उत्तराखंड

काश ! ढोली को ‘उठा’ पाता ‘सियासी ढोल’ का ये ‘नमो नाद’…

योगेश भट्ट

पिछले चार दिन प्रदेश में संस्कृति से जुड़ा एक आयोजन खासा चर्चाओं में है। ढोल और ढोली संस्कृति से जुड़ा यह आयोजन अपने आप में एक अलग तरह का आयोजन था, जिसे ‘नमो नाद’ का नाम दिया गया । इस आयोजन में 1371 ढोल वादकों को एक साथ ढोल वादन कर विश्व रिकार्ड बनाना था। ढोल वादकों की संख्या इस आंकडे तक न पहुंचने के चलते विश्व रिकार्ड तो नहीं बन पाया, लेकिन आयोजन में 1000 से ऊपर बाजीगीरों की पहचान जरूर हुई । बहरहाल, उत्तराखंड की संस्कृति को पहचान दिलाने और ढोल वादन करने वाले बाजीगीरों के लिहाज से यह आयोजन बेहद अहम हो सकता था,लेकिन ऐसा हो नहीं सका। कारण, इस पूरे आयोजन पर ‘सियासत का रंग ‘ चढ़ गया।

आश्यचर्यनजक है कि इतना बड़ा कार्यक्रम जिसमें विश्व रिकार्ड बनाने की बात कही जा रही थी और जिसे खुद सरकार द्वारा आयोजित किया गया,उससे खुद सरकार ने ही दूरी बनाए रखी। पूरा आयोजन स्थान, समय- काल और संसाधनों से लेकर हर लिहाज से सतपाल महाराज का ‘व्यक्तिगत शो’ मात्र बनकर रह गया। इस आयोजन के लिए तय नाम, ‘नमो नाद’ को लेकर भी सवालिया निशान खड़े हो गए। सतपाल महाराज ने कार्यक्रम की शुरूआत और अंत में दोनों बार ‘नमो नाद’ का अलग-अलग अर्थ बताया , जो इसका प्रमाण है आयोजन पर सरकार की ही एकराय नहीं थी। पहली बार कहा कि ‘नमो’ शब्द संस्कृति को प्रतिविंबित और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अलंकृत करता है, इसलिए यह आयोजन उन्हें समर्पित है। दूसरी बार महाराज ने कहा कि ‘नमो’ का अर्थ नमन होता है, जिस तरह ओम नम: शिवाय: कहकर शिव का नमन करते हैं, या भारत माता का नमन करते हैं, इसी तरह उत्तराखंड माता को भी नमन करते हैं और इसलिए इस नाद का नाम ‘नमो नाद’ रखा गया है।

बहरहाल महाराज का संस्कृति मंत्री होना, कार्यक्रम का हरिद्वार स्थित उनके आश्रम में आयोजित होना, ढोल और ढोली से जुड़े आयोजन का लोक मान्यताओं के विपरीत ‘अंधेरे महीने’ में होना और उससे भी अहम यह कि ढोल सागर से जुड़े जानकारों विशेषज्ञों का इस आयोजन से नदारद रहना कहीं न कहीं यह दिखाता है कि इस आयोजन के निहितार्थ विशुद्ध रूप से कुछ और ही थे। जहां तक ढोल का सवाल है तो उत्तराखंड में ढोल सांस्कृतिक वैभवता का प्रतीक है। प्रदेश में ढोल वादन की बेहद समृद्ध परंपरा है। हालांकि समय के साथ-साथ ढोल का शास्त्र और इसे बजाने वाले कलाकार हाशिए पर जा चुके हैं। जाने-माने दिवंगत पत्रकार एस राजेन टोडरिया की ढोल पर लिखी एक कविता की इन पंक्तियों में ढोली की महत्ता का सार हैं।

“…पुर कथाओं के देवता
नागराजा और नरसिंह
भगवती और भैरव
पंडित या ठाकुर के नहीं
सबसे पहले ढोल बजाने वाले के गले लगते हैं देवता।
जिनके नाम पर गढ़ी गई हैं जातियां
वे ही आदमियों को जातियों के हवाले से नहीं जानते
सदियों से उसी अछूत कंधे पर
सर रखकर रोते रहे हैं देवता…” अंदाजा लगाया जा सकता है कि उत्तराखंड के समाज में ढोली और उसके ढोल की कितनी महत्ता है। इसी रचना का एक और अंश है, जो ढोल वादकों की दुर्दशा को बयां करता है।

“…कभी न बोलने वाले देवताओं की
आत्मा में जाकर बोलता है
इसीलिए देवताओं के होते हैं ढोल
पर उसे बजाने वाले पड़े रहते हैं
जानवरों के साथ ओबरों में
उस क्षण को कोसते हुए
जब लोक कथाओं में ब्रह्मा ने
बांध दिया था उनके गले में ढोल…”सवाल यह है कि ‘नमोनाद’ के नाम पर हुआ यह आयोजन क्या ढोल और ढोली की यह तस्वीर बदलेगा? मकसद प्रचारित भले ही यह रहा हो पर यह साफ नजर आया कि संस्कृति से जुड़े इसे आयोजन में सियासत का घालमेल रहा, और संस्कृति में सियासत का घालमेल हमेशा खतरनाक होता है। इस आयोजन में विश्व रिकार्ड बनाने का दावा भी पूरा नहीं हो पाया। विभाग और मंत्री तर्क दे रहे हैं कि मौसम खराब होने की वजह से लोग पहुंच नहीं पाए।

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इस तर्क को भी यदि सही मान लिया जाए, तो साफ है कि आयोजन के लिहाज से यह वक्त ठीक नहीं था। दूसरी बात, यदि इस आयोजन की मंशा वाकई में राज्य की पहचान को विश्व पटल पर लाने की होती, तो महाराज अकेले नहीं, बल्कि पूरी सरकार इसमें शामिल होती। एक आश्चर्यजनक पहलू यह भी है कि ढोल सागर को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में बड़ा योगदान देने वाले, ढोल और ढोली के संरक्षण के प्रति हमेशा कर्मशील रहने वाले डाक्टर डीआर पुरोहित जैसी शख्सियत का इस कार्यशाला में न होना अपने आप में कई सवालों को जन्म देता है। जाहिर है आयोजन के पीछे मकसद कुछ और ही ‘हासिल’ करना रहा होगा। अपने इस मकसद को महाराज हासिल कर पाते हैं या नहीं यह तो अभी कहा नहीं जा सकता, लेकिन दूसरा पहलू यह है कि इस सबके बीच अगर ढोली- बाजीगीरों का उत्थान होता है तो भी इस कार्यक्रम की सार्थकता मानी जाएगी। इसमें कोई दोराय नहीं है कि जब ‘ढोली’ रहेगा तभी ‘ढोल’ बचेगा और तभी उससे कोई नाद निकलेगा।

जहां तक नई पीढ़ी का सवाल है तो ढोल बजाने और बचाने को लेकर उसके मन में कोई रूचि नहीं है, क्योंकि इससे उसे रोजगार नहीं मिलता, इससे उसका परिवार नहीं पलता। इसमें उसे बेहतर भविष्य की कोई संभावना नजर नहीं आती। बहरहाल ‘नमो नाद’ विश्व रिकार्ड भले ही न बन पाया हो, लेकिन अगर यह आयोजन नयी पीढ़ी में भरोसा नहीं जगा पाया तो वाकई यह सिर्फ सियासी ढोल का एक ‘निरर्थक नाद’ साबित होगा ।

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