उत्तराखंड

लोक संस्कृति के प्रहरी हैं लोकेश नवानी

लोकभाषा आन्दोलन के प्रणेता हैं लोकेश नवानी
40 बरसों से कर रहें हैं लोक की सेवा, लोक की ‘धै’ को ‘धाद’ के जरिये दिलाई नई पहचान

संजय चौहान

पहली मुलाक़ात में ऐसा लगेगा की क्या कोई वाकई इतना सरल भी हो सकता है। बेहद साधारण स्वभाव, मिलनसार, मृदुभाषी और अपनी लोकभाषा और संस्कृति से गहरा लगाव वाला व्यक्तित्व। छात्र जीवन से ही लोक के लिए समर्पित, जीवनपर्यंत संघर्ष की लौ जलाये रखी। हमेशा धरातलीय कार्यों पर विश्वास। जी हाँ आज एक बार फिर आपको एक ऐसी ही शख्सियत लोकभाषा आन्दोलन के भगीरथ लोकेश नवानी जी से रूबरू करवाते हैं।

लोकेश नवानी का जन्म 21 जनवरी 1956 को गढ़वाल मंडल के पौड़ी जनपद के गंवाणी गांव (चौबटाखाल) में मन्ना देवी और भास्करानन्द नवानी जी के घर हुआ। माँ पिताजी को आशा थी की उनका पुत्र जरुर लोक में उनका नाम रोशन करेगा। इनकी प्राथमिक शिक्षा प्राथमिक विद्यालय गंवाणी से हुई जबकि हायर सैकेंडरी की पढ़ाई भोपाल मध्यप्रदेश से हुई। जिसके बाद वे देहरादून आ गए और यहीं से शुरू हुआ संघर्षों का एक लम्बा दौर।

बचपन से ही इन्हें अपनी लोकभाषा से बेहद लगाव और प्यार था। लेकिन जब इन्होंने देखा कि लोग अपनी बोली भाषा से दूर होते जा रहे है तो इन्होंने लोगों को लोकभाषा से जोड़ने के लिए कविताओं का सहारा लिया। इन्होंने कई कविताएँ लिखी और लोगों को घर-घर जाकर सुनाई और लोगों को इसके लिए तैयार भी किया। परन्तु उस दौर में लोग इन पर हँसतें थे और इनका मजाक भी उड़ाया करते थे और कहते थे की क्या गढ़वाली में भी कुछ लिखा जा सकता है कभी।

जिद और धुन के पक्के लोकेश नवानी ने कभी भी हार नहीं मानी। और कविताओं के जरिये लोकभाषा आन्दोलन की अलख जगाये रखी। 1980 के दशक के दौरान इन्होंने सैकड़ों कविता पाठ, कार्यक्रमों का संचालन, कवि सम्मेलनों की अगुवाई की। गढ़वाल सभा में इनके प्रयासों से ही पहला गढ़वाली कवि सम्मलेन आयोजित किया गया। जबकि 1982 में इंदिरा कॉलोनी में आयोजित गढ़वाली कविता पाठ में उस समय 228 रूपये एकत्रित हुए थे। जो कार्यक्रम की सफलता बंया करने के लिए काफी था। 14 अगस्त 1984 को नारी शिल्प कॉलेज में अभी तक का सबसे बड़ा कवि सम्मलेन आयोजित हुआ, जिसमें 65 कवियों ने कविता पाठ किया। जिसके बाद लगातार कई कवि सम्मलेन आयोजित होते रहे।

लोकभाषा आन्दोलन की लौ जलती रहे इसलिए उन्होंने अपने कविमन को भी मौन रहने दिया और लोकहित में पदयात्राएं और जागरूकता अभियान चलाने लगे। इस दौरान उन्होंने पूरे गढ़वाल में टोलियाँ बनाकर पद यात्राएँ की और जनगीत और लोकगीत गाये। इसी परिपेक्ष में उन्होंने विकासनगर से दिल्ली तक पदयात्रा की ताकि लोग अपनी लोकभाषा के प्रति सजग होयें।

लोकेश नवानी ने लोक को आभास कराते अपने नाम के अनुरूप ही लोकभाषा को पहचान दिलाने के उद्देश्य से अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर एक पत्रिका निकालने पर सहमती बनी। इसके लिए तीन नामों पर सहमती बनी और उन्हें अप्रूव के लिए भेजा गया और जो नाम एप्रूव होकर आया वो था ‘धाद’। देखते ही देखते धाद ने ऊँचाईयों की बुलंदियों को छू लिया। आखिर लोक के ‘धै’ अर्थात आवाज लगाना आज एक विचार बन गया। शुरू-शुरू में धाद के फोल्डर हाथों से लिखे गये।

इसी बीच लोकेश नवानी सरकारी सेवा में आ गए, जिसके बाद भी वो लगातार इससे जुड़े रहे। सरकारी सेवा में रहते हुए भी उन्होंने दिल्ली में लोकभाषा के लिए कई अभिनव प्रयास किये। कवि सम्मेलनों का आयोजन करवाया, जिनका ऋण कभी भी नहीं चुकाया जा सकता है। सरकारी सेवा में रहते हुए भी उन्होंने कई लोगों की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मदद की है और उन्हें आगे बढाने में भी हर कदम पर सहयोग किया है। भले ही वे लोग आज उन्हें भूल गए हों। लेकिन लोकेश नवानी की यही सबसे बढ़ी खूबी रही की उन्होंने कभी भी किसी कार्य का श्रेय खुद नहीं लिया। बस धरातल पर कार्य करने में उनका अटूट विश्वास रहा है और आज भी उन्हीं पदचिन्हों पर चल रहे हैं।

