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फूहडों के जरिए केदारनाथ को बेचने की कोशिश..

फूहडों के जरिए केदारनाथ को बेचने की कोशिश..

वेद विलाश

केदारनाथ : फिल्म केदारनाथ बनाने वालों ने अगर केदरानाथ आपदा की त्रासदी के दंश को महसूस किया होता तो शायद वह कल्पना पर एक बेतुकी फूहड और अभद्र किस्म की फंतासी लेकर नहीं आते।

खासकर तब जबकि दस हजार लोगो के मारे जाने वाली केदरानाथ आपदा के पहलू ही नहीं इस क्षेत्र से जुडी लोगों की अथाह आस्था के बाद कला को बेचने का सस्ता और घटिया तरीका नहीं होना चाहिए था। क्या प्यार को दिखाना का यही एक जरिया रह गया कि एक मुस्लिम ल़डका हो एक हिंदू लडकी हो और केदरानाथ आपदा की विभिषिका के बीच उन्हें प्यार हो जाए। ऐसी आपदा जिसमें पल झपकते दस हजार लोग मारे गए हों जिस फूहडता से फिल्म को लाया जा रहा है उससे साबित होता है कि फिल्म बनाने वालों फातासी तो रच दी लेकिन न उन्होंने आपदा में उन इलाकों में लोगों से बात की , न आपदा पर जो किताबे आई उनके लेखकों से मिलना उचित समझा। न आपदा से प्रभावित परिवारों से कुछ जानने समझने की कोशिश की। भाजपा राज्य प्रवक्ता अजय अजेंद्र ने भी इस त्रासदी को झेला है। मदाकिनी के उफान को उन्होने अपने सामने देखा। घर जमीन टूटती देखी। उनका भी मानना है कि फिल्म कहीं भी उस घटना परिदृश्य को लेकर नहीं है। बल्कि उसकी आड में फिल्म के मौजूदा हल्के फार्मूले अपनाए गए हैं।

अभिषेक कपूर निर्देशित इस फिल्म में सुशांत सिंह राजपूतसारा अली खान मुख्य भूमिका में हैं। फिल्म के एक हिस्से की शूटिंग केदारनाथ व आसपास के क्षेत्र में हुई है। लिहाजा, उत्तराखंड में इस फिल्म को लेकर उत्साह होना स्वाभाविक था। मगर फिल्म के टीजर व
पोस्टर विचित्र से लग रहे हैं। ऐसी आपदा में जहां हजारों लोग मारे गए हो परिवार बिखर गए हों बच्चे अनाथ हुए हो , नायक नायिका को प्यार अलिंगन करने चुंबन देने की पूरी फुर्सत फिल्म के पर्दे पर है।

नायक-नायिका बोल्ड किस सीन करते दिख रहे हैं। टीजर में साफ दिख रहा है कि भगवान शंकर की मूर्ति, घंटे-घड़ियाल आदि के दृश्यों के साथ स्क्रीन पर लिखा आता है- ‘इस साल करेंगे सामना प्रकृति के क्रोध का और साथ होगा सिर्फ प्यार’। इस दौरान फिल्म के नायक की नमाज अदा करते एक झलक भी दिखाई देती है। इस तरह किसी धार्मिक आस्था के साथ खिलवाड किया गया है यह कला जगत के विचार करने का वक्त है। इसे कला का आधुनिक चिंतन मत कहिए यह सीधे सीधे विकृति है और पैसा कमाने का गंदा धंधा है।

फिल्म के पोस्टर में नायक सुशांत कंडी में नायिका सारा को पीठ में लादकर ले जाते हुए दिख रहे हैं। पोस्टर की पृष्ठभूमि में करोड़ों हिंदुओं की आस्था के केंद्र बाबा केदारनाथ के कला के अपने कुछ मापदंड होते हैं। कल्पना को भी एक आयाम मिलता है। लेकिन फिल्म ही नही . फिल्म को सामने लाने से पहले जो प्रचार शैली है वह भी फिल्मबनाने वालों की मानसिकता को बता रही है। सीधें सीधे पर्दे पर केदारनाथ बेचन की कोशिश है।

