उत्तराखंड

ये कैसी परम्परा, जहां मौत पर बजते हैं ढोल

– गरीबों के साथ भद्दा मजाक
– उत्तरकाशी में आज भी जारी है यह कुप्रथा

गुणानंन्द जखमोला!

उत्तरकाशी के केदारघाट पर ढोल-दमाऊं के साथ एक मृतक को लाया गया। मुझे लगा कि संभवत यह वृद्ध संपन्न रहा होगा, लेकिन वह एक अधेड़ महिला थी। पूछने पर पता लगा कि इस सीमांत जिले में सदियों पुरानी प्रथा जारी है कि किसी की भी मौत के बाद ढोल बजाया जाता है। पहले जमाने में संचार साधन न होने पर एक विशेष थाप दी जाती थी, जिससे आस-पास के गांवों में पता चल जाता था कि उक्त गांव में किसी की मौत हुई है। लेकिन आज भी यह कुप्रथा जारी है। अधिकांश गांवों में आज भी जब किसी की मौत होती है तो ढोल बजाए जाते हैं। जवान, बच्चे या बूढ़े सभी यानी हर वर्ग के किसी भी व्यक्ति या महिला की मौत होने पर ढोल बजते हैं। ढोल वाले गरीब या अमीर से उसकी हैसियत के अनुसार पैसा मांगते हैं, यह राशि हजारों में होती है , ऐसे में किसी गरीब परिवार पर मौत के साथ ही कर्ज का बोझ भी पड़ जाता है। यह कर्ज तो हर हाल में मृतक के परिजनों को चुकाना ही होता है। गांव के गरीबों को यह राशि अदा करने में भी वर्षों लग जाते हैं।

उत्तरकाशी से 12 किलोमीटर दूर जाने पर ऐथल गांव में मुझे लगभग 85 साल की एक बुजुर्ग महिला कुंदनी देवी मिली। इस गांव के लोग बताते हैं कि कुंदनी के पति गांव के सेठ थे, यानि वो ग्रामीणों को सूद पर कर्ज देते थे। लेकिन वो भले आदमी थे। इस गांव के 35 साल ग्राम प्रधान भी रहे और सयाना यानी प्रमुख भी। जब वो बीमार हो गये और उन्हें लगा कि अब मौत निश्चित है तो उन्होंने ग्रामीणों को बुलाकर कहा कि मेरी मौत के बाद ढोल न बजवाए जाएं क्योंकि इससे गरीबों पर आर्थिक बोझ पड़ेेगा। ग्रामीणों के अनुसार इसके बाद इस गांव में तो यह कुप्रथा बंद हो गयी लेकिन जिले के अधिकांश गांवों में यह प्रथा जारी है। अहम बात यह है कि यह प्रथा न सिर्फ गंगोत्री घाटी में बल्कि यमुनोत्री घाटी में भी है। बड़कोट से लगभग दो किलोमीटर कच्ची सड़क पर चलने के बाद सुनाल्डी गांव आया। यहां भी ग्रामीणों का कहना है कि बाजगी प्रथा यानी दलित महिलाओं के नाचने और मांगने की प्रथा और किसी के निधन के बाद ढोल बजाने की प्रथा कायम है।

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