लोकेश नवानी ने आकाशवाणी, दूरदर्शन में कई कविपाठ और वार्ताऐं की, जबकि विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कविता, आलेख, समीक्षा, साक्षात्कार किये। कई लोगों की पुस्तकों का संपादन किया। समय न मिलने की वजह से एक ही पुस्तक काव्य संग्रह ‘फंची’ लिखी। साहित्यकार बीरेन्द्र पंवार जी कु ‘छ्वीं बत’ जो गढवाली भाषा का पहला साक्षात्कार संग्रह हैं में लोकेश नवानी जी का भी साक्षात्कार शामिल है।

लोकेश नवानी जी कवि सम्मेलनों के जरिये कई नये कवियों को मंच और मौका दिया। जिनमें से कई कवि आज देश विदेशों में अपना परचम लहरा रहे हैं। वहीं कलाकारों को नाटक का मंच दिया तो गीतकारों को लोककला केंद्र में स्थान भी दिया। स्वयं लेखन के साथ-साथ लेखकों की एक बड़ी जमात भी तैयार की। ये सब उन्होंने उस दौर में किया जब सीमित संसाधन और आर्थिक रूप से कमजोर भी थे। साथ ही संगठतात्मक ढांचा भी खड़ा करना था। 80 के पूरे दशक में वे लोक, लोकभाषा की बुलंद आवाज बने रहे। धाद रूपी वट वृक्ष उनका रोपा हुआ पेड़ है। जो आज एक विचार बन गया है। जिसकी कई शाखाएं वर्तमान में अलग-अलग क्षेत्रों में बेहतर कार्य कर रहीं हैं।

‘धाद’ में परोक्ष-अपरोक्ष रूप से एक हजार से अधिक सदस्य हैं। धाद उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय है। युवा धाद, महिला धाद सभा, लोकभाषा एकांश, लोक कला- लोक नृत्य केंद्र, नृत्य नाट्य एकांश, हिंदी साहित्य एकांश सहित सामजिक सरोकारों और गतिविधियों से भी जुड़ा हुआ है। धाद के तत्वाधान में आपदा के समय प्रभावित हुए बच्चों को शिक्षा और स्त्रियों को रोजगारपरक प्रशिक्षण दिया जा रहा है।

भले ही धाद से जीवन का कहकरा सीख कर कई लोगों ने विभिन्न क्षेत्रों में अपना अलग मुकाम बनाया हो, लेकिन आज वही लोग धाद को बिसरा गये हैं। जबकि इसके इतर लोकेश नवानी ने धाद को हमेशा नयी दिशा दी है। पिछले साल सरकारी सेवा से सेवानिवृत्त होने के बाद वे एक बार फिर से धाद में सक्रिय रूप से जुड़ गए। जिसकी परिणती ये हुई कि आज धाद से बेहद बडी संख्या में लोग जुड़ने लगे हैं और हर कोई धाद से परिचित है। बीते एक साल की बात करें तो इस दौरान धाद ने हरेला त्योहार को पूरे विश्व में पहचान दिलाई। साथ ही साथ इसके जरिये पर्यावरण संरक्षण और वृक्षारोपण को प्रोत्साहित किया। जिसके बाद उत्तराखंड सरकार द्वारा हरेला पखवाड़ा मनाया गया। वहीँ गढ़वाली कुमाउनी सहित अन्य भाषाओँ को आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए वृहद हस्ताक्षर अभियान शुरू किया। जो अभी भी गतिमान है।

इसके अलावा राज्य के विभिन्न दूरस्थ इलाकों में लोगों के लिए स्वास्थ्य कैम्प लगवाये। ताकि लोगों को बेहतर स्वास्थ सेवा मिल सके। जबकि धाद पत्रिका जो लम्बे समय से प्रकाशित नहीं हो पा रही थी, वह भी अब लगातार हर महीने लोकभाषा आन्दोलन को गति दे रही है और पौड़ी से प्रकाशित हो रही है। विगत दिनों धाद के तत्वाधान में इस साल हरेला पर्व की शुरुआत प्रख्यात फोटोग्राफर पत्रकार स्वर्गीय कमल जोशी की स्मृति में पहला पेड़ लगाने से हुई। जो सच्चे अर्थों में पहाड़ को जीने वाले एक योद्धा को सच्ची श्रद्धांजलि थी। कुल मिलाकर हम ये कह सकते है कि लोकेश नवानी के धाद से पूर्णकालिक रूप में जुड़ने के कारण धाद में एक नई उर्जा का संचार हुआ है।

वास्तव में लोकेश नवानी ने धाद के जरिए लोकभाषा आंदोलन की जो गंगा बहाई है,आज उसने लोकभाषा आंदोलन को नई पहचान दिलाई है। इसी गंगा से निकलकर अलग अलग स्थानों पर लोकभाषा आंदोलन की लौ जल रही है। इसलिए इनका प्रयास किसी भगीरथ से कम नहीं है। बकौल लोकेश नवानी यही लोकभाषा, लोक संस्कृति ही तो हमारी असली पहचान है। इनके बिना हम कुछ नहीं। धाद नें लोकभाषा आंदोलन को शिखर पर पहुँचाया है। उम्मीद की जानी चाहिए गढ़वाली और कुमाऊँनी लोकभाषा को केंद्र सरकार जल्दी आठवीं अनुसूची में शामिल करेगी।

Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

To Top