मंदिर का चित्र के साथ फिल्म रिलीज के बारें साथ टैगलाइन है कि ‘Love Is Pilgrimage‘। अर्थात ‘प्यार एक तीर्थ यात्रा है‘। इससे ही पता चलता है कि केदारनाथ की युग युगों से चली आ रही आस्था की यात्रा को इन फिल्म वालों ने कितना भौंडा स्वरूप दे दिया। इन्हें न राजकपूर पता है न गुरुदत्त की समझ। फिल्म के इन नए व्यापारियों को अहसास नही कि प्यार पर बरसात, प्यासा, मुगले आजम , मेला , मुगले आजम हीर रांझा. अनाडी, जब जब फूल खिले, उमराव जान , कटी पंतग आराधना जैसी फिल्में किस मनोवृति और सामाजिक विज्ञान से बनती आई हैं।

वरना प्यार के ऐसे चित्र लेकर ये सामने नहीं आते। इनका आशय उत्तेजना भारी भरकम प्रचार के साथ अकूत पैसा कमाना है। अफसोस यही कि पूरी इंडस्ट्री में कुछ अच्छे निर्देशक बेतर काम कर रहे हैं वहीं ऐसी फिल्मे भी सामने आती हैं

वैसे भी यह न तो कल्पना है न यथ्रार्थ । जिसने केदरानाथ त्रासदी के उन पलों को देखा होगा, समूचा मंदाकिनी घाटी की विपदा को समझा होगा वो ऐसी फिल्म की कल्पना नहीं कर सकते। वो ऐसी प्राकृतिक त्रासदी है जिसका जिक्र सदियों तक अलग अलग संदर्भों में होता रहेगा। उसे लेकर कला जगत अगर किसी फिल्म को लेकर आना भी था तो बेहद संजीदा होना चाहिए था। जैसे चीन युद्ध पर हकीकत फिल्म एक सिनेमा के प्रामाणिक स्तर को बताता है वैसे ही केदारनाथ पर अगर कोई फिल्म बनती भी तो बहुत संवेदना के साथ उसे सामने लाया जाना चाहिए था। सिनेमा खेल नहीं है न पैसा कमाने के लिए उटपंटाग नुस्खों के साथ बाजीगरी। सिनेमा विधा समाज के साथ साथ चलती है ।

केदारनाथ फिल्म की स्टोरी और पूरे दृश्य कल्पना जिस रूप में कही जा रही है वह एक तरह से केदारनाथ का खुला मजाक लगता है। वैसे भी । जिस क्षेत्र से लोगों की इतनी आस्था जुडी हो उसमे चित्र बेहद संजीदगी से होने चाहिए थे। आस्था पर किसी हद प्रहार भी हो तो कुछ तर्क साथ होने चाहिए। केदारनाथ की त्रासदी में ऐसा प्यार उमडने या किसी ऐसे प्रसंगो का आने की शायद ही कोई कल्पना करे। इस क्रूर किस्म की फतासी के लाभ प्यार की दुनिया को नया आयाम नहीं देगी बल्कि कही न कहीं विकृत ही करती जाएगी। साथ ही कला के लिए भी घोर अभिशाप बनेगी। केदारनाथ की यह फिल्म बेहतर पटकथा , गंभीर शोध और परिस्थिति क्षेत्र की स्थितियों को देखते हुए तैयार की जानी चाहिए थी । अफसोस यही है कि एक फिल्म जिसमें स्थानीयता को दिखाने के लिए छोटे बच्चों को भी कलाकार के रूप में लाया गया है उनके लिए जीवन की यह पहली फिल्म ही विसंगती से भरी है। बडे होकर वो शायद कहीं इस फिल्म की और इस फिल्म में अपने किरदार की कहीं चर्चा भी न कर सकें। चर्चित कवियित्री उपासना सेमवाल की भावना पर गौर किया जाना चाहिए कि इस फिल्म को बनाकर हमारे जख्मों पर फिर नमक छिडका गया है।

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