काहे रिस होत।
ऐसे धनुष बहुत हम तोड़े, कबहुं क्रोध न कीन्हा,
या मे ममता है कैहि कारण, जो देखत भृगुनाथ रिसाना।
बार-बार माहें परशु दिखाकर, क्यों करते अभिमाना,
जो कायर तुम्हें मिले मुनी जी, उन्हीं को तुम जा धमकाना।

लेकिन दूसरे ही दिन जब वे दशरथ की भूमिका में होते तो उनकी जयजयवंती सुनने लायक होती। इस दिन दर्शक सारे रिकाॅर्ड तोड़ देते। इसकी वजह थी उनके विपरीत कैकई की भूमिका में हरीश डोर्बी का होना। ऐसी जोड़ी शायद ही कभी देखने को मिले। दोनों गायन और अभिनय की मिसाल थे। कोई दर्शक ऐसा नहीं होता जो कैकई के नखरों पर न्यौछावर नहीं हो जाता। हरीश डोर्बी जी की जो भाव-भंगिमायें होती थी ऐसी कोई नायिका भी न कर पाये। वह जिस तरह से अपने आभूषणों को फेंकती और हीरासिंह जब हरीश डोर्बी को मनाते दोहा गाते-

सुमुखि सुलोचनि पिकवयनि, का दुख मोहि जनाउ।
गज गामिनि निज कोप कर, कारण मोहि जनाउ।

फिर राग-विहाग का तो जबाव ही नहीं-

पिया तुम काहे होत मलीन, मलीन पिया तुम काहे…
मैं अपने मन सोच रहा हूं क्या किन जादू कीन,
क्या काहूं ने बोली मारी, क्या कोई ताना दीन। पिया तुम…काहे।

कैकई के रूप में डोर्बीजी की तुनक मिजाजी और दशरथ के रूप मे हीरासिंह की उपेक्षा क्या कहर ढाती थी वे वही समझ सकते हैं जिन्होंने इस जयजयवन्ती को सुना और अभिनय को देखा हो-

देऊं पिया मोहे वह बरदाना, देन कहा जो दुई बरदाना,
भूल गये जो सुधि बिसराई, हा-हा नाथ स्वभाग मैं जाना।

बहुत मनाया नहीं मानी बहुत कसमें दीं-
सुनहुं प्रिया कहु सतवानी, तुम कहं प्राण प्रिया निज जानी।
मैं ना कहौं कछु बात बनाई, तुम ते प्रिया मोहिं अधिक न रानी।

हरीश डोर्बी ने कहरुवे में जो जान फूंकते और कैकई के रूप में पूरी तुनमिजाजी में कहती-

चलो हटो जाओ-जाओ ना बोलों हमसे।
है सबसे अधिक पियारी, वह राम की महतारी
मैंने हीन्हीं यही विचारी, ना बोलो हमसे।

यह संवाद मैंने यहां इसलिये दिया क्योंकि मुझे आज भी वह मंच वैसा ही दिखाई दिया। हीरासिंह जी की छवि ऐसे लगी जैसे वे गगास के उस मंच पर दशरथ की भूमिका में हो। डोर्बी जी तो आज भी हमारे साथ सामाजिक और सांस्कृतिक मंचों पर होते हैं, लेकिन हीरासिंह जी अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी छवि कभी दूर नहीं हो सकती। रामलीला में अभिनय के अलावा हीरासिंह जी का पहाड़ी नृत्य-गीतों में भी उतनी ही पकड़ थी। रामलीला का एक बड़ा हिस्सा हीरासिंह जी और हरीश डोर्बी जी का होता। उन दिनों महिलायें मंचों में नहीं आती थी। महिला पात्रों का अभिनय भी पुरुष ही करते थे। डोर्बीजी के अभिनय की चर्चा उन दिनों पूरे अल्मोड़ा जनपद में थी। वे रेडियों कलाकार भी थे। वे जब हीरासिंह जी के साथ महिला के वेष में मंच में होते तो दर्शक सीटियां मारने लगते। उनके पास बहुत खूबसूरत ड्रेस थी। कई पाटों का घाघरा, आंगड़ी और साड़ी में हरीश डोर्बी किसी नृत्यांगना से लगते। जब वे मंच में नाचते तो लगता फिल्म चल रही है। वे टूटे कांचों और तलवार की धार पर भी नाच दिखाते थे। सिर में मटके रखकर उनका नृत्य देखने लायक होता। हीरासिंह जी के साथ उनकी जोड़ी कमाल की थी। रामलीला पर बहुत सारी बातें मेरी शीघ्र प्रकाशित होने वाली पुस्तक में हैं लेकिन प्रसंगवश कुछ बिन्दुओं को छुए बिना नहीं रहा गया।

नन्दनसिंह कार्की की पोस्ट के माध्यम से उनके पिताजी को याद करना बहुत सुखद है। उनका हमारे समाज में महत्वपूर्ण योगदान रहा। वे जिस तरह के कलाप्रेमी और स्वयं अभिनय के संस्थान थे, अगर उसी दिशा में निकल गये होते तो कोई बड़ा मुकाम हासिल कर सकते थे। मैंने हीरासिंह जी को गगास की रामलीला के अलावा कहीं अभिनय करते नहीं देखा। हां, हमारी गगास में आने वाली तीन गांवों की होली में उनका स्वांग देखने बहुत दूर-दूर से लोग गगास में जमा हो जाते। गगास की पहाड़ियों में महिलाओं का जमावड़ा लग जाता, जबकि सामान्यतः पुरुषों की होली में महिलायें नहीं आती थी। वे शिवजी बनकर आते थे। उनके बदन में एक भी कपड़ा नहीं होता था। उनके साथ नर्तकी के रूप में हरीश डोर्बी ही होते। आज सोचता हूं कभी लौटेगी मेरे गगास की रामलीला। क्या कभी होगा पिंडेश्वर में होली का स्वांग। जब भी रामलीला-होली आयेगी हीरासिंह जी आप याद आओगे। आप हमेशा याद आते रहना। किसी भी रूप में। आप रहेंगे तो हमारी चेतना बची रहेगी। आपको सलाम!